MSME क्षेत्र को उबारने के लिए मोदी सरकार ने काफी कुछ किया, लेकिन अभी बहुत कदम उठाये जाने बाकी हैं

MSME sector

कोरोना काल के इस 1.5 वर्ष के दौरान लोगों के स्वास्थ्य के साथ-साथ औद्योगिक इकाइयों के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा किया गया प्रभावी कार्य अत्यधिक सराहनीय है। कोरोना की लहर जारी रहे या ना रहे, उद्योग बंद न रहें यह अत्यंत जरूरी है।

देश के प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभालने के बाद पिछले सात वर्षों में विभिन्न मिशनों और कार्यक्रमों के माध्यम से सुधारवादी कदम उठाकर देश की आर्थिक व्यवस्था को सुधारने और उनमें गति देने के लिए प्रधानमंत्री और उनकी और आपकी टीम ने कड़ी मेहनत की है। सरकार के राष्ट्रीय विकास कार्यक्रम जैसे कि आत्मनिर्भर भारत, मेक इन इंडिया, ईज ऑफ डूइंग बिजनेस, सिम्पलीफिकेशन ऑफ प्रोसेस, स्किल इंडिया, स्वच्छ भारत अभियान, इनोवेशन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, वोकल फॉर लोकल, लेबर रिफॉर्म बिल, कृषि सुधार विधेयक, कश्मीर में धारा 370-35A का उन्मूलन, CAA अधिनियम, ट्रिपल तलाक विधेयक, नोटबंदी इत्यादि जैसे कदमों के जरिये कई सुधारवादी कदमों को प्रोत्साहन देकर भारत की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था को मजबूत करने के लिए "सबका साथ, सबका विकास" जैसे सिद्धांतों को ध्यान में रखकर देश की जनता के सामाजिक-आर्थिक, शैक्षिक और स्वास्थ्य के मामले में उत्कृष्टता हासिल करने की राह प्रशस्त की है।

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ऑल इण्डिया एमएसएमई फेडरेशन के अध्यक्ष मगनभाई एच. पटेल ने देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए आवश्यक कदमों पर गंभीरता से विचार कर के श्रमिकों के मुद्दों, उद्योग जगत के मुद्दों, शैक्षिक मुद्दों, सीएसआर फंड, स्वास्थ्य मुद्दों, कुशल युवाओं के लिए औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र (आई.टी.आई) मुद्दों इत्यादि के बारे में कुछ प्रश्न और दृष्टिकोण प्रस्तुत किए हैं जोकि इस प्रकार हैं- 

कोरोना काल के दरमियान देश के श्रमिकों की आर्थिक परिस्थिति

कोरोना काल के दौरान सबसे ज्यादा आर्थिक असर देश के करीबन 74 करोड़ श्रमिकों को पड़ा है। सरकार हमेशा गरीबों, मेहनतकश श्रमिकों के लिए सोचती है। कई लोगों को अनाज वितरण, विभिन्न छोटे और बड़े व्यवसायों के लिए असुरक्षित ऋण जैसी बहुत-सी व्यवस्था की है, इसमें सरकार की अव्यवस्था और इससे जुड़े हुए हमारे देश के व्यापारी या कन्सल्टेन्ट इन योजनाओं को मुनाफे में बदलने और परिणाम लाने में असफल हुए हैं, इसलिए देश के करीबन 74 करोड़ श्रमिक लोगों के लिए सही लोगों की निगरानी रखनी आवश्यक है।

कोरोना काल के इस 1.5 वर्ष के दौरान लोगों के स्वास्थ्य के साथ-साथ औद्योगिक इकाइयों के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा किया गया प्रभावी कार्य अत्यधिक सराहनीय है। कोरोना की लहर जारी रहे या ना रहे, उद्योग बंद न रहें यह अत्यंत जरूरी है। उद्योग बंद ना रहे इसीलिए कोरोना काल के इस 1.5 काल में बहुत ही सोच समझ कर उद्योगों को चालू रखने का प्रयास किया गया है और इसीलिए अप्रैल 2021 माह का GST तकरीबन 1 लाख 45 हज़ार करोड़ जितना हुआ है, जो बताता है कि उद्योग बंद नहीं हुए हैं और खास कर के MSME को कोई प्रश्न नहीं रहेगा तो एक वर्ष के अंदर देश का GST 3 लाख हज़ार करोड़ रुपए प्रति माह हो सकता है। लेकिन इसके लिए सरकारी नीतियों को ठीक से लागू करना होगा और आई.टी.आई. जैसी संस्थाओं के माध्यम से कुशल श्रमिकों को तैयार करना होगा। उन्हें सरकारी I.T.I के खिलाफ निजी I.T.I स्थापित करने के लिए उचित सहायता देकर अच्छा बुनियादी ढाँचा प्रदान करना होगा। इस बारे में गंभीर रूप से विचार-विमर्श करके जरूरी कदम उठाने की तत्काल आवश्यकता है।

वर्तमान कोरोना काल में सरकार को पूर्व में उद्योगों को बिजली के बिल या बैंकिंग को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार के मामलों में उचित ब्याज दरों पर कोई प्रोत्साहन देने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ज्यादातर उद्योग आर्थिक रूप से मजबूत हैं। कोरोना काल के दूसरे चरण में सरकार ने उद्योग जगत को जो रियायतें दी हैं, वे वैसे ठीक हैं, लेकिन अगर सरकार राहत देना चाहती है तो गरीब, मध्यमवर्ग को भी राहत देनी होगी, इसके लिए सरकार को मेक-इन इंडिया पर ध्यान देना होगा। केवल रियायतें या प्रोत्साहन देने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। सरकार को स्टार्ट-अप में निवेश करने की आवश्यकता नहीं है साथ ही सरकार को बड़ी औद्योगिक इकाइयों में R&D पर खर्च नहीं करना चाहिए।

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मध्यम स्तर के उद्योगों एवं कॉर्पोरेट कंपनियों के पीछे भी R&D खर्च करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि वे आर्थिक रूप से सक्षम हैं। SSI से ऊपर की सभी इकाइयों को उन रियायतों की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वे आर्थिक रूप से सक्षम हैं इसलिए इस वित्त का उपयोग श्रमिकों के पीछे किया जाना चाहिए। सरकार को निर्यात के साथ-साथ कच्चे माल में कुछ जरूरी राहत देनी चाहिए। यह हमारा सुझाव है और साथ ही हमारे 50 वर्षों के अनुभव पर आधार पर यह जानकारी आप के समक्ष रख रहे हैं।

आज देश में करीब 74 करोड़ श्रमिक हैं जो इस प्रकार हैं।

 क्रम सेक्टर का नाम श्रमिकों की संख्या
 o1 एमएसएमई क्षेत्र के सदस्यों के साथ लगभग15 करोड़
 o2 कॉर्पोरेट एवम बड़े क्षेत्र में लगभग  12 करोड़
 03 सरकारी और निजी बुनियादी ढांचे में लगभग 12 करोड़
 04 कृषिक्षेत्र में परिवार के साथ लगभग 20 करोड़
 05 विभिन्न असंगठित क्षेत्रों में लगभग 15 करोड़

 इसके अलावा जितने भी श्रमिक देश में हैं, उनमें भविष्य निधि, ईएसआई जैसे संगठित क्षेत्र में काम करने वाले सिर्फ 10 से 15 करोड़ श्रमिक ही हैं। आज सरकार की किसी भी वेबसाइट पर श्रमिकों के बारे में ऐसी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है, जैसे कि कोरोनाकाल के दोरान कितने एमएसएमई यूनिट बंद हुए, कितने श्रमिकों ने भविष्य निधि की निकासी की, इत्यादि। जो भी विवरण मिल रहे हैं वह पांच से छह साल पुराने होते हैं और अपडेट भी नहीं किया गया होता है। कई अंकों का सर्वेक्षण विभिन्न समाचार एजेंसियों द्वारा किया गया होता है जो आधिकारिक नहीं होते हैं। हमारे एक अध्ययन के अनुसार संगठित क्षेत्र से करीब हजारों करोड़ रुपये भविष्य निधि की निकासी की गई है। औद्योगिक इकाइयों में श्रमिकों की सबसे खराब स्थिति गुजरात, यूपी, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों में भी है। नौकरी और रोजगार के अभाव में, उन्हें अपने परिवारों का गुजारा चलाने के लिए अपने कीमती गहने गिरवी रखने पड़ रहे हैं। पैसों की कमी के कारण ने उन्हें बाजार से अपनी संपत्ति, वाहन, सोने-चांदी के गहने इत्यादि पर 5% से 10% जितने उच्च मासिक ब्याज दरों पर उधार लेने की नौबत आई हुई है। जिसमें समय पर ब्याज नहीं चुका पाने पर ऐसे लोग उनके गहने, मकान, फर्नीचर, बर्तन, वाहन, संपत्ति आदि छीन लेते हैं और उन्हें बेघर कर देते हैं। हमारे पास ऐसे कई उदाहरण हैं लेकिन हम उनमें से किसी में भी जाना नहीं चाहते हैं। यहाँ तक कि किराए के मकानों में रहने वाले इन श्रमिकों को समय पर किराया न चुका पाने पर उन्हें मकान खाली करने की नौबत आती है, जो एक बहुत ही गंभीर और विचारणीय बात है।

आज देश में श्रमिक और गरीब परिवारों को मुफ्त खाद्यान्न वितरित किया जाता है जिसकी अंदाजित कीमत 400 रुपये होती है। इसके बजाय, यदि श्रमिकों को 400 रुपये की दैनिक आय के मुताबिक नौकरी दी जाए, तो उन्हें सरकारी खाद्यान्न की आवश्यकता नहीं रहेगी। आज की महंगाई के हिसाब से इस गरीब और श्रमिक वर्ग को अच्छे वेतनवाले रोजगार और दिन-प्रतिदिन के काम की जरूरत है। श्रमिक वर्ग के लिए सामाजिक सुरक्षा योजना के तहत पीएफ के साथ-साथ चिकित्सा उपचार के लिए ईएसआई और वो किसी भी इकाई को छूट दिए बिना शुरू से ही काट लिया जाए ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए, ताकि श्रमिक बिना किसी प्रकार की लाचारी के अपना बाद का जीवन जी सके और जीवन भर मेहनत करने के बाद 400 रुपये की अनाज की लाइन में खड़ा ना रहना पड़े और वह स्वाभिमानी श्रमिक बन सके। देश में लगभग 74 करोड़ श्रमिकों में से कुछ ही ऐसे हैं जिन्होंने अपने बच्चों को अच्छी तरह से शिक्षित किया हो, अच्छी नौकरी दिलाई हो, ऋण लेके ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, यूरोप, मध्य पूर्व जैसे देशों में उच्च अध्ययन के लिए भेजा हो। कई श्रमिक छोटे और बड़े विनिर्माण, सेवा क्षेत्र में हिस्सेदारी कर के साहस करते हैं जो सरकार की विभिन्न योजनाओं की बदौलत है। अगर इन श्रमिकों के आवास की बात करें तो राज्य सरकार की हाउसिंग सोसाइटी जो झुग्गी-झोपड़ियों में हैं, जहां गंदगी है, बिजली का काला कारोबार है और पीने का साफ पानी भी नहीं होता, साथ ही साथ बच्चों की अच्छी शिक्षा के लिए पास में अच्छे स्कूल की कमी के कारण वे कौशल शिक्षा नहीं ले पाते। श्रमिकों के लिए आवास घर भी 30 से 40 वर्षों में ढह जाते हैं और जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, जिन्हें सरकार को पुनर्गठित करने की आवश्यकता है।

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मजदूर वर्ग के परिवार के सदस्य / बच्चे यदि अच्छी शिक्षा के लिए डिप्लोमा इंजीनियर, डिग्री इंजीनियर, विज्ञान प्रौद्योगिकी, एमबीए जैसे पाठ्यक्रमों में प्रवेश चाहते हैं तो कई सारे एनजीओस जैसे पटेल समाज, जैन समाज, वैष्णव समाज, क्षत्रिय समाज के साथ-साथ पंचाल समाज, मिस्त्री समाज, प्रजापति समाज जैसे मुख्यधारा के समाज अपने स्वयं के संगठन बनाकर अपने समाज के श्रमिकों की सहायता करते हैं, ताकि मजदूर अपनी आर्थिक स्थिति को बेहतर कर सके, लेकिन असंगठित जातियां एससी/एसटी, सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों का समाज बिखरा हुआ है, उन्हें कोई मदद नहीं मिलती, वे सिर्फ सरकारी सहायता पर आधारित होते हैं। सरकारी सहायता प्राप्त करने की कोई जानकारी नहीं होती, इसलिए उन्हें सरकारी योजना का उचित लाभ नहीं मिलता। इस प्रकार अपरिचित व्यक्ति, एजेंट योग्यता में शामिल न होने पर भी झूठा फायदा उठाते हैं। ईएसआई, पीएफ जैसी अन्य सरकारी योजनाएं हैं जिनमें श्रमिक परिवारों को विशेष प्राथमिकता दी जानी चाहिए। सरकार जो भी योजनाएँ बनाती है उसमें लघु उद्योग (SSI), सूक्ष्म उद्योग, कुटीर उद्योग तक के उद्योगों को प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है। बाकी पैसों का इस्तेमाल 74 करोड़ श्रमिकों के लिए किया जाना चाहिए। राज्य/केंद्र सरकार एमएसएमई और अन्य उद्योगों को कई रियायतें देती है जिसकी जरूरत नहीं होती सिवाय बुनियादी ढांचे और मियादी ऋण, कार्यशील पूंजी ऋण, बिल रियायत ऋण को छोड़कर किसी भी यूनिट को राहत की जरूर नहीं होती। बड़े उद्योग जैसे रिलायंस, अदानी, एस्सार अपने तरीके से विकसित हो रहे हैं। इसके लिए आने वाले समय में ऑल इंडिया एमएसएमई फेडरेशन द्वारा इस विषय पर संबंधित अधिकारी के साथ चर्चा की जाएगी। अपने देश के श्रमिकों के 6 से 8 साल की उम्र के 10 से 12 बच्चे एक ऑटो रिक्शा में लटक कर स्कूल जाते हैं तब यह नजारा देखकर बहुत दुख होता है। एक ऑटो रिक्शा में तीन यात्रियों को अनुमति होती है, तब वे 10 से 12 बच्चों को ले जाते हैं, जिनमें से कुछ रिक्शा चालक अपने बगल में बच्चों को बिठाते हैं। जबकि अन्य बच्चे रिक्शा के पिछले हिस्से में अपने पैरों को लटकाए बैठे होते हैं। ऐसी परिस्थिति मे कई बच्चे चलती रिक्शा से गिर जाते हैं और हादसे का शिकार होते हैं। हमारे देश में ऐसे कई मामले सामने आए हैं। यह रिक्शा चालकों या बच्चों के माता-पिता की गलती नहीं है, बल्कि उनकी मजबूरी है।

कॉर्पोरेट सोशियल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR)

इसी तरह, जब कॉरपोरेट सोशियल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) फंड की बात की जाए, तो ये फंड सरकार का है इनमें से 80% का कॉर्पोरेट कंपनियों द्वारा दुरुपयोग किया जाता है। यह फंड श्रमिक लोगों की महेनत से हुआ मुनाफा है, सरकार इनकम टैक्स में राहत देती है, यह फंड सरकार का है। जब इन इकाइयों को सत्ता दी जाती है, तो ये इकाइयां अपनी मालिकी के शिक्षा ट्रस्ट, स्वास्थ्य ट्रस्ट चलाकर एक निजी संस्थान की तरह काम करके मुनाफा करती हैं। यह संगठन सार्वजनिक नहीं होते हैं। इन संस्थानों में श्रमिकों को प्रवेश मिलता नहीं है। ये लोग सार्वजनिक निकायों की बजाय जाति निकायों की स्थापना कर के 2 से 5 स्वास्थ्य-शिक्षा परियोजनाओं के नाम पर भ्रष्टाचार के माध्यम से सीएसआर में पंजीकृत कराते हैं। दुःख की बात यह है कि 50% लोग इस फंड का उपयोग हिसाबी मामलों में अवैध एन्ट्री हेतु करते हैं। यह एक बड़ा भ्रष्टाचार और घोटाला है। समाज में ऐसी बड़ी इकाइयों के एजेंट घूमते हैं और कहते हैं, "आपकी संस्था को सीएसआर में पंजीकृत करा देंगे और एक प्रोजेक्ट के जरिये 50 से 100 करोड़ या उससे अधिक रूपये दिला देंगे और आपको 50% हिस्सा दो नंबर का हमें वापस देना होगा।" ऐसी कुछ लोगों की मानसिकता है जिसमें सरकार क्या करे? कंपनी के प्रबंध निदेशक / मैनेजमेंट भ्रष्टाचार के जरिए सीएसआर का पैसा लेते हैं जो बेहद ही गंभीर मामला है। जिस उद्देश्य के लिए यह योजना बनाई गई है, उसके लिए सीएसआर फंड का 20% हिस्सा भी सही जगह पर उपयोग नहीं होता। यदि इस सीएसआर फंड का उपयोग देश के लगभग 74 करोड़ श्रमिकों की शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, रोजगारोन्मुखी कार्यक्रमों, प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिए किया जाए तो पीछे रह गए श्रमिकों पर महंगाई का बोझ नहीं पड़ेगा और रोजगार एवं आमदनी तथा राजस्व का सृजन होगा।

औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (आई.टी.आई)

हमारे देश में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं जिन्होंने अपने उत्पादों को बाजार में उतारा है और उन्हें विनिर्माण के साथ-साथ सेवा क्षेत्र में प्रशिक्षित लोगों की जरूरत होती है। इसके लिए उन्होंने I.T.I, इंडो जर्मन टूलरूम, CIPET जैसी संस्थानों से प्रशिक्षण लिया हो, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, इलेक्ट्रिकल्स, इंजीनियरिंग, मशीनरी, ड्राफ्ट्समैन, I.T.I में सर्वेयर, I.T सर्टिफिकेट, EC सर्टिफिकेट कोर्स, प्रिंटिंग, ब्लैकस्मिथ, कारपेंटर, पेंटर जैसे लगभग 70 कोर्स हैं जिनमें इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रॉनिक, मैकेनिकल कोर्स में प्रशिक्षण के लिए आधुनिक मशीनें नहीं होतीं। यहां तक कि पाठ्यक्रम भी सेवा क्षेत्र के उद्योगों की जरूरत अनुसार नहीं होते है। जिसमें 50% अंकों वाले 10वीं और 12वीं कक्षा के छात्र आई.टी.आई. में जाते हैं। मुख्य शहर जैसे अहमदाबाद की -6, राजकोट की -4, सूरत की -6, बड़ौदा या भावनगर की -4 आई.टी.आई. में अच्छा प्रशिक्षण है, अच्छा इन्फ्रास्ट्रक्चर होता है, इसीलिए कॉरपोरेट कंपनियां कैंपस इंटरव्यू की व्यवस्था करती हैं और ऐसे संस्थानों से 30% अच्छे और कुशल युवाओं को ले जाती हैं। परंतु शेष यानी गुजरात में 450 से अधिक और देश में हजारों आई.टी.आई. बुनियादी ढांचे, प्रशिक्षण उपकरण, प्राचार्य, प्रशिक्षकों, अपर्याप्त कर्मचारियों के साथ चल रही हैं। केवल प्रमाणपत्र ही उपलब्ध हैं लेकिन प्रशिक्षण पर्याप्त नहीं है। यदि वे उचित प्रशिक्षण के बिना उद्योगों में जाते हैं, तो वे इन मशीनों को बिना उचित प्रशिक्षण के चलाने के लिए सीएनसी, वीएमसी जैसी उन्नत मशीनें कैसे दे सकते हैं, जिनकी कीमत करोड़ों में होती है? तो ऐसे संस्थानों के लिए मेडिकल, इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रॉनिक मशीन, मशीन टूल्स, मशीन बनाने वाली बड़ी कंपनियों द्वारा संस्थानों को दान हो सके ऐसी व्यवस्था सरकार द्वारा होनी चाहिए। साथ ही सरकार को ऐसे उपकरणों को आयकर में 150% से 200% छूट देनी चाहिए। ऐसी मशीनें बेहतर प्रशिक्षण के लिए तालुका स्तर पे ग्रामीण क्षेत्र के संस्थानों को उपलब्ध कराई जानी चाहिए। उदाहरण के लिए मारुति ऑटो कंपनी ने गुजरात के मेहसाणा जिले के गणपत विश्वविद्यालय में अपने तकनीशियनों को तैयार करने के लिए 10 करोड़ रुपये से अधिक का दान दिया और दो साल के प्रशिक्षण के बाद, मारुति ने ऑटोमोबाइल और मैकेनिकल के छात्रों को अपने ही सर्विस स्टेशनों पर 30,000 रुपये से अधिक के मासिक वेतन के साथ काम पर रखा। ऐसे में देश की अन्य बड़ी कॉर्पोरेट बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने कर्मचारियों, युवाओं के साथ-साथ परिवार के सदस्यों को भी इस तरह का प्रशिक्षण देने में मदद करनी चाहिए। कई बड़ी कंपनियों के अपने प्रशिक्षण केंद्र होते हैं।

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यहां यह उल्लेख करना उचित होगा कि वर्ष 1999 के पूर्व-बजट में, गुजरात राज्य लघु उद्योग संघ (जीएसएसआईएफ) के अध्यक्ष के रूप में, मगनभाई पटेल ने बजट प्रस्ताव में तत्कालीन वित्त मंत्री को एमएसएमई के लिए जो प्रस्ताव प्रस्तुत किए वो लगभग सभी स्वीकृत हो गए थे। किसी भी प्रबंधन में अत्यधिक कुशल इंजीनियरों, तकनीशियनों, वैज्ञानिकों के साथ-साथ उच्च प्रबंधन वाले व्यक्ति भी होंगे, लेकिन अगर उनके पास काम करने के लिए कुशल कार्यकर्ता नहीं है तो वे कैसे काम कर सकते हैं? इसीलिए मगनभाई पटेल ने बजट प्रस्ताव में कहा कि जो श्रमिक किसी भी विनिर्माण या सेवा क्षेत्र के हाथ हैं, वे तकनीकी रूप से आधुनिक कार्यशाला आई.टी.आई. से होंगे तभी वे व्यावहारिक उत्पादन और सेवा क्षेत्र में काम कर पाएंगे। तत्कालीन वित्त मंत्री ने बजट में इन आई.टी.आई. और प्रशिक्षण केंद्रों के लिए बड़े अनुदानों को मंजूरी दी और फिर उन्होंने प्रत्येक राज्य में आई.टी.आई. के लिए संचालन समितियों, संस्थान प्रबंधन समितियों (आई.एम.सी) की रचना की। इस बीच गुजरात राज्य लघु उद्योग (जीएसएसआईएफ) के अध्यक्ष मगनभाई पटेल ने अहमदाबाद के नरोडा इलाके की कुबेरनगर आई.टी.आई. में आई.एम.सी. समिति के अध्यक्ष के रूप में कार्य करके कई बदलाव किए। उन्होंने खुद स्कूलों में जाकर प्रधानाध्यापकों, छात्रों के माता-पिता के साथ बैठकें कर के आई.टी.आई. का महत्व समझाया और परिणाम स्वरूप 70% से ऊपर के छात्र भरती हुए और उन्हें बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों में काम मिला। मगनभाई पटेल ने सरकार से आवश्यक उपकरण उपलब्ध कराए और इस आई.टी.आई. को गुजरात की नंबर एक आई.टी.आई. बनाया। इस आई.टी.आई. में लगभग 5,500 बच्चों को प्रशिक्षित किया गया और उन्हें देश के साथ-साथ विदेशों में 100% प्लेसमेंट मिला। इसी तरह सभी आई.टी.आई. में जाकर अपग्रेड करने की कोशिश की जो आज भी जारी है। यह व्यवस्था मगनभाई पटेल की व्यावहारिक बैठकों और उनके स्वयं के निर्णयों द्वारा की गई थी।

मेक इन इंडिया

प्रधानमंत्री नरेंद्रभाई मोदी द्वारा मेक-इन इंडिया और स्टार्ट-अप योजना से देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने से मशीनरी, चिकित्सा उपकरण, बरतन या किसी भी प्रकार के उपकरण, किसी भी मशीनरी उत्पाद में गुणवत्ता देखने को मिली है। जबकि भारतीय विनिर्माण उत्पादों या ब्रांड में गुणवत्ता नहीं मिलती और इसलिए लोग आज भी भारतीय सीलिंग फैन जैसे छोटे भारतीय उत्पाद को लेने के लिए तैयार नहीं हैं और इसलिए वे सीलिंग फैन के लिए क्रॉम्पटन, ओरिएंट जैसी कंपनी से उत्पाद चुनते हैं। अगर सरकार द्वारा आज ऑटो सेक्टर में कारों, ट्रकों और ट्रैक्टरों के लिए टायरों की सूची मंगाए तो एक भी भारतीय कंपनी टायर उत्पादन में देखने को नहीं मिलेगी जो तकनीकी कमी को दर्शाता है।

आज देश में किसी भी प्रकार का कोई अनुसंधान (रिसर्च) नहीं हुआ है, हमने तो केवल कॉपी ही की है। उदाहरण स्वरूप- वॉशिंग मशीन, एलईडी टीवी, एसी, कंप्यूटर, कोई भी इलेक्ट्रिक किचनवेयर के उपकरण जैसी बहुत-सी चीजें होंगी, जिनमें से कोई भी भारतीय निर्मित नहीं है, बिक्री कम है, गुणवत्ता नहीं है और अगर है तो वह कॉलब्रेशन होगा। इसी तरह ऑटो इंडस्ट्री में कोई भी कार या वाहन किसी भारतीय कंपनी द्वारा बनाया नहीं गया है। ज्यादातर कारें विदेशी हैं। सुजुकी कपंनी द्वारा मारुति कार बनाने की व्यवस्था हुई तब आज उसे भारतीय लोगों के प्रबंधन द्वारा निर्मित नंबर वन कार माना जाता है। इसी तरह महिंद्रा कारों का तकनीकी कॉलब्रेशन होने से इस समय कार सेक्टर में अच्छा उत्पादन हो रहा है।

आज टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट रिसर्च में पैसे का सही जगह इस्तेमाल नहीं हो रहा है। मीडियम स्केल इंडस्ट्रीज़ से लेकर कॉर्पोरेट सेक्टर को इन्सेन्टिव की आवश्यकता नहीं है। सरकारी पैसों का व्यय होता है। हमारे अभ्यास के आधार पर कहा जाए तो देश में फार्मा इंडस्ट्रीज, सॉफ्टवेयर और इसरो स्पेस जैसे इंस्टीट्यूट में अनुसंधान के लिए धन मुहैया कराना चाहिए। उदाहरण के लिए आप कितने भी उपकरण क्यों न लें, वे लगभग सभी विदेशी कंपनी के ही बने होते हैं। प्रौद्योगिकी केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सहयोग के माध्यम से लाई जा सकती है जो मेक-इन इंडिया जैसी योजनाओं से आ सकती है। किसी अन्य भारतीय कंपनी ने अभी तक शोध एवं विकास नहीं किया है।

खासकर जो कंपनियां बड़ी हुई हैं उसमें रिलायंस, अदानी, एस्सार जैसी कई कंपनियां प्रोसेस और सर्विस सेक्टर में विकसित हुई हैं। लेकिन निर्माण में यह गुणवत्ता और कीमत के मामले में बराबरी नहीं कर सकतीं। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह इंफ्रास्ट्रक्चर यानी स्टार्टअप योजनाओं पर पैसा खर्च करे और एमएसएमई की सफल इकाइयों को प्राथमिकता दे ताकि वे इकाइयाँ छोटे पैमाने के उद्योगों से मध्यम स्तर के उद्योगों में और मध्यम पैमाने के उद्योगों से कॉर्पोरेट क्षेत्र में जा सकें जिससे राजस्व उत्पन्न होगा और तकनीकी श्रमिक और प्रबंधन स्टाफ को रोजगार मिलेगा।

औद्योगिक इकाइयों के संबंध में

आज किसी भी उद्योग को विकसित करना हो, तो मुख्य प्रश्न बुनियादी ढांचे का होता है। हमारे पास बहुत से लोग प्रश्न लेकर आते हैं, परियोजना रिपोर्ट बनाते हैं जिसमें मुख्य प्रश्न बुनियादी ढांचे का होता है। यदि आप देश के बड़े शहरों में 20 किमी दूर जमीन खरीदने जाते हैं, तो जिन मालिकों ने किसान का लाभ उठाया है, अगर हम इस जमीन को एकड़ में गिनें, तो कीमत 3 करोड़ रुपये से लेकर 10 करोड़ रुपये प्रति एकड़ तक होती है। उदाहरण के लिए अगर किसी को चार एकड़ जमीन चाहिए तो कम से कम तीन करोड़ रुपये के हिसाब से बारह करोड़ की जरूरत होगी जिसमें 25% से 30% का दस्तावेज होता है यानी यह बारह करोड़ की जमीन का दस्तावेज केवल तीन से चार करोड़ का होता है, शेष आठ से नौ करोड़ रुपये नकद में देने होते हैं। इसलिए पहले से ही अनिवार्य रूप से गलत करने की प्रक्रिया से गुजरना होता है। इन आठ करोड़ को इकट्ठा करने के लिए बहुत कुछ गलत करना पड़ता है। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ बिचौलियों को रखकर गलत ख़र्च दिखाकर यह दस्तावेज़ करती हैं। बिचौलिया फालतू के खर्च जैसे की जमीन समतल करना, अहाते की दीवार करना जैसे खर्च दिखाकर कुल 12 करोड़ रुपये का मूल्य करता है। देश के अन्य बड़े शहरों जैसे दिल्ली, बैंगलोर, कलकत्ता, मुंबई में स्थिति और भी खराब है।

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दूसरी बात बुनियादी ढांचे के बारे में की जाये तो सरकार के पास राजमार्गों के अलावा कोई बुनियादी ढांचा नहीं है। यदि राष्ट्रीय या राज्य राजमार्ग पर सड़क मिलती है, तो इकाइयां अपनी जमीन खुद खरीद कर अपना निर्माण करती हैं। कोई अच्छी सड़क नहीं होती, 30-40 वर्षों के बाद भी शुद्ध पीने लायक पानी और बिजली की असुविधा होने के बावजूद, असंगठित रूप से राजमार्ग के अंदर औद्योगिक सम्पदा बनाकर निर्माण में साहस करते हैं और जब शहरी विकास (अर्बन डेवलपमेंट) की बात आती है, तो भूमि क्षरण बड़ी समस्याओं का कारण बनता है और इसलिए लोग इस क्षेत्र के प्रति उदासीन हो जाते हैं। इसीलिए कोई भी जगह उद्योग लगाए जाए तो टी.पी. योजना पहले से ही हो जाए यह जरूरी है। यदि प्रोत्साहनों की बात करें तो सूक्ष्म और कुटीर उद्योग केवल दो क्षेत्रों में प्रोत्साहन देने के लिए उपयुक्त हैं।

लघु इकाइयों (स्मॉल स्केल) का न्यूनतम कारोबार 4 से 5 करोड़ रुपये होता है। 5 करोड़ में 10% मुनाफा यानि 40 से 50 लाख रुपये सालाना कमाने वाली इकाई को प्रोत्साहन देकर हम क्या करना चाहते हैं जो एक सवाल है। सरकार को ऐसी इकाइयों को प्रोत्साहन (इन्सेन्टिव) नहीं देना चाहिए क्योंकि प्रोत्साहन से कोई विकास नहीं होता है और ऐसे प्रोत्साहनों का अधिक से अधिक दुरुपयोग होता है। इन सभी राजस्व (रेवन्यु) का उपयोग देश के लगभग 74 करोड़ श्रमिकों के बच्चों के लिए कौशल शिक्षा, आवास, सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और एमएसएमई के बुनियादी ढांचे के लिए किया जाना चाहिए। हमें देश के लगभग 74 करोड़ श्रमिकों के पीछे खर्च करना होगा, विकर सेक्शन के लिए एक बड़ा प्रावधान करना होगा तभी हम इससे बाहर निकल पाएंगे।

- मगन भाई एच. पटेल

अध्यक्ष

ऑल इण्डिया एमएसएमई फेडरेशन

अहमदाबाद, गुजरात

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