लक्षित हमलों के जरिये ही नहीं निबट सकते पाक से

भारत को पाकिस्तान से निपटना है तो सख्त सीमाबंदी और आंतरिक समस्याओं पर काबू पाकर ताकतवर बनना होगा। घरेलू मोर्चे पर विभिन्न मुद्दों से निपटे बगैर पाकिस्तान हो या चीन, किसी से भी निपटना आसान नहीं है।

सर्जिकल स्ट्राइक और उसके बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 'आतंक को पनाह देने वालों को बख्शेंगे नहीं' जैसे बयान के बाद भी पाकिस्तान अपनी काली करतूतों से बाज नहीं आ रहा है। पिछले एक पखवाड़े में कश्मीर के बारामूला, शोपियां और पंपोर में आतंकी कार्रवाई से जाहिर है कि पाकिस्तान के हौसले कमजोर नहीं पड़े हैं। पाकिस्तान लगातार अपनी नापाक साजिशों को अंजाम दे रहा है। भारत की विश्व में उसे आतंकी राष्ट्र घोषित करने की मुहिम को सफलता नहीं मिली है। चीन जैसे दुश्मन देशों की सरपरस्ती और अमरीका की छलकपट की नीति से भारत की यह मुहिम कमजोर साबित हुई है। चीन तो वैसे भी भारत को फूटी आंख नहीं सुहाता। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद प्रधानमंत्री के सिंधू नदी जल

 समझौता को लेकर दिए बयान कि 'पानी और खून साथ−साथ नहीं बह सकते', के बाद ही चीन ने ब्रह्मपुत्र की सहायक नदियों का पानी रोक कर पाकिस्तान की हरकतों के समर्थन में अपनी बदनियति जाहिर कर दी। चीन की धूर्तता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित किए जाने से रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र में वीटो अधिकार का इस्तेमाल किया और फिर समीक्षा के नाम पर रोड़ा अटका दिया। इतना ही नहीं चीन ने उल्टे आरोप तक जड़ दिया कि इस मुद्दे पर भारत को राजनीतिक फायदा नहीं लेने दिया जाएगा।

अमरीका ने भी उरी हमले के बाद सर्जिकल स्ट्राइक के समर्थन में भारत को किसी तरह का ठोस आष्वासन नहीं दिया। अमरीका की नीति दोगली रही है। जबकि करीब पांच लाख से अधिक लोग अमरीका में पाकिस्तान को आतंकी देष घोषित करने की मांग कर चुके हैं। अमरीका और चीन का पाकिस्तान को आर्थिक और सैन्य समर्थन जारी है। इन दोनों देशों की पीठ पर सवार होकर पाकिस्तान भारत को आंखे दिखा रहा है। पाकिस्तान पहले ही सर्जिकल स्ट्राइक से इंकार कर चुका है। इसके बाद कश्मीर में लगातार आतंकियों की घुसपैठ करा कर विश्व के सामने यह दर्शाने का प्रयास कर रहा है कि कश्मीर को नापाक समर्थन जारी रहेगा। भारत के लिए पाकिस्तान से निपटना मुश्किल नहीं है। बेशक पाक आणविक ताकत से लैस क्यों न हो, असली समस्या तो उसके समर्थकों से निपटने की है, जिनके प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन से पाकिस्तान कठपुतली बना हुआ है। भारत एक साथ दो दुश्मन पड़ोसी देशों से अकेला पार नहीं पा सकता। चीन के मामले में तो वैसे भी बहुत सोच−समझ कर कूटनीति का इस्तेमाल करना पड़ता है। चीन सैंकड़ों बार सीमा का उल्लंघन कर चुका है। भारत नुकसान उठा कर भी चीन के खिलाफ आर्थिक नाकेबंदी नहीं कर सकता। ऐसी कोई भी कार्रवाई ड्रैगन को उत्तेजित कर सकती है। यही वजह है कि आतंकी मसूद और ब्रह्मपुत्र के मामले में भारत की तरफ से चीन के खिलाफ कोई तीखा बयान जारी नहीं किया गया।

केंद्र में चाहे किसी भी राजनीतिक दल की सरकार रही हो पर चीन के खिलाफ कुछ करना तो दूर प्रतिक्रिया जाहिर करने से पहले भी जुबान को लगाम लगाना मजबूरी रही है। तकरीबन यही हालात कथित मित्र राष्ट्र अमरीका के मामले में भी हैं। केंद्र सरकार पाकिस्तान को सबक सिखाने का कितना चाहे कितना ही ढि़ंढोरा पीट ले पर पाकिस्तान की तमाम आतंकी कार्रवाईयों से वाकिफ होने के बाद भी भारत अमरीका का रुख नहीं बदलवा पाया। भारत की मौजूदा विदेश नीति इस बात की ओर इंगित करती है कि भारत को हर हाल में अमरीका का समर्थन और सहयोग चाहिए। मिलता कितना है, यह बात अलग है। अमरीका की तरफ ज्यादा झुकाव का परिणाम है पारंपरिक दोस्त रूस भारत से नाराज है। रूस ने पाकिस्तान के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास करके अपनी नाराजगी जाहिर भी कर दी। रूस से रिश्ते कमजोर करने के बाद भारत की विदेश नीति पर अमरीका हावी रहा है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि करगिल युद्ध के दौरान अमरीका का महज नैतिक समर्थन पाने के लिए तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने केंद्रीय दूर−संचार मंत्री जगमोहन का रातोंरात मंत्रालय बदल दिया। जगमोहन दूर−संचार कंपनियों की आंखों में किरकिरी बन रहे थे। जगमोहन ने उन्हें रियायत देने से इंकार कर दिया था।

दरअसल चीन और अमरीका को इस बात का अंदाजा है कि भारत अपने बलबूते पाकिस्तान के खिलाफ आसानी से एकतरफा सैन्य कार्रवाई नहीं कर सकता। कश्मीर के मसले में भी दोनों का रटा−रटाया जवाब रहता है कि समस्या का समाधान बातचीत से किया जाना चाहिए। जबकि पाकिस्तान वार्ता की आड़ में बगल में छुरी लिए रहता है। आतंकियों को पनाह देने और कश्मीर में लगातार र्कारवाई के लिए भेजने के बाद यह भी स्पष्ट है कि भारत बार−बार पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कार्रवाई का दुस्साहस नहीं कर सकता। पाकिस्तान की कूटनीति रही है कि आतंकियों को कश्मीरी बता कर विश्व से सहानुभूति अर्जित की जाये। यही वजह है कि आतंक से जले होने के बावजूद अरब देश कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान को समर्थन देते रहे हैं। आर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कॉऑपरेशन के महासचिव इयादबिन अमीन मदानी ने अगस्त में पाकिस्तान के दौरे के दौरान इस नीयत का खुलासा यह कह कर कर दिया कि 'कश्मीर भारत का आंतरिक मामला नहीं है।'

राजनीतिक रूप से अस्थिर पाकिस्तान के लिए कश्मीर मुद्दा संजीवनी की तरह रहा है। वहां कोई भी सरकार रही हो, सेना के डर से और राजनीतिक फायदे के लिए कश्मीर का राग अलापना नहीं भूलती। फिर चाहे सरकार भुट्टो की रही हो या नवाज शरीफ की। सर्जिकल स्ट्राइक जैसी गुप्त सैन्य कार्रवाई से एक बार तो देश में देशभक्ति का जज्बा पैदा किया जा सकता है, पर बार−बार ऐसा करना व्यवहारिक तौर पर संभव नहीं है। भारत को पाकिस्तान से निपटना है तो सख्त सीमाबंदी और आंतरिक समस्याओं पर काबू पाकर ताकतवर बनना होगा। घरेलू मोर्चे पर विभिन्न मुद्दों से निपटे बगैर पाकिस्तान हो या चीन, किसी से भी निपटना आसान नहीं है।

- योगेन्द्र योगी

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