सियाचिन में दुश्मन से नहीं प्रकृति से जंग लड़ते हैं दोनों ओर के सैनिक

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सियाचिन ग्लेशियर 76.4 किमी लंबा है और इसमें लगभग 10,000 वर्ग किमी वीरान मैदान शामिल है। सियाचिन के एक तरफ पाकिस्तान की सीमा है तो दूसरी तरफ चीन की सीमा अक्साई चीन इस इलाके को छूती है।

सियाचिन ग्लेशियर में सोमवार को आए हिमस्खलन की चपेट में आकर चार जवान शहीद हो गए जबकि दो पोर्टरों की भी मौत हो गई। दो अन्य जवानों की हालत अब भी गंभीर बनी हुई है और इन सभी को चिकित्सकीय निगरानी में रखा गया है। गौरतलब है कि सियाचिन ग्लेशियर दुनिया का सबसे ऊंचा युद्ध क्षेत्र है। सियाचिन में हिमस्खलन या प्रतिकूल मौसम की वजह से हर महीने औसतन दो जवानों की मौत हो जाती है। देखा जाये तो 1984 से लेकर अब तक 1400 से अधिक जवान शहीद हो चुके हैं।

इस साल 13 अप्रैल को पूरे 35 साल हो गए दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धस्थल सियाचिन हिमखंड पर भारत व पाक को बेमायने जंग को लड़ते हुए। यह विश्व का सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित युद्धस्थल ही नहीं बल्कि सबसे खर्चीला युद्ध मैदान भी है जहां होने वाली जंग बेमायने है क्योंकि लड़ने वाले दोनों पक्ष जानते हैं कि इस युद्ध का विजेता कोई नहीं हो सकता। इस बिना अर्थों की लड़ाई के लिए पाकिस्तान ही जिम्मेदार है जिसने अपने मानचित्रों में पाक अधिकृत कश्मीर की सीमा को एलओसी के अंतिम छोर एनजे-9842 से सीधी रेखा खींच कर कराकोरम दर्रे तक दिखाना आरंभ किया था। चिंतित भारत सरकार ने तब 13 अप्रैल 1984 को ऑपरेशन मेघदूत आरंभ कर उस पाक सेना को इस हिमखंड से पीछे धकेलने का अभियान आरंभ किया जिसके इरादे इस हिमखंड पर कब्जा कर नुब्रा घाटी के साथ ही लद्दाख पर कब्जा करना था।

1984 में कश्मीर में सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जा करने के लिए सशस्त्र बलों ने अभियान छेड़ा था। इसे ऑपरेशन मेघदूत का नाम दिया गया। यह सैन्य अभियान अनोखा था क्योंकि दुनिया की सबसे बड़े युद्धक्षेत्र में पहली बार हमला शुरू किया गया था। सेना की कार्रवाई के परिणामस्वरूप भारतीय सैनिक पूरे सियाचिन ग्लेशियर पर नियंत्रण हासिल कर रहे थे। ऑपरेशन मेघदूत के 35 साल बाद आज भी रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण सियाचिन ग्लेशियर पर भारत का कब्जा है। यह विजय भारतीय सेना के शौर्य, नायकत्व, साहस और त्याग की मिसाल है। विश्व के सबसे ऊंचे और ठंडे माने जाने वाले इस रणक्षेत्र में आज भी भारतीय सैनिक देश की संप्रभुता के लिए डटे रहते हैं।

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ये ऑपरेशन 1984 से 2002 तक चला था यानि पूरे 18 साल तक। भारत और पाकिस्तान की सेनाएं सियाचिन के लिए एक दूसरे के सामने डटी रहीं। जीत भारत की हुई। आज भारतीय सेना 70 किलोमीटर लंबे सियाचिन ग्लेशियर, उससे जुड़े छोटे ग्लेशियर, 3 प्रमुख दर्रों (सिया ला, बिलाफोंद ला और म्योंग ला) पर कब्जा रखती है। इस अभियान में भारत के करीब 1 हजार जवान शहीद हो गए थे। हर रोज सरकार सियाचिन की हिफाजत पर करोड़ों रुपये खर्च करती है।

यह उत्तर पश्चिम भारत में काराकोरम रेंज में स्थित है। सियाचिन ग्लेशियर 76.4 किमी लंबा है और इसमें लगभग 10,000 वर्ग किमी वीरान मैदान शामिल है। सियाचिन के एक तरफ पाकिस्तान की सीमा है तो दूसरी तरफ चीन की सीमा अक्साई चीन इस इलाके को छूती है। ऐसे में अगर पाकिस्तानी सेना ने सियाचिन पर कब्जा कर लिया होता तो पाकिस्तान और चीन की सीमा मिल जाती। चीन और पाकिस्तान का ये गठजोड़ भारत के लिए कभी भी घातक साबित हो सकता था। सबसे अहम ये कि इतनी ऊंचाई से दोनों देशों की गतिविधियों पर नजर रखना भी आसान है।

भारत सरकार ने इसके बाद कभी भी सियाचिन हिमंखड से अपनी फौज को हटाने का इरादा नहीं किया क्योंकि पाकिस्तान इसके लिए तैयार ही नहीं है। नतीजतन आज जबकि इस हिमखंड पर सीजफायर ने गोलाबारी की नियमित प्रक्रिया को तो रूकवा दिया है पर प्रकृति से जूझते हुए मौत की आगोश में जवान अभी भी सो रहे हैं, पाकिस्तान सेना हटाने को तैयार नहीं है। युद्ध की कथाओं को सुनने वालों के लिए युद्ध की तस्वीर आंखों के समक्ष खींचने में अधिक परेशानी नहीं होती लेकिन सियाचिन हिमखंड में होने वाली लड़ाई की तस्वीर वे नहीं खींच पाते जो बेमायने तो है ही सही मायनों में यह युद्ध दुश्मन के साथ नहीं बल्कि प्रकृति के साथ है जो होने वाली मौतों के 97 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है।

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सियाचिन के बारे में यह भी एक दिलचस्प आंकड़ा है कि यहाँ आज तक सिर्फ एक ही लड़ाई हुई है। यह लड़ाई दुनिया की अभी तक की पहली और आखिरी लड़ाई थी जिसमें एक बंकर में बनी पोस्ट पर कब्जा जमाने के लिए जम्मू के हानरेरी कैप्टन बाना सिंह को परमवीर चक्र दिया गया था और उस पोस्ट का नाम भी उन्हीं के नाम पर रखा गया है।

कैप्टन बाना सिंह को परमवीर चक्र मिला था और आज वे जम्मू के सीमावर्ती गांव रणवीर सिंह पुरा में रहते हैं। वे अपने मिशन को बयां करते हुए बततो थे कि यह बात सियाचिन हिमखंड पर भरतीय फौज के कब्जे के तीन साल बाद की है जब 1987 में पाकिस्तानी सेना ने 21 हजार फुट की ऊंचाई पर कब्जा कर एक बंकर रूपी पोस्ट का निर्माण कर लिया था। मुहम्मद अली जिन्नाह के नाम पर बनाई गई यह पोस्ट भारतीय सेना के लिए समस्या पैदा कर रही थी और खतरा बन गई थी क्योंकि वे वहां से गोलियां बरसा कर नुकसान पहुंचाने लगे थे।

दुनिया की सबसे ऊंचाई पर बनाई गई इस एकमात्र सैनिक पोस्ट पर कब्जे का अभियान शुरू हुआ तो 1987 के मई महीने में चुनी गई 60 सैनिकों की टीम का बाना सिंह भी हिस्सा बने थे। बाना सिंह को जब परमवीर चक्र मिला था तो पाकिस्तान डिफेंस रिव्यू में भी उनकी बहादुरी के चर्चे हुए थे जिसमें लिखा गया था कि: ‘वह बहादुरी जिसकी कोई मिसाल नहीं है’। 26 जून 1987 को अंततः 21000 फुट की ऊंचाई पर बनाई गई पाकिस्तानी पोस्ट पर कब्जा कर बहादुरी की गाथा लिखने पर ऑनरेरी कैप्टन बाना सिंह को बतौर ईनाम परमवीर चक्र तो मिला ही था साथ ही इस पोस्ट का नाम उनके नाम पर भी रख दिया गया। विश्व के इतिहास में यह पहला और आखिरी मौका था कि इतनी ऊंचाई पर कोई युद्ध लड़ा गया था।

पर इस जीत के लिए भारतीय सेना को बहुत कीमत चुकानी पड़ी थी। 22 जून को शुरू हुए ऑपरेशन में उसके कई अफसर और जवान वीरगति को प्राप्त हुए थे। कारण स्पष्ट था। गोलाबारी के साथ साथ मौसम की परिस्थिति उनके कदम रोक रही थी। कई बार इस ऑपरेशन को बंद करने की बात भी हुई और इरादा भी जगा था। लेकिन कमान हेडक्वार्टर से एक ही संदेश था: ‘या तो जीत हासिल करना या जिन्दा वापस नहीं लौटना।’ और वीरगति को प्राप्त हुए सैनिकों ने इस संदेश का मान रखा था।

इस ऑपरेशन में चीता हेलिकाप्टरों ने अहम भूमिका निभाई थी। करीब 400 बार उन्होंने उड़ानें भर कर और दुश्मन के तोपखाने से अपने आप को बचाते हुए जवानों और अफसरों को बंकर के करीब पहुंचाया था। इस लड़ाई का एक कड़वा और दिल दहला देने वाला सच यह था कि 21000 फुट की ऊंचाई पर शून्य से 60 डिग्री नीचे के तापमान में भारतीय जवानों ने तीन दिन भूखे पेट रह कर इस फतह को हासिल किया था और पाकिस्तानी बंकर में मोर्चा संभालने वाले 6 पाकिस्तानियों को मारने के बाद बचे हुए भारतीय जवानों ने पाकिस्तानी स्टोव को जला कर पाकिस्तानी चावल पका कर पेट की भूख शांत की थी।

-सुरेश एस डुग्गर

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