RSS प्रमुख मोहन भागवत की पहल बुद्धिजीवियों को इसलिए पसंद नहीं आई
संघ प्रमुख ने भारतीय समाज में फैले जातिवाद, क्षेत्रवाद, सांप्रदायिकता, वैमनस्य जैसी समस्या का समाधान अपने तीन दिनों के कार्यक्रम में प्रस्तुत किया वह कुछ बुद्धिजीवियों के पूर्वाग्रहों के चलते नाहक की बहस में उलझ कर रह गया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा हाल ही में आयोजित भविष्य का भारत और संघ दृष्टि कार्यक्रम पर मीडिया में छिड़ी बहस की गाड़ी वही 'संघ संघ-नेति नेति' की पटरी पर दौड़ती दिखी। साम्यवादी हो या समाजवादी या परिवारवादी सभी दलों के प्रवक्ता हिटलरशाही, फासीवादी, अल्पसंख्यक और महिला विरोधी, जातिवादी, मनुवादी, भाजपा, 2019 के चुनाव आदि चरिपरिचत शब्दज्ञान का ही प्रदर्शन करते दिखे। इन कार्यक्रमों के प्रस्तोता तो बड़े मीयां तो बड़े मीयां छोटे मीयां सुभानल्लाह, की कहावत के श्रेष्ठ उदाहरण बन कर सामने आए। लगभग सभी कार्यक्रमों का निष्कर्ष एक ही था 'संघ संघ-नेति नेति'। इन चर्चाओं को देख कर गोस्वामी जी की चौपाई स्मरण हो आई कि-
मूरख हृदय न चेत, जो गुरु मिलहिं विरंचि सम।।
फूलहिं फलहिं न बेंत, जदपि सुधा बरसहिं जलधि।।
यानि कि मूर्ख की आँखे कभी नहीं खुलती चाहे स्वयं विधाता उसके गुरु बन जाएँ, जैसे बांस में कभी फल नहीं निकलते भले ही अमृत की वर्षा से उनको क्यों न सींचा जाये। वैसे संघ का विरोध कोई नया नहीं है, उस पर आरंभ से ही तरह-तरह के आरोप लगते आए हैं। इसी विरोध के चलते इस पर तीन बार प्रतिबंध लगे परंतु वह टिक नहीं पाए। कुछ लोग संघ के इस कार्यक्रम को देश में आने वाले लोकसभा चुनावों से जोड़ कर देखते हैं तो अपने सभी पूर्ववर्ती सरसंघचालकों की तरह डॉ. मोहन भागवत ने स्पष्ट किया कि संघ का उद्देश्य राजनीतिक नहीं है और उसके अनुषंगिक संगठन उतने ही स्वतंत्र हैं जितना कि कोई अन्य संगठन।
संघ को अक्सर अल्पसंख्यक विरोधी संगठन के रूप में प्रचारित किया जाता है परंतु डॉ. भागवत ने स्पष्ट कहा कि भारत में मुसलमानों के बिना हिंदुत्व अपूर्ण है। संघ प्रमुख ने अपने संबोधन में हिंदू और हिंदुत्व की व्यापकता को विस्तार से विश्लेषित किया। हिंदू शब्द भारतीय भू-भाग में जन्मे लोगों के लिए नौवीं शताब्दी में प्रचलन में आया और वह बोलचाल की भाषा में काफी बाद में शामिल हुआ। हिंदुत्व हर पूजा पद्धति को स्वीकार करता है। उसकी संकल्पना में विशिष्ट पूजा पद्धति, संप्रदाय, भाषा या प्रांत नहीं है। उन्होंने कहा कि हिन्दुत्व, हिन्दूनेस, हिन्दुईज्म ये गलत शब्द हैं क्योंकि 'ईजम' याने 'वाद' एक बंद चीज मानी जाती है। ये कोई ईजम नहीं है, यह एक प्रक्रिया है जो चलती रहती है। गांधी जी ने कहा कि सत्य की अनवरत खोज का नाम हिन्दुत्व है। सतत् चलने वाली प्रक्रिया है। अन्य मत पंथों के साथ तालमेल कर सकने वाली एकमात्र विचारधारा, ये भारत की विचारधारा है, हिन्दुत्व की विचारधारा। क्योंकि तालमेल का आधार मूल एकत्व, प्रकार विविध है और विविध होना आवश्यम्भावी है क्योंकि प्रकृति विविधता को लेकर चलती है, विविधता ये भेद नहीं है, विविधता ये साज-सज्जा है, प्रकृति का शृंगार है, ऐसा संदेश देने वाला और संदेश यानी थ्योराइजेशन के आधार पर नहीं अनुभूति के आधार पर देने वाला एकमात्र देश हमारा देश है। और इसलिए हिन्दुत्व ही है जो सबके तालमेल का आधार बन सकता है। उनके अनुसार, भिन्न समय और परिस्थितियों में जो कुछ कहा गया वह शाश्वत नहीं हो सकता और इसीलिए 'बंच आफ थोट्स' के लेखक दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर के विचारों का जो नया संकलन जारी हुआ है उसमें तात्कालिक संदर्भ में कही गई उनकी कुछ बातें हटा दी गई हैं। आखिर इससे अधिक लचीलापन व साफगोई और क्या हो सकती है?
संघ प्रमुख ने यह धारणा तो खारिज की ही कि भारतीय संविधान के प्रति उसकी अनास्था रही है, बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि स्वतंत्र भारत के सारे प्रतीकों में उसकी आस्था है, चाहे वह राष्ट्रगान हो या राष्ट्रीय ध्वज। यह विचित्र है कि आज जब संघ का विरोध करने वाले दलों को इसकी सराहना करनी चाहिए कि संघ ने प्रबुद्ध वर्ग से सीधे संवाद के जरिये अपने संबंध में व्याप्त भ्रांतियों को दूर करने के लिए एक ठोस पहल की तब वे उससे दूरी बढ़ाने में अपनी भलाई समझ रहे हैं। संघ इससे पूर्व भी अपने वैचारिक विरोधियों को अपने कार्यक्रमों में आमंत्रित करता रहा है। अभी हाल ही में नागपुर में आयोजित संघ शिक्षा वर्ग के समापन समारोह में देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. प्रणब मुखर्जी को संघ ने न केवल आमंत्रित किया बल्कि उन्हें अपने विचार रखने का अवसर भी दिया। लेकिन हमारे स्वयंभू उदारवादियों ने उस समय इस बात के लिए अपनी एडी-चोटी का जोर लगा दिया कि किस प्रकार प्रबण दा को नागपुर कार्यक्रम में जाने से रोका जाए। दिल्ली में हुए हाल ही के कार्यक्रम में भी संघ ने अपने वैचारिक विरोधियों के साथ-साथ उन नागरिकों को आमंत्रित किया था जो संघ के बारे या तो जानना चाहते हैं या फिर किसी तरह के पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में विरोधी मत को किस तरह सम्मान दिया जाना चाहिए यह संघ से सीखने की बजाय हमारे देश के सामंतवादी, परिवारवादी दल संघ की निंदा करते हैं तो वह अपने आप में भोथरी हो जाती है।
और उनकी सारी स्थितियों का, समस्याओं का विचार करना चाहिए। ये सब अपने हैं। भारत में कोई पराया नहीं, परायापन हमने निर्माण किया है। हमारी परंपरा ने नहीं, वो तो एकता ही सिखाती है। देश में फैले जातिवाद पर संघचालक ने स्पष्ट किया कि जाति व्यवस्था कहते हैं, उसमें गलती होती है। आज व्यवस्था कहां है वो अव्यवस्था है। कभी ये जाति व्यवस्था रही होगी, वो उपयुक्त रही होगी, नहीं रही होगी। आज उसका विचार करने का कोई कारण नहीं है वो जाने वाली है। जाने के लिए प्रयास करेंगे तो पक्की होगी। उसको भगाने के लिए प्रयास करने के बजाय जो आना चाहिए उसके लिए हम प्रयास करें तो ज्यादा अच्छा होगा। अंधेरे को लाठी मार-मार कर भगाएंगे अंधेरा नहीं जाएगा। एक दीपक जलाओ वो भाग जाएगा। एक बड़ी लाईन खींचो तो सारे भेद विलुप्त हो जाएंगे। दुर्भाग्य की बात है कि संघ प्रमुख ने भारतीय समाज में फैले जातिवाद, क्षेत्रवाद, सांप्रदायिकता, वैमनस्य जैसी समस्या का समाधान अपने तीन दिनों के कार्यक्रम में प्रस्तुत किया वह कुछ बुद्धिजीवियों के पूर्वाग्रहों के चलते नाहक की बहस में उलझ कर रह गया। हमारे बुद्धिजीवियों को संघ के प्रति गढ़ी गई अपनी कसौटी पर एक बार पुन: विचार करना होगा। किसी संगठन या व्यक्ति का विरोध करना सभी का लोकतांत्रिक अधिकार है परंतु 'संघ संघ-नेति नेति' की नीति को भी तो सही नहीं ठहराया जा सकता।
-राकेश सैन
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