कांग्रेस की कमियों को छिपाने के लिए आरएसएस को अलकायदा जैसा बताना सिर्फ अनर्गल प्रलाप!

कांग्रेस के नेता मणिक्कम टैगोर आरएसएस की तुलना अलकायदा से करने लगे हैं, उससे देश में यह बहस छिड़ चुकी है कि क्या आरएसएस से अलकायदा की तुलना उचित है? जवाब होगा बिल्कुल नहीं, आरएसएस की अलकायदा से तुलना उचित नहीं है, क्योंकि दोनों संगठनों के उद्देश्य, तरीके और गतिविधियाँ मूल रूप से भिन्न हैं।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, पूर्व केंद्रीय मंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस नेतृत्व को भाजपा-आरएसएस के संगठनात्मक कौशल का आईना क्या दिखाया, कांग्रेसियों ने भाजपा-आरएसएस के खिलाफ अनर्गल प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी है। कोई गांधी वनाम गोडसे के मुद्दे को उछाल रहा है तो कोई आरएसएस की तुलना अलकायदा से कर रहा है। बता दें कि दिग्विजय सिंह ने मौजूदा पीएम नरेंद्र मोदी की एक पुरानी तस्वीर शेयर कर कहा कि भाजपा में जमीनी कार्यकर्ता भी शीर्ष पद तक पहुंच सकता है, जो कांग्रेस की गुटबाजी पर प्रहार था। इससे सोशल मीडिया पर बहस छिड़ गई और पार्टी के बाहर भाजपा ने इसे कांग्रेस के संकट का संकेत बताया।
स्पष्ट है कि अपने ही दिग्गज नेता द्वारा कांग्रेस की कमियों को दुरुस्त करने की जरूरत बताने के बाद उसे छिपाने के लिए आरएसएस को अलकायदा जैसा बताना मानसिक व सियासी दिवालिया पन तो है ही, एक अनर्गल प्रलाप भी है। खास बात यह कि नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी इसे दिग्विजय सिंह की सियासी शरारत ठहरा रहे हैं, क्योंकि कांग्रेस के कद्दावर नेता दिग्विजय सिंह ने अपने हालिया सोशल मीडिया पोस्ट्स में आरएसएस-भाजपा की संगठनात्मक ताकत की तारीफ की और कांग्रेस में विकेंद्रीकरण व सुधारों की मांग उठाई।
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लिहाजा, अब उनकी इस बेबाकी ने पार्टी के कई नेताओं को असहज कर दिया है। दरअसल, जिस तरह से सीडब्ल्यूसी की बैठक से पहले यह विवाद उठा है, उससे पार्टी के 140वें स्थापना दिवस से एक दिन पहले आयोजित हुई सीडब्ल्यूसी बैठक के दौरान दिग्विजय सिंह के बयानों का विरोध और तेज हुआ, जहां उनके बयानों को आलाकमान के खिलाफ असंतोष के रूप में देखा गया। उधर, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर ने पार्टी के स्थापना दिवस समारोह के दौरान दिग्विजय सिंह के साथ बैठक कर उन्हें और भी गैर भरोसेमंद दिखाने की एक सफल कोशिश की है।
यही वजह है कि अब कांग्रेस पार्टी में प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो चुकी हैं और पार्टी में आंतरिक खींचतान शुरू हो गई। हालांकि शशि थरूर ने भी दिग्विजय सिंह का समर्थन करके नहले पर दहला चल दिया है। उधर, कई विश्लेषकों का मानना है कि दिग्विजय सिंह ने राहुल गांधी को सीधे निशाना बनाते हुए संगठन की कमियों पर आईना दिखाया। इससे पहले कुछ नेताओं ने पार्टी सांसद व महासचिव प्रियंका गांधी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताने की चाल चली, जिसका समर्थन रॉबर्ट वाड्रा ने भी कर दिया। इससे राहुल गांधी का सशंकित होना स्वाभाविक है।
मसलन, दिग्विजय सिंह के सुझावों ने कांग्रेस में आंतरिक बहस को तेज कर दिया है, जिससे संगठनात्मक सुधारों पर दबाव बढ़ा है। इससे पार्टी दो गुटों में बंटी नजर आ रही है, लेकिन लंबे समय में यह आत्ममंथन का अवसर साबित हो सकता है। अब पार्टी में आंतरिक विभाजन इतना बढ़ चुका है कि शशि थरूर जैसे नेताओं ने दिग्विजय का समर्थन किया, जबकि पवन खेड़ा और सलमान खुर्शीद ने विरोध जताया। आलम यह रहा कि सीडब्ल्यूसी की बैठक में दिग्विजय सिंह के बयानों से हंगामा हुआ, जो केंद्रीकरण की कमियों को उजागर करता है। बावजूद इसके पार्टी नेतृत्व पर सुधारों का दबाव बढ़ा है।
अलबत्ता, इन सुझावों से हाई कमांड पर विकेंद्रीकरण और जमीनी मजबूती की मांग तेज हुई है। हालांकि कार्रवाई न लेने से कलह उभर सकती है, लेकिन अनुभवी नेताओं पर एक्शन से पार्टी की लोकतांत्रिक छवि को नुकसान पहुंचेगा। इसका संभावित परिणाम यह होगा कि कांग्रेस को संगठन मजबूत करने के लिए बड़े बदलाव करने पड़ सकते हैं, वरना चुनावी हारें जारी रहेंगी। यही वजह है कि बीजेपी इसे कांग्रेस ककि कमजोरी के रूप में प्रचारित कर रही है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह कह रहे हैं कि राहुल गांधी की हार का सिलसिला पश्चिम बंगाल व तमिलनाडु में भी जारी रहेगा।
उधर, जिस तरह से कांग्रेस के नेता मणिक्कम टैगोर आरएसएस की तुलना अलकायदा से करने लगे हैं, उससे देश में यह बहस छिड़ चुकी है कि क्या आरएसएस से अलकायदा की तुलना उचित है? जवाब होगा बिल्कुल नहीं, आरएसएस की अलकायदा से तुलना उचित नहीं है, क्योंकि दोनों संगठनों के उद्देश्य, तरीके और गतिविधियाँ मूल रूप से भिन्न हैं। जहां आरएसएस एक सांस्कृतिक-सामाजिक संगठन है जो हिंदुत्व पर आधारित है, जबकि अलकायदा एक वैश्विक इस्लामिक जिहादी आतंकी संगठन है। हालांकि, यह तुलना हाल ही में राजनीतिक बहस में सामने आई है, लेकिन तथ्यों पर आधारित नहीं।
जहां तक आरएसएस के स्वरूप की बात है तो आरएसएस की स्थापना 1925 में नागपुर में हुई, जो हिंदू एकता, चरित्र निर्माण और राष्ट्रभक्ति पर जोर देता है। यह अहिंसा और सत्य को हिंदुत्व के मूल्यों के रूप में मानता है, तथा सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देता है। संगठन ने कभी प्रत्यक्ष हिंसा या आतंकवाद को प्रोत्साहित नहीं किया। जबकि दूसरी ओर अलकायदा का स्वरूप हिंसात्मक रहा है। उसकी स्थापना 1988 में हुई, जो जिहाद के नाम पर वैश्विक इस्लामी खलीफा स्थापित करने का लक्ष्य रखता है। इसने यूएसएस कोल, अमेरिकी दूतावासों पर बम धमाके जैसे हमले किए, जिसमें हजारों निर्दोष मारे गए। इसका फोकस सशस्त्र जिहाद और पश्चिमी प्रभाव को समाप्त करना है।
यही वजह है कि कांग्रेस सांसद मणिक्कम टैगोर ने दिग्विजय सिंह के आरएसएस संगठन की प्रशंसा पर प्रतिक्रिया में यह तुलना की, जिसे भाजपा और आरएसएस ने राजनीतिक हताशा बताया। यह बयानबाजी विवादास्पद रही, लेकिन वैचारिक अंतर को नजरअंदाज करती है। इतना ही नहीं, आरएसएस और अलकायदा के उद्देश्यों में भी अंतर हैं। आरएसएस और अलकायदा के उद्देश्यों में मूलभूत अंतर यह हैं कि जहाँ आरएसएस हिंदू समाज के चरित्र निर्माण और राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति पर केंद्रित है, जबकि अलकायदा वैश्विक जिहाद के माध्यम से इस्लामी खलीफा स्थापित करने का लक्ष्य रखता है।
एक ओर आरएसएस का मुख्य लक्ष्य हिंदू धर्म, संस्कृति और समाज की रक्षा करते हुए राष्ट्र का सर्वांगीण विकास करना है। यह युवाओं के चरित्र निर्माण, सामाजिक संगठन और राष्ट्रभक्ति के माध्यम से समाज को सक्रिय बनाने पर जोर देता है। संगठन अहिंसक तरीकों से हिंदू एकता और स्वाभिमान को पुनर्स्थापित करने का प्रयास करता है। तो दूसरी ओर अलकायदा का दीर्घकालिक उद्देश्य मुस्लिम दुनिया को एकजुट कर शरिया-आधारित खलीफा राज्य स्थापित करना है। इसके तात्कालिक लक्ष्य अमेरिकी सेनाओं को अरब प्रायद्वीप से हटाना, जिहाद को बढ़ावा देना और पश्चिमी प्रभाव को समाप्त करना हैं। यह सशस्त्र जिहाद और वैश्विक इस्लामी क्रांति पर आधारित है।
यही वजह है कि कांग्रेस नेता टैगोर को अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए। वहीं कांग्रेस के एक अन्य नेता ने नाथूराम गोडसे और महात्मा गांधी के अंतर का मुद्दा उछाल दिया। वह इसलिए कि सियासी विमर्श का रुख मोड़ा जा सके। अलबत्ता उनकी कोशिश भी पुनः राजनीतिक बहस का हिस्सा बन गया है, खासकर भाजपा और आरएसएस पर निशाना साधने के लिए। हालिया घटनाओं में दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं की टिप्पणी के बाद एक कांग्रेस नेता ने 'गांधी बनाम गोडसे' की वैचारिक लड़ाई का जिक्र किया। इसका कारण यह है कि कांग्रेस अक्सर गोडसे को हत्यारा बताकर भाजपा को घेरती है, जबकि खुद के इतिहास पर सवाल उठते हैं जैसे मध्य प्रदेश में गोडसे समर्थक को शामिल करना। यूँ तो यह गांधी जयंती या अन्य मौकों पर भी कांग्रेसियों के बीच तीखी बहस का विषय बनता है। क्योंकि गोडसे ने गांधी की हत्या के पीछे विभाजन, पाकिस्तान को 55 करोड़ देने और मुस्लिम पक्षधरता का आरोप लगाया था। इसलिए कांग्रेस इसे वर्तमान राजनीति में अक्सर इस्तेमाल करती है। बार बार ऐसी ही बात छेड़कर वह सियासी रसातल की ओर मुखातिब है। काश! उसके बड़े नेता इसे समझते और अपने छुटभैये नेताओं की लगाम कसते।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक
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