अलगाववादियों को जवाब देने की बजाय उमर, महबूबा ने चुनाव में कश्मीरियों को बहकाया

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राज्य के जम्मू, कश्मीर और लद्दाख की कुल 6 सीटों पर इस बार 44 फीसदी मतदान दर्ज किया गया जबकि 2014 में यह आंकड़ा 49 प्रतिशत के आसपास था। क्षेत्रवार आंकड़ों को देखें तो लद्दाख में सर्वाधिक 71 प्रतिशत और कश्मीर घाटी में 19 प्रतिशत वोट पड़े थे।

इस बार के लोकसभा चुनाव जम्मू-कश्मीर की दृष्टि से इसलिए विशेष रहे क्योंकि इतिहास में पहली बार हुआ कि किसी एक संसदीय क्षेत्र में तीन चरणों में मतदान कराया गया हो। राज्य में मतदान कमोबेश शांतिपूर्ण रहा जिसका श्रेय प्रशासन और सुरक्षा बलों को विशेष रूप से जाता है। राज्य में जिस तरह दो-तीन महीने पहले अशांति का माहौल था उसको देखते हुए इस बार का शांतिपूर्ण मतदान एक बड़ी उपलब्धि है। हालांकि मतदान प्रतिशत के मामले में जरूर इस बार का चुनाव पिछले चुनावों की अपेक्षा निराशाजनक रहा। राज्य के जम्मू, कश्मीर और लद्दाख की कुल 6 सीटों पर इस बार 44 फीसदी मतदान दर्ज किया गया जबकि 2014 में यह आंकड़ा 49 प्रतिशत के आसपास था। क्षेत्रवार आंकड़ों को देखें तो लद्दाख में सर्वाधिक 71 प्रतिशत और कश्मीर घाटी में 19 प्रतिशत वोट पड़े थे। गौरतलब है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में कश्मीर घाटी में मतदान का प्रतिशत 31 रहा था।

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जम्मू-कश्मीर में इस बार के चुनावी मुद्दों पर गौर किया जाये तो राष्ट्रीय सुरक्षा और पाकिस्तान के साथ तनावपूर्ण रिश्ते अहम रहे। अलगाववादियों पर की जा रही कार्रवाई, आतंकवादियों के सफाये और आतंकियों को शरण देने वालों पर की जा रही कड़ी कार्रवाई जैसे मुद्दे कश्मीर घाटी में अहम चुनावी मुद्दे रहे तो जम्मू और लद्दाख क्षेत्र में विकास के अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा का विषय सर्वाधिक हावी रहा। घाटी के लोग हालांकि कम संख्या में मतदान करने निकले जबकि राज्य में सुरक्षा के मोर्चे पर व्यवस्था एकदम चाक-चौबंद थी। ऐसा लगा कि घाटी के लोग अलगाववादियों के चुनाव बहिष्कार के आह्वान में फँस कर रह गये जबकि विकास की मुख्यधारा के साथ जुड़ना राज्य के ज्यादा हित में है।

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पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती ने धारा 370, 35-ए के मुद्दे पर जिस तरह राज्य के लोगों को गुमराह किया और जम्मू-कश्मीर के लिए अलग प्रधानमंत्री की माँग की उसने आम कश्मीरियों के मन में संशय पैदा किया और यह भी एक बड़ा कारण रहा कि लोग मतदान केंद्रों से दूर रहे। पंचायत और स्थानीय निकाय चुनावों में जिस तरह भाजपा को आशातीत सफलता मिली थी उससे जम्मू-कश्मीर के क्षेत्रीय दलों को चिंता हुई कि भाजपा का यदि यहां प्रभाव बढ़ा तो कल को उसका मुख्यमंत्री भी बन सकता है। भाजपा को जिस तरह जम्मू में एकतरफा समर्थन मिलता है और लद्दाख में भी पार्टी की स्थिति अच्छी है उसको देखते हुए पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस की चिंता बढ़ना स्वाभाविक है। इसलिए इस बार भाजपा ने जहाँ देशभर में राष्ट्रवाद का मुद्दा प्रबल कर रखा था तो वहीं पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस कश्मीर के भारत में विलय की शर्तों की याद दिलाने में व्यस्त रहे।

बहरहाल, अब चुनाव परिणामों के बाद राज्य की राजनीति किस करवट बैठती है, यह देखने वाली बात होगी। इतना तो तय है कि भाजपा लोकसभा चुनावों में अपने शानदार प्रदर्शन को देखते हुए राज्य विधानसभा जल्द से जल्द कराना चाहेगी ताकि वर्तमान माहौल को भुनाया जा सके।

-नीरज कुमार दुबे

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