तमिलनाडु के गैर फिल्मी मुख्यमंत्री की राह आसान नहीं
आजादी के बाद से ही तमिलनाडू का राजनीतिक इतिहास तमिल सिनेमा के समानान्तर चला है। पिछले साठ सालों का इतिहास गवाह है कि तमिलनाडू में सैल्यूलाइड की छवि से राजनीति में दाखिल होने वाले अभिनेता राजनीति की वैतरणी पार कर गए।
तमिलनाडू के राजनीतिक इतिहास में एक नया सूर्योदय हुआ है। करीब सत्तवान साल के लंबे फिल्मी आधारित राजनीतिक इतिहास के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एक ऐसा शख्स बैठा है, जिसकी कोई फिल्मी पृष्ठभूमि नहीं है। एआईएडीएमके के के. पलनीस्वामी पहले ऐसे मुख्यमंत्री बने हैं, जिन पर फिल्मों की छाप नहीं है। सही मायने में पहली बार ऐसा हुआ है जब प्रदेश की राजनीति किसी तरह काल्पनिक जादुई छवि के विपरीत लोकतंत्र की पथरीली धरा पर अपने बलबूते चलेगी। ऐसे में सुनहले पर्दे की तरह जन अपेक्षाओं पर खरा उतरने की जमीनी सच्चाई का सामना करना आसान नहीं है।
जयललिता की मृत्यु के बाद यह भी निश्चित है कि भविष्य की राजनीति में अभिनेता आसानी से अपनी सैल्यूलाइड की छवि को भुना नहीं सकेंगे। चाहे वे रजनीकांत हों या विजयकांत। मतदाता पूर्व निर्धारित छवि के सहारे नहीं बल्कि सरकार के कामकाज के आकलन पर राजनीतिक दलों का फैसला करेंगे। हालांकि सत्तारूढ़ एआईएडीएमके के दोनों गुटों (शशिकला और पन्नीरसैल्वम) ने दिवंगत जयललिता की छवि को भुनाने में कसर नहीं छोड़ी। शशिकला की तरह आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में सजा होने के बाद अब पार्टी के लिए दिवंगत जयललिता का राजनीतिक इस्तेमाल आसान नहीं है। यदि जयललिता जीवित भी होतीं तब भी जेल जाने के बाद मतदाताओं में पहले जैसी आस्था को बरकरार रखना मुश्किल भरा होता।
आजादी के बाद से ही तमिलनाडू का राजनीतिक इतिहास तमिल सिनेमा के समानान्तर चला है। पिछले साठ सालों का इतिहास गवाह है कि तमिलनाडू में सैल्यूलाइड की छवि से राजनीति में दाखिल होने वाले अभिनेता राजनीति की वैतरणी पार कर गए। जिस तरह से उत्तर भारत की राजनीति में क्षेत्रवाद, जातिवाद, नस्ल, धर्म, सम्प्रदाय राजनीति में हावी रहा, उसी तरह सिनेमा तमिल राजनीति में सिर चढ़ कर बोलता रहा। यह राजनीति का ऐसा पर्याय बना कि मतदाताओं के लिए फिल्मी छवि से बाहर निकल कर स्वस्थ लोकतांत्रिक तरीके से निर्णय लेना आसान नहीं रहा।
उत्तर भारत की राजनीतिक बुराईयां पार्टियों के अनुसार बदलती रहीं। सत्ता तक पहुचंने के लिए कोई न कोई नकारात्मक कारक राजनीति पर हावी रहा। जिस पार्टी को आगे बढ़ने के लिए जैसा अवसर हाथ लगा उसने उसे भुनाने में कसर बाकी नहीं रखी। विकास भी एक मुद्दा रहा पर अत्यंत कमजोर। उत्तर भारत में जहां मतदाता इन बुराईयों से इतर नहीं देख सके, वहीं तमिलनाडू में फिल्मी छवि से ऊपर नहीं उठ सके। उत्तर भारत के क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों ने मतदाताओं को विकास का ख्वाब जरूर दिखाया, पर हर बार तोड़ा। सभी दलों की हालत एक जैसी होने के कारण मतदाताओं के पास विकल्प भी सीमित रहे। इसके विपरीत तमिलनाडू में बेशक सिनेमा की काल्पनिक छवि ही सही, इसके सहारे सत्ता में आने वाले दलों ने विकास का रास्ता नहीं छोड़ा। यही वजह भी है कि यह राज्य देश के अग्रणी राज्यों में शुमार है।
आजादी के पहले दशक तक देश के बाकी राज्यों की तरह तमिलनाडू में भी कांग्रेस एकछत्र सत्तारूढ़ दल रहा। के. कामराज 1954 से 1962 तक लगातार तीन बार मुख्यमंत्री रहे। इसके बाद से धार्मिक सहित विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर आधारित फिल्मों ने प्रदेश के मतदाताओं के दिल−दिमाग पर असर डालना शुरू किया। कांग्रेस के विरोध में बनी डीएमके के सीएन अन्नादुरई लगातार दो बार मुख्यमंत्री बने। क्षेत्रीयता यहीं से तमिलनाडू की राजनीति का अपरिहार्य हिस्सा हो गई। फिल्मी छवि और कांग्रेस विरोध ने प्रदेश में राजनीति का रंग ही बदल दिया। इसके बाद एम करूणानिधी ने मुख्यमंत्री दौड़ की बैटन थाम ली। करूणानिधी दो बार मुख्यमंत्री रहे। करूणानिधी के कार्यकाल तक प्रदेश के लोगों में अभिनेताओं की धार्मिक−सामाजिक छवि पुख्ता होने लगी। इसके बाद एमजी रामचन्द्रन से यह सिलसिला ऐसा शुरू हुआ कि जयललिता तीस सालों तक सत्ता में बनी रहीं। इतना जरूर है कि सत्ता में चाहे डीएमके रही हो या एआईएडीएमके, सबने तमिलनाडू की कायाकल्प करने में कसर बाकी नहीं रखी।
पौराणिक इतिहास की दृष्टि से देखें तो देश में भक्ति आंदोलन का प्रादुर्भाव तमिलनाडू से ही हुआ। बाद में यह आंदोलन देशभर में फैला। आजादी के बाद धार्मिक और सामाजिक पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों ने प्रदेश के मतदाताओं को स्वतंत्र तरीके से सोचने का मौका ही नहीं दिया। इसी का फायदा जयललिता सहित दूसरे नेता उठाते रहे। प्रदेश के लोगों के जेहन में रंगीन पर्दे से उतरी छवि का असर इतना गहरा रहा कि तमिलनाडू देश में शायद ऐसा एकमात्र राज्य होगा जहां प्रशंसकों ने नेता बने फिल्मी कलाकारों के मंदिर तक बना दिए। एमजीआर के मंदिर इसका उदहारण हैं। दरअसल फिल्मों ने नेताओं की भूमिका एक आर्दश नायक−नायिका में बदल दी। इनके राजनीति में उतरने के बाद भी मतदाता उनमें वही फिल्मी अक्स खोजते रहे। यही वजह रही कि ऐसे राजनेताओं की मृत्यु लोगों को बर्दाश्त नहीं हो सकी। तमिलनाडू के जनजीवन में फिल्मी छवि का इतना गहरा असर रहा है कि अभिनेता बने नेताओं की मौत पर आम लोग आत्महत्या तक करते रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि लोकप्रिय और जनप्रिय नेता देश में दूसरे नहीं रहे। महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, वल्लभ भाई पटेल, चौधरी चरणसिंह सहित अनेकों नेताओं की मृत्यु ने भारतीय और क्षेत्रीय जनमानस को झकझौर कर रख दिया। इसके बावजूद तमिलनाडू की तरह किसी ने भी उनके जुदा होने की स्थिति में आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाया। कारण स्पष्ट है कि इन नेताओं की छवि वास्तविक थी, सैल्यूलाइड आधारित काल्पनिक नहीं। आम लोगों ने उनके उच्च आदर्श नेतृत्व की तरह उनकी मृत्यु को भी नश्वरता के सार्वभौमिक सत्य के साथ स्वीकार किया। तमिलनाडू में हुए सत्ता के नेतृत्व परिवर्तन का प्रदेश ही नहीं देश पर भी गहरा असर होगा। देश की निगाहें मुख्यमंत्री पलनीस्वामी पर लगी हुई हैं कि आसानी से मिली जयललिता की विरासत से राज्य को विकास की कितनी ऊचाईयों तक ले जा सकते हैं।
- योगेन्द्र योगी
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