उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में विकास का मुद्दा पीछे छूट रहा
इस बार के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में विचार और विकास के मुद्दे पीछे छूट रहे हैं। गठबंधन और दूसरों के विभाजन में राजनीतिक दलों द्वारा अपने लिए कोई उम्मीद तलाशी जा रही है।
सत्तापक्ष की हलचल का अन्य विपक्षी पार्टियों पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक होता है। इसके अनुरूप उन्हें अपनी चुनावी राजनीति में कतिपय बदलाव भी करने होते हैं। यहां तक गनीमत होती है लेकिन उत्तर प्रदेश में बसपा और कांग्रेस को सपा में विभाजन का लाभ मिलने वाला है। कांग्रेस चाहती है कि सपा का उससे गठबंधन हो जाये तो अस्तित्व बचाना संभव हो सकेगा। मतलब साफ है कि इस विधानसभा चुनाव में विचार और विकास के मुद्दे पीछे छूट रहे हैं। गठबंधन और दूसरों के विभाजन में उम्मीद तलाशी जा रही है।
पहले सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी की स्थिति पर विचार कीजिए। लग रहा था कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव विकास को मुख्य मुद्दा बनाक चुनाव में उतरेंगे। लेकिन पिछले कुछ समय से जो कुछ चल रहा है उसमे विकास के मुद्दे को तलाशना मुश्किल है। पारिवारिक कलह चर्चा में सबसे ऊपर आ गयी है। स्वस्थ्य प्रजातंत्र में पक्ष विपक्ष दोनों का महत्व होता है। चुनाव के समय सत्तापक्ष को अपना हिसाब पेश करना चाहिये। विपक्ष से आलोचना के अलावा यह भी अपेक्षा होती है कि वह वैकल्पिक रूपरेखा प्रस्तुत करे। लेकिन उत्तर प्रदेश में सपा−बसपा−कांग्रेस तीनों प्रजातांत्रिक तथ्यों के प्रति लापरवाह हैं। सपा में नाम, निशान नेतृत्व का लेकर घमासन है। बसपा और कांग्रेस दोनों सपा पर नजरें गड़ाए हुए हैं।
सपा की ओर से कई दावे किए गये। किसी ने नब्बे प्रतिशत लोगों के समर्थन का दावा किया। किसी को साईकिल चुनाव चिह्न पर विश्वास है लेकिन वास्तविकता है कि सभी दावेदारों में आत्म विश्वास का अभाव है। जो नब्बे प्रतिशत के समर्थन का दावा कर रहा है वह भी जानते हैं कि इससे चुनावी वैतरणी पार नहीं होगी, क्योंकि यह जन समर्थन नहीं, बल्कि पार्टी के विधायकों, कार्यकर्ताओं आदि का समर्थन है। अखिलेश की एक और कठिनाई भी है। साढ़े चार वर्षों से अधिक समय तक उन्होंने साढ़े तीन मुख्यमंत्री होने का आरोप झेला है। यह उनकी स्वतंत्र छवि के प्रतिकूल था। चुनाव से पहले उन्होंने अपनी इस छवि से मुक्त होने का प्रयास किया। उन्होंने अपने पिता व चाचा के दबाव से मुक्त होने का प्रयास किया। लेकिन एक तो इसमें बहुत देर हो चुकी थी। दूसरा यह कि इस नई पारी में भी एक चाचा की बड़ी भूमिका सार्वजनिक हो गई। विशेष सम्मेलन बुलाना चाहा। अखिलेश को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने के पीछे उन्हीं का दिमाग बताया जा रहा है।
बसपा प्रमुख मायावती भूलकर भी विकास के मुद्दों पर चर्चा नहीं करती हैं। वह जानती हैं कि ऐसा करने से उनका पांच वर्षीय शासन चर्चा में आ जायेगा। ऐसे में मायावती ने अपनी राजनीति सपा के विभाजन पर केन्द्रित कर दी है। उनका आकलन है कि मुसलमानों का समर्थन उन्हें मिल जाये तो सत्ता में पहुंचने का सपना साकार हो सकेगा। इसलिए वह मुसलमानों का समझाने में लगी हैं कि सपा को वोट न दें, इससे उनका वोट बेकार जायेगा। यह देश की सियासी विडम्बना है कि ऐसी बातें करना धर्म निरपेक्षता के दायरे में आता है। चुनाव में जाति−मजहब का सहारा न लेने सम्बंधी न्यायिक व आचार संहिता सम्बंधी निर्देश ऐसे बयानों को रोकने में सफल नहीं हो रहे हैं। इसके विपरीत कोई हिन्दू वोट की बात कर दे तो उसे सम्प्रादायिक बताने में देर नहीं लगती है। ऐसे बयानों पर जबरदस्त हंगामा हो जाता है। कई दिनों तक चर्चा व बहस चलती है। लेकिन खुलेआम महजब विशेष का वोट मांगना गलत नहीं माना जाता, जबकि ऐसे बयानों से यह दिखाया जाता है कि उस मजहब के लोग समझदार नहीं हैं। इसी तर्ज पर उन्हें समझाया जाता है। वस्तुतः यह आम लोगों के अपमान जैसा है। उसी से जुड़ी एक अन्य महत्वपूर्ण बात है कि बसपा को पिछले विधानसभा चुनाव में सफलता नहीं मिली थी लेकिन इसके लिए पार्टी ने आत्मचिंतन करना आवश्यक नहीं समझा। वरन उन्होंने ब्राह्मणों के प्रति अविश्वास व्यक्त किया। ब्राह्मणों की जगह मुसलमानों को तरजीह दी जा रही है। पहले बसपा ने नारा गढ़ा था कि ब्राह्मण शंख बजायेगा हाथी बढ़ता जायेगा और हाथी नहीं गणेश, ब्रह्मा विष्णु महेश हैं, आदि। इस बार बसपा इनकी जगह नये नारे गढ़ सकती है। वैस लोग बसपा के प्रारम्भिक नारे को भूले नहीं हैं। इस कवायद में विकास के मुद्दे तलाशना बेमानी है।
इसके अलावा मायावती के भाई आनंद कुमार पर जांच का मुद्दा भी उनके परेशानी बढ़ाएगा। केवल समय को लेकर किसी विषय की आलोचना नहीं हो सकती है। आनंद कुमार पर भ्रष्टाचार के आरोप उसी समय लगे थे जब प्रदेश में बसपा सरकार थी। भाजपा सांसद किरीट सौमया ने इस सम्बंध में व्यापक दस्तावेज भी पेश किए थे। लेकिन संप्रग सरकार ने जांच को आगे नहीं बढ़ाया, क्योंकि सरकार को बसपा का पूरा समर्थन मिल रहा था। यह सही है कि वर्तमान राज्य सरकार ने भी जल्दबाजी नहीं दिखायी। वह जानती थी कि जल्दबाजी में बदले की भावना एवं दलित को पीड़ित करने का आरोप लग जाएगा इसलिए आरोप की जांच का फैसला लिया गया। इसके अनुसार मायावती के शासन में आनंद कुमार की संपत्ति में 18 हजार प्रतिशत वृद्धि हुई। निष्पक्ष जांच व न्यायिक निर्णय के आधार पर ही किसी को दोषी कहा जा सकता है। लेकिन यह तो जानना पड़ेगा कि आनंद कुमार की प्रगति सामान्य दलित परिवार के सदस्यों की भांति नहीं थी।
दूसरी ओर, कांग्रेस की समूची चुनावी उम्मीद सपा पर ही टिकी है। पीके चुनावी प्रबधंन से राहुल गांधी की खटिया सभा का एकमात्र अंजाम दिखाई दे रहा है। कांग्रेस की चमक−गरज एकमात्र केवल बयानों व चैनलों की बहस तक सिमट गई। पार्टी अकेले चुनाव में उतरने का विश्वास खो चुकी है। वह उत्तर प्रदेश में बिहार की तर्ज पर चुनाव लड़ने का मंसूबा बना रही है। उसे लग रहा है कि सपा में विधिवत विभाजन हो जाये तो अखिलेश गुट गठबंधन कर लेगा।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने अपने जीर्णोद्धार का प्रयास नहीं किया। उसने चर्चित चुनाव प्रबंधक को अघोषित रूप से उत्तर प्रदेश की कमान सौंप दी। इससे कांग्रेस का प्रदेश संगठन हाशिए पर हो गया। पीके सर्वोच्च हो गये। पहले राहुल गांधी पर ऊर्जा लगाई गयी। उन्हें रैम्प पर चलाया गया। खटिया सभा हुई। 27 साल यूपी बेहाल अभियान चला। लेकिन पार्टी जहां थी वहीं पर स्थिर रही। टस से मस नहीं हुई। फिर पीके ने सपा नेताओं से गोपनीय मंत्रणा शुरू कर दी। यह नहीं माना जा सकता कि कोई पेशेवर प्रबधंक अपने स्तर से गठबंधन का सूत्रधार बन जायेगा। पार्टी हाईकमान ने सोचा होगा कि गठबंधन की बात बनी तो ठीक, ना बनी तो कह देंगे कि पीके अपने स्तर से यह कर रहे थे। यही हुआ जब तक सपा में दरार नहीं थी, उसने कांग्रेस को भाव नहीं दिया। सपा में दरार पड़ी, तब अखिलेश ने भी गठबंधन पर ललक दिखाई। कांग्रेस भी चिल्लाने लगी कि साम्प्रदायिक शक्तियों को रोकना है। इनसे पूछना चाहिए कि 27 साल यूपी बेहाल के समय यह ज्ञान कहां था। कांग्रेस और बसपा की उम्मीद सपा के विधिवत विभाजन पर टिकी है। मुददे नदारद हैं। बसपा विभाजन कि उम्मीद में मजहब विशेष पर डोरे डाल रही है। कांग्रेस गठबंधन करके अपना अस्तित्व बचाना चाहती है। वहीं अखिलेश यादव की चिंता यह है कि पार्टी के भीतर मिले समर्थन को जनसमर्थन में कैसे बदला जाए।
- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
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