हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता की भी प्रतीक है हिंदी

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ललित गर्ग । Sep 13 2022 1:50PM

राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने कहा था- जो भरा नहीं है भावों से, जिसमें बहती रसधार नहीं! वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं!! हिन्दी भाषा का मामला भावुकता का नहीं, ठोस यथार्थ का है, राष्ट्रीयता का है।

राष्ट्र आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, इस महोत्सव को मनाते हुए हमें राष्ट्रीय प्रतीकों एवं प्रसंगों को मजबूती देने की जरूरत है। जिनमें राष्ट्रभाषा, राष्ट्रगीत, राष्ट्रध्वज आदि स्वामिमान के प्रतीकों को प्रतिष्ठा दिये जाने की अपेक्षा है। राष्ट्रीय अस्मिता एवं अस्तित्व की प्रतीक एवं सांस्कृतिक-राष्ट्रीय स्वाभिमान को एकसूत्रता में पिराने वाली हिन्दी की उपेक्षा पर विचार करने की जरूरत है। क्योंकि हिन्दी न सिर्फ स्वावलम्बन एवं स्वाभिमान का मस्तक है बल्कि यह आत्मनिर्भरता का सशक्त आधार भी है। हिन्दी दिवस मनाते हुए हमें हिन्दी की ताकत को समझना होगा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सशक्त भारत-आत्मनिर्भर भारत के आह्वान में हिन्दी की प्रासंगिकता एवं महती भूमिका के सच को स्वीकारना होगा। हिन्दी का देश की एकता और अखंडता को बनाये रखने एवं आजादी दिलाने में बड़ा योगदान रहा है, क्यों आजाद भारत में उस हिन्दी पर राजनीति करते हुए उसे उपेक्षित किया जा रहा है, इस प्रश्न पर गंभीर मंथन की अपेक्षा है। एक प्रश्न और सामने है कि जब हिन्दी की विश्व में प्रतिष्ठा हो रही है, तो भारत में उपेक्षा क्यों है? 

हाल ही में एथनोलॉग द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार हिंदी विश्व में तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा बन गयी है। वर्तमान में 637 मिलियन लोग हिंदी भाषा का उपयोग करते हैं। दुनिया के करीब 200 विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। हिंदी भारत की राजभाषा है। सांस्कृतिक और पारंपरिक महत्व को समेट हिंदी अब विश्व में लगातार अपना फैलाव कर रही है, हिन्दी राष्ट्रीयता की प्रतीक भाषा है, उसको राजभाषा बनाने एवं राष्ट्रीयता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठापित करने के नाम पर भारत में उदासीनता एवं उपेक्षा की स्थितियां परेशान करने वाली है, विडम्बनापूर्ण है। विश्वस्तर पर प्रतिष्ठा पा रही हिंदी को देश में दबाने की नहीं, ऊपर उठाने की आवश्यकता है। हमने जिस त्वरता से हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में पहल की, उसी त्वरा से राजनैतिक कारणों से हिन्दी की उपेक्षा भी है, यही कारण है कि आज भी देश में हिन्दी भाषा को वह स्थान प्राप्त नहीं है, जो होना चाहिए। देश-विदेश में इसे जानने-समझने वालों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। इंटरनेट के इस युग ने हिंदी को वैश्विक धाक जमाने में नया आसमान मुहैया कराया है। दुनियाभर में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में पहला स्थान अंग्रेजी का है और पूरी दुनिया में 113.2 करोड़ लोग इस भाषा का इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा दूसरे स्थान पर चीन में बोली जाने वाली मंदारिन भाषा है जिसे 111.7 करोड़ लोग बोलते हैं। तीसरे स्थान पर हिन्दी है। चौथे नंबर पर 53.4 करोड़ लोगों के साथ स्पेनिस और पांचवें नंबर पर 28 करोड़ लोगों के साथ फ्रेंच भाषा है।

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दुनिया में हिन्दी की बढ़ती लोकप्रियता एवं विश्व की बहुसंख्य आबादी द्वारा इसे अपनाये जाने की स्थितियां हर भारतीय के लिये गर्व की बात है। देश की आजादी के पश्चात 14 सितंबर, 1949 को भारतीय संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी को अंग्रेजी के साथ राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार किया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने 1953 से सम्पूर्ण भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की। राष्ट्र भाषा हिन्दी सम्पूर्ण देश में सांस्कृतिक और भावात्मक एकता स्थापित करने का प्रमुख साधन है। भारत का परिपक्व लोकतंत्र, प्राचीन सभ्यता, समृद्ध संस्कृति तथा अनूठा संविधान विश्व भर में एक उच्च स्थान रखता है, उसी तरह भारत की गरिमा एवं गौरव की प्रतीक राष्ट्र भाषा हिन्दी को हर कीमत पर विकसित करना हमारी प्राथमिकता होनी ही चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शासन में हिन्दी को राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा के रूप में स्कूलों, कॉलेजों, अदालतों, सरकारी कार्यालयों और सचिवालयों में कामकाज एवं लोकव्यवहार की भाषा के रूप में प्रतिष्ठा मिलना चाहिए, इस दिशा में वर्तमान सरकार के प्रयास उल्लेखनीय एवं सराहनीय है, लेकिन उनमें तीव्र गति दिये जाने की अपेक्षा है। क्योंकि इस दृष्टि से महात्मा गांधी की अन्तर्वेदना को समझना होगा, जिसमें उन्होंने कहा था कि भाषा संबंधी आवश्यक परिवर्तन अर्थात हिन्दी को लागू करने में एक दिन का विलम्ब भी सांस्कृतिक हानि है। मेरा तर्क है कि जिस प्रकार हमने अंग्रेज लुटेरों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक समाप्त कर दिया, उसी प्रकार सांस्कृतिक लुटेरे रूपी अंग्रेजी को भी तत्काल निर्वासित करें।’ आजाद भारत के पचहतर वर्षों में भी हमने हिन्दी को उसका गरिमापूर्ण स्थान न दिला सके, यह विडम्बनापूर्ण एवं हमारी राष्ट्रीयता पर एक गंभीर प्रश्नचिन्ह है। 

राष्ट्र के लिये जब तक हिन्दी की उपेक्षा जैसे निजी-स्वार्थ को विसर्जित करने की भावना पुष्ट नहीं होगी, तब तक राष्ट्रीय एकता, सांस्कृतिक उन्नयन एवं सशक्त भारत का नारा सार्थक नहीं होगा। हिन्दी को सम्मान एवं सुदृढ़ता दिलाने के लिये केन्द्र सरकार के साथ-साथ प्रांतों की सरकारों को संकल्पित होना ही होगा। नरेन्द्र मोदी ने विदेशों में हिन्दी की प्रतिष्ठा के अनेक प्रयास किये हैं, ऐसे ही प्रयासों का परिणाम है हिन्दी का दुनिया में सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषाओं में तीसरे स्थान पर आना। लेकिन उनके शासन में विदेशों में ही नहीं देश में भी हिन्दी की स्थिति सुदृढ़ बननी चाहिए। यदि उनके शासन में हिन्दी को राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित नहीं किया जा सका तो भविष्य में इसकी उपेक्षा के बादल घनघोर ही होंगे, यह एक दिवास्वप्न बनकर रह जायेगा। हिन्दी के प्रति संकीर्णता न राष्ट्रीय एकता के हित में है और न ही प्रान्तों के हित में। प्रान्तीय भाषा के प्रेम को इतना उभार देना, जिससे राष्ट्रीय भाषा के साथ टकराहट पैदा हो जाये, यह देश के लिये उचित कैसे हो सकता है? राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने कहा था- जो भरा नहीं है भावों से, जिसमें बहती रसधार नहीं! वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं!! हिन्दी भाषा का मामला भावुकता का नहीं, ठोस यथार्थ का है, राष्ट्रीयता का है। 

हिन्दी विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राजभाषा भी है, यह हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता की भी प्रतीक है, यह हमारी राष्ट्रीयता एवं संस्कृति की भी प्रतीक है। महात्मा गांधी ने सही कहा था कि राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है। यह कैसी विडम्बना है कि जिस भाषा को कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे भारत में समझा जाता हो, उसकी घोर उपेक्षा हो रही है, इन त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति को नरेन्द्र मोदी सरकार आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए कुछ ठोस संकल्पों एवं अनूठे प्रयोगों से दूर करने के लिये प्रतिबद्ध हो, हिन्दी को मूल्यवान अधिमान दिया जाये। ऐसा होना हमारी सांस्कृतिक परतंत्रता से मुक्ति का एक नया इतिहास होगा।

- ललित गर्ग

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