ऐ मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी... कारगिल के शहीदों की जरा याद करों कुर्बानी

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रेनू तिवारी । Jul 26 2019 11:04AM

भारत की धरती से दुश्मनों का कब्जा हटाने के लिए करगिल में जंग लड़ी गई जिसे कारगिल युद्ध कहा जाता है। कारगिल युद्ध को ऑपरेशन विजय के नाम से भी जाना जाता है।

1999 में जम्मू-कश्मीर के कारगिल की सफेद बर्फ वीर सपूतों के लहू से लाल हो गई थी। हिंदुस्तानी फौजियों ने अपने रक्त से कारगिल का इतिहास लिख दिया था। 1999 में नापाक इरादे से दुश्मनों ने भारत की धरती पर कब्जा कर लिया। भारत की धरती से दुश्मनों का कब्जा हटाने के लिए करगिल में जंग लड़ी गई जिसे कारगिल युद्ध कहा जाता है। कारगिल युद्ध को ऑपरेशन विजय के नाम से भी जाना जाता है। भारत और पाकिस्तान के बीच मई और जुलाई 1999 के बीच कश्मीर के कारगिल जिले में हुए सशस्त्र संघर्ष का नाम है?

पाकिस्तान की सेना और कश्मीरी आतंकवादियों ने भारत और पाकिस्तान के बीच की नियंत्रण रेखा पार करके भारत की ज़मीन पर कब्ज़ा करने की कोशिश की। पाकिस्तान ने दावा किया कि लड़ने वाले सभी आतंकवादी हैं, लेकिन युद्ध में बरामद हुए दस्तावेज़ों और पाकिस्तानी नेताओं के बयानों से साबित हुआ कि पाकिस्तान की सेना प्रत्यक्ष रूप में इस युद्ध में शामिल थी। कारगिल युद्ध में भारत के लगभग 527 से अधिक वीर योद्धा शहीद व 1300 से ज्यादा घायल हो गए थे। इन शहीदों में से अधिकतर वीरों नें अभी अपनी जिंदगी के 30 वसंत भी नहीं देखे थे। कारगिल की जमीन पर कुछ जांबाज वीर थे जिन्होंने जंग के दौरान कुछे ऐसा किया जिससे कारगिल के युद्ध में भारत को जीत मिली। इन वीरों को सैन्य सम्मान भी दिया गया। आइये जानते हैं उन वीरों की कहानी-

कैप्टन अनुज नैय्यर 

कैप्टन अनुज नैय्यर जाट रेजिमेंट की 17वीं बटालियन के एक भारतीय सेना अधिकारी थे, जिन्हें 1999 में कारगिल युद्ध में ऑपरेशन के दौरान युद्ध में अनुकरणीय वीरता के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र (भारत का दूसरा सर्वोच्च वीरता पुरस्कार) दिया गया था। कारगिल युद्ध में शहीद वीर सपूतों के अदम्य साहस को याद करके आज भी सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। देश के वीर सपूतों में कैप्टन अनुज नैय्यर का नाम भी शामिल हैं। कैप्टन अनुज नैय्यर की बहादुरी ने दुश्मन के दांत खट्टे कर दिये थे। कैप्टन अनुज नैय्यर के लिए हमेश पहले देश रहा उसके बाद कुछ और... आइये जानते हैं कारगिल युद्ध में शहीद कैप्टन अनुज नैय्यर की कहानी..

अनुज नैय्यर एक मेधावी छात्र थे। वह चाहते तो आसानी से टीचर, डॉक्टर या इंजीनियर बन सकते थे लेकिन अनुज ने देश की सेवा चुनी और आर्मी ज्वाइन की। 24 साल के अनुज नैय्यर की निजी जिंदगी किसी फिल्मी स्टोरी से कम नहीं थी। अनुज अपनी बचपन की दोस्त से बेहद प्यार करते थे और उनसे सगाई के लिए घर आने वाले थे, तभी भारत और पकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ गया और अनुज को जंग पर भेज दिया गया। टाइगर हिल के पश्चिम में पॉइंट 4875 को खाली कराने की जिम्मेदारी कैप्टन नय्यर को दी गई। टाइगर हिल को पूरी तरह से पाकिस्तानी घुसपैठियों ने घेर रखा था। 

पॉइंट 4875 हजारों फीट की ऊंचाई पर था। ऊपर से गिरा एक पत्थर भी अनुज की टीम के लिए जानलेवा था। पॉइंट 4875 को जीतना बेहद जरूरी था, हर एक कदम से जंग का रूख बदल सकता था। इसलिए अनुज को बल के साथ-साथ दिमाग भी चलाना था। कदम-कदम पर जान का खतरा लिए कैप्टन अपने साथियों के साथ आगे बढ़े। कैप्टन की योजना थी कि किसी भी तरह से पॉइंट 4875 को खाली करवाना है जिसके लिए वह साथियों के साथ दबे परों से आगे बढ़े.. दुश्मन को आहट हो गई किसी के आने की और उन्होंने अनुज की टीम पर हमला करना शुरू कर दिया। कैप्टन ने साथियों के साथ मिलकर पाकिस्तान के घुसपैठियों का जवाब दिया और अकेले ही पाकिस्तान के नौ घुसपैठियों को मार गिराया था। अनुज और उनके साथियों ने पाकिस्तानी घुसपैठियों को पीछे खदेड़ दिया। घायल कैप्टन अनुज नैय्यर ने मशीनगन बंकर को तबाह कर दिया था लेकिन विजय का तिरंगा फहराने के लिए वह आगे बढ़े तभी दुश्मनों ने ग्रेनेड से हमला कर दिया, अनुज नैय्यर बुरी तरह घायल हो गये। साथियों ने उन्हें आगे जाने से रोका लेकिन घुसपैठियों को खदेड़ने के लिए आगे बढ़े तभी एक और विस्फोट हुआ और अनुज सहित उनकी पूरी टीम शहीद हो गई। पाकिस्तानी घुसपैठियों ने वापस आकर पॉइंट 4875 पर कब्जा करना चाहा लेकिन पीछे से दूसरी टीम के साथ कैप्टन बत्रा पहुंच चुके थे. उन्होंने उनका काम तमाम कर दिया और टाइगर हिल को जीतने के लिए आगे बढ़ चले। 

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कैप्टन विक्रम बत्रा 

कैप्टन विक्रम बत्रा भारतीय सेना के एक अधिकारी थे, जिन्हें भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर में 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान वीरता के लिए भारत का सर्वोच्च और सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। कैप्टन विक्रम बत्रा कारिगल के हीरो माने जाते हैं। जब सरहद पर भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ा उस वक्त कैप्टन विक्रम बत्रा अपने घर हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में छुट्टियों पर थे। एक कैफे में अपने परिवार के साथ थोड़ा वक्त गुजार रहे थे। इसी दौरान परिवार के साथ घर आने की बातचीत पर कैप्टन विक्रम बत्रा ने कहा था कि ‘या तो मैं लहराते तिरंगे के पीछे आऊंगा, या तिरंगे में लिपटा हुआ आऊंगा। पर मैं आऊंगा जरूर।’ कुछ ही क्षणों बाद सरहद से बुलावा आ गया कि पाकिस्तान से युद्ध छिड़ गया है। इस बात को याद करके आज भी परिवार की आखें नम हो जाती हैं। ये बात विक्रम का मां ने खास बातचीत में कही थी। आप सोच सकते हैं कि विक्रम बत्रा की जुबान में जब इतना जज्बा था तो बाजुएं कितनी फौलादी होगी। कैप्टन विक्रम बत्रा की बाहदुरी के कारनामे केवल भारत में ही नहीं मशहूर हैं बल्कि पाकिस्तान में भी इस फौलादी के किस्से मशहूर थे इसलिए पाकिस्तानी आर्मी उन्हें 'शेरशाह' कहा करती थी।

हिमाचल प्रदेश के पालमपुर जिले के घुग्‍गर में 9 सितंबर 1974 को कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म हुआ था। उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपनी माँ से प्राप्त की, जो स्वयं एक शिक्षक थीं। 1996 में विक्रम ने इंडियन मिलिटरी अकादमी में दाखिला लिया। 6 दिसंबर 1997 को कैप्टन बत्रा जम्मू और कश्मीर राइफल्स की 13वीं बटालियन में बतौर लेफ्टिनेंट शामिल हुए। दो साल बाद ही उन्हें प्रमोट कर कैप्टन रैंक दी गई।

कैप्टन विक्रम बत्रा ने कारगिल युद्ध में पांच सबसे इंपॉर्टेंट पॉइंट जीतने में अहम रोल निभाया था। कहते हैं कि ऊपर से नीचे गोलियां चलाना आसान होता है। पाकिस्तानी घुसपैठिये टाइगर हिल पर कब्जा करके बैठे थे और नीचे भारतीय सेना पर लगातार फायरिंग कर रहे थे ऐसे में योजना बनाई गई टाइगर हिल पर चढ़ने की। पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेड़ने के लिए पांच इंपॉर्टेंट पॉइंट को जीतना बेहत जरूरी था। कैप्टन विक्रम बत्रा ने हर पॉइंट जीतने में मदद दी। सबसे पहले तो अपने साथियों के साथ विक्रम बत्रा ने घुसपैठियों से प्वांइट 5140 छीन लिया था। उनके बाद वह पॉइंट 4875 से पाकिस्तानी घुसपैठियों को पीछे हटाने चल दिए। इस पॉइंट की चढ़ाई बहुत कठिन थी। यह पॉइंट 17 हजार फीट की ऊंचाई पर था और 80 डिग्री की चढ़ाई पर पड़ता था। कारगिल युद्ध में कैप्टन विक्रम बत्रा अपने एक साथी को बचाते-बचाते शहीद हो गये। कहते हैं कि दुश्मनों की गोलीबारी के दौरान उन्होंने अपने साथी से अंतिम शब्दों में यह कहा था कि 'तुम हट जाओ। तुम्हारे बीवी-बच्चे हैं।’ 

कारगिल युद्ध में उनके जिंदा बचे एक साथी नवीन ने बताया था कि अचानक एक बम उनके पास अकर गिरा और एक पल में फट गया जिस विस्फोट में मैं बुरी तरह घायल हो गया था। लेकिन अचानक कैप्टन विक्रम बत्रा ने आकर मुझे वहां से तुरंत हटा दिया। जिससे मेरी जान बच गई। लेकिन जैसी ही कैप्टन दूसरे साथी को बचाने के लिए आगे बढ़े, लगातार बमबारी में जिसमें दूसरे ऑफिसर को बचाते हुए उनकी जान चली गई।

कारगिल युद्ध में कैप्टन विक्रम बत्रा से जुड़े एक वाकये को उनके साथी ने शेयर करते हुए कहा कि जब भी बत्रा गोलियों से दुश्मनों को भून देते थे तो वह कहते 'ये दिल मांगे मोर'। साथी ने आगे बताया कि पाकिस्तानी आर्मी लगातार गोलियां और बम बरसा रही थी ऐसे में उन्होंने भारतीय सेना को चिढ़ाते हुए कहा कि ‘हमें माधुरी दीक्षित दे दो। हम नरमदिल हो जाएंगे।'  इसके जवाब में AK-47 लेकर कैप्टन विक्रम बत्रा ने मुस्कुराते हुए कई पाकिस्तानी सेनिकों पर ताबड़तोड़ फायरिंग की और कहा कि ‘लो माधुरी दीक्षित के प्यार के साथ’ उनकी गोलियों से कई पाकिस्तानी सैनिक ढेर हो गये। कैप्टन विक्रम बत्रा भारत के वीर थे। उनकी बहादुरी और योजना ने कारगिल युद्ध को जीतने में अहम योगदान दिया था। कैप्टन विक्रम बत्रा को लेकर उस समय के इंडियन आर्मी चीफ ने खुद कहा था कि अगर वो जिंदा वापस आता, तो इंडियन आर्मी का हेड बन गया होता।

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ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव 

ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव को कारगिल युद्ध के दौरान दिखाए गये अदम्य साहस के लिए उच्चतम भारतीय सैन्य सम्मान परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया। ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव कारगिल युद्ध के दौरान जूनियर कमीशनन्ड ऑफिसर (JCO) थे। वर्तमान में वह सूबेदार मेजर हैं। ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव को 19 साल की उम्र में परमवीर चक्र प्राप्त हुआ। योगेन्द्र सिंह यादव सबसे कम उम्र के सैनिक हैं जिन्हें यह सम्मान प्राप्त हुआ। योगेंद्र सिंह यादव का जन्म 10 मई 1980 को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के सिकंद्राबाद के औरंगाबाद अहीर गाँव में हुआ था। उनके पिता करण सिंह यादव ने 1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्धों में भाग लेते हुए कुमाऊं रेजीमेंट में सेवा की थी। यादव 16 की आयु में भारतीय सेना में शामिल हुए। 

ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव को कारगिल युद्ध के दौरान टाइगर हिल के बेहद अहम तीन दुश्मन बंकरों पर कब्ज़ा करने का दायित्व सौंपा गया था। जिसका दायित्व योगेन्द्र सिंह यादव ने आगे बढ़कर खुद लिया था। योगेन्द्र सिंह यादव बंकरों को नष्ट करने के लिए अपनी टीम बनाकर आगे बढ़े। टाइगर हिल पर जाने के लिए ऊंची चढ़ाई करनी थी जिसके लिए योगेन्द्र सिंह यादव ने योजना बना कर चढ़ाई शुरू की। घातक कमाण्डो पलटन के सदस्य ग्रेनेडियर यादव अपनी टीम के साथ बंकर के पास पहुंचने वाले थे तभी पाकिस्तानी घुसपैठियों ने मशीनगन से ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी, इस गोलीबारी में यादव की टीम के अधिकतर जवान शहीद हो गये और कुछ बेहद गंभीर रूप से घायल हो गये। ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव को भी मशीनगन से हुई फायरिंग में तीन गोलियां लगी थीं लेकिन योगेन्द्र सिंह यादव के हौसले बुंलद थे वह अपना दायित्व पूरा करने के लिए बंकर को तबाह करने के लिए आगे बढ़े। दुश्मनों की गोलियों का स्वागत करते हुए वो आगे बढ़ते रहे और बंकर पर छलांग लगा दी, बंकर में मशीनगन को चलाने वालों के यादव ने अकेले ही मौत के घाट उतार दिया। यादव के साथ आये और साथी जब तबाह हुए बंकर के पास पहुंचे तो सेना की टुकड़ी ने देखा कि ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव  का एक हाथ टूट चुका था उनके शरीर में 15 गोलियां लगी हुई थीं। लेकिन इस सलामी सेना के जवान ने हाथ टूटने के बाद और 15 गोलियां खाने के बाद भी हार नहीं मानी और अंतिम बंकर को नष्ट करने के लिए साथियों के साथ आगे बढ़े और अंतिम बंकर पर धावा बोल दिया। इस के साथ ही उन्होंने सभी बंकरों को नष्ट करके विजय प्राप्त हुई। 

आपको बता दें कि ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव वो जांबाज वीर थे 15 कारगिल की जंग से 15 गोलियां लगने के बाद वापस लौटे थे। सबको लगा था कि वह शहीद हो गये। जान की बाजी लगा कर देश की सेवा करने के कारण भारत सरकार द्वारा मरणोपरांत परमवीर चक्र का सम्मान दिया गया था किन्तु बाद में उन्हें बचा लिया गया।

लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे

25 जून 1975 में उत्तर प्रदेश के सीतापुर में जन्मे लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे भारतीय सेना के अधिकारी थे जिन्हें सन 1999 के कारगिल युद्ध में असाधारण वीरता के लिए मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता पदक परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। कारगिल युद्ध के दौरान भारतीय सेना के वीर सपूतों ने अदम्य साहस दिखाते हुए दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिये। इन्हीं वीरों में से एक थे लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे जिसकी बहादुरी से दुश्मन धराशायी हो गये थे। भारतीय थल सेना अध्यक्ष (भूतपूर्व) जनरल वीपी मलिक ने अपनी पुस्तक 'कारगिल: एक अभूतपूर्व विजय' में लिखा है कि कारगिल युद्ध के दौरान लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे और उनकी टीम 1/11 गोरखा राइफल्स को खालूबार क्षेत्र से पाकिस्तानी घुसपैठियों को पीछे खदेड़कर कर उनके ठिकानों को नष्ट करने की जिम्मेदारी दी गई थी।

खालूबार क्षेत्र में पाकिस्तानी सेना ने पूरी तरह से कब्जा करके चार बंकर बना रखे थे। ये बंकर ऊंची चोटी पर बने थे। दुश्मन ऊपर से लगातार फायरिंग कर रहे थे ऐेसे में लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे की टीम 1/11 गोरखा राइफल्स को होशियारी के साथ अपनी जान बचाते हुए चढ़ाई करके दुश्मनों को खत्म करना था। दिन में दुश्मनों की आंखों के सामने ये चढ़ाई करना मुश्किल था इसलिए लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे ने रात के समय नेस्तनाबूद करने की योजना बनाई।

रात में चढ़ाई की योजना की जानकारी पाकिस्तानी सेना को लग गई थी इस लिए जब मनोज की टीम चढ़ाई कर रही थी तभी पाकिस्तानी सेना ने गोलियां बरसाना शुरू कर दिया। ऐसे में लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे ने अपनी सूझबूझ से टीम को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया और योजना में बदलाव करके टीम को दो भागों में बांटा। पहली टीम को दाहिनी ओर से चढ़ाई करने को कहा और दूसरी टीम का खुद नेतृत्व किया और बाईं ओर से चढ़ाई शुरू कर दी। अपनी योजना के अनुसार टीमें पाकिस्तानी बंकरों के पास पहुंच गई और लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे ने बंकर के पास आने पर पाकिस्तानी सैनिकों पर गोलियां बरसाईं और पहला बंकर तबाह कर दिया तभी पाकिस्तानी सेना चौकन्नी हो गई और गोलियों के साथ बमबारी शुरू कर दी। लेफ्टिनेंट की टीम आगे बढ़ी और दूसरे बंकर को भी तबाह कर दिया अब बस दो बंरप ही बचे थे। तीसरे बंकर को नष्ट करने के लिए मनोज की टीम आगे बढ़ी तभी दुश्मन की एक गोली उन्हें लग गई। दो बंकर अभी बाकि थे और मनोज के पैर और कंधे पूरी तरह जख्मी हो गये थे। लेकिन फौलादी वीर ने हार नहीं मानी और तीसरे बंकर की तरफ बढ़े और वहां तैनात दुश्मन सेनिक को मौत के घाट उतार कर तीसरे बंकर को नष्ट कर दिया। इस समय मनोज पूरी तरह से घायल हो चुके थे लेकिन फिर भी वह आगे बढ़ते रहे मनोज चौथे बंकर की तरफ बढ़े और जैसे ही चौथे बंकर को तबाह करने के लिए गोला फेंका तभी पाकिस्तानी मशीन गन का गोला उनके सिर के पास आकर गिरा और इस धमाके में मनोज शहीद हो गये लेकिन चौथा बंकर भी तबाह हो गया। मनोज ने अपनी टीम के साथ मिलकर खालूबार क्षेत्र के सारे बंकरों को तबाह किया और खुद हमेशा के लिए अमर हो गये।

कैप्टन नेइकझुको केंगुरुसी

कैप्टन नेइकझुको केंगुरुसी (Captain Neikezhakuo Kenguruse) भारतीय राजपुताना राइफल्स के सेना अधिकारी थे। जिन्हें 1999 में मरणोपरांत कारगिल युद्ध में ऑपरेशन विजय के दौरान युद्ध में अनुकरणीय वीरता के लिए भारत के दूसरे सर्वोच्च वीरता पुरस्कार महा वीर चक्र से सम्मानित किया गया था। 

केंगुरस का जन्म भारत के नागालैंड के कोहिमा जिले के नेरहेमा गाँव में हुआ था। उनके पिता नीसीली केंगुरुसी थे। उनके दो भाई थे जिनका नाम नग्से केंगुरुसी और एटॉली केंगुरस था। केंगुरूस ने अपनी स्कूली शिक्षा जलूकी के सेंट जेवियर स्कूल से की और कोहिमा साइंस कॉलेज से स्नातक किया। वह 1994 से 1997 तक कोहिमा के गवर्नमेंट हाई स्कूल में शिक्षक के रूप में थे। बाद में उन्होंने 12 दिसंबर 1998 को भारतीय सेना को ज्वाइंन कर लिया। कैप्टन नेइकझुको केंगुरूस को उनके परिवार और दोस्त प्यार से नींबू कहते थे। इसलिए उन्हें उनकी कमान के कुछ सैनिक निम्बू साहिब यानी की (लेमन सर) कहा करते थे। 

भारतीय राजपुताना राइफल्स के जवान कैप्टन नेइकझुको केंगुरूस को अपने दृढ़ संकल्प और कौशल के लिए कारगिल युद्ध के दौरान घातक पलटन बटालियन का मुख्य बनाया गया था। कैप्टन को अपनी पलटन के साथ ब्लैक रॉक पर रखी गई दुश्मन की मशीनगन पोस्ट को हासिल करने की जिम्मेदारी दी गई थी। लेकिन टाइगर हिल से पाकिस्तानी घुसपैठिए लगातार मशीनगन से फायरिंग कर रहे थे। ऐसे में पटलन का चढ़ाई करना बेहद मुश्किल होता जा रहा था लेकिन कैप्टन ने हार नहीं मानी और पलटन के साथ आगे बढ़ चट्टान को पार करने के बाद दुश्मन की तरफ से मोर्टार और आटोमेटिक गन फायरिंग होने लगी जिसके बाद पलटन के ज्यादातर सदस्य शहीद हो गये और कुछ घायल हो गये। पलटन के कप्तान केंगुरुसी को भी पेट में गोली लगी। लेकिन इसके बाद भी केंगुरुसी  लगातार आगे बढ़ते रहे। दुश्मन तक पहुंचने के लिए बर्फीली चट्टान से बनी दीवार को पार करना था जिसके लिए केंगुरुसी ने एक रस्सी जुटायी और चढ़ाई करने लगे। जूते फिसल रहे थे चढ़ाई मुश्किल थी और पेट में गोली लगी हुई थी वह चाहते तो वापस जाकर अपना इलाज करवा सकते थे लेकिन समय की मांग को देखते हुए कप्तान टुकड़ी के साथ आगे बढ़े... हालत इतने खराब थे लेकिन उसके बावजूद 16,000 फीट की ऊंचाई पर और -10 डिग्री सेल्सियस के कड़े तापमान में, कप्तान केंगुरुसी ने अपने जूते उतार दिए। उन्होंने नंगे पैर रस्सी की पकड़ बना कर आरपीजी रॉकेट लॉन्चर के साथ ऊपर की चढ़ाई की।

बंकर के पास पहुंच कर उन्होंने फायरिंग की और बंकर को तबाह कर दिया। पाकिस्तान के सैनिक उनके बहुत नजदीक आ गये थे जिसका सामना उन्होंने अपने रायफल्स और चाकुओं से किया लेकिन वह तब तक लड़ते रहे जब तक उन्होंने बंकर को पूरी तरह से नष्ट नहीं कर दिया। अंत में वह गोली लगने के बाद चट्टान से नीचे फिसल गये और शहीद हो गया बाकी साथियों ने मैदान को पाकिस्तानियों से साफ कर दिया और विजय प्राप्त की।

मेजर पद्मपनी आचार्य 

मेजर पद्मपनी आचार्य भारतीय सेना में अधिकारी थे। उन्हें 28 जून 1999 को कारगिल युद्ध के दौरान अपने कार्यों के लिए मरणोपरांत भारतीय सैन्य सम्मान, महा वीर चक्र से सम्मानित किया गया। मेजर पद्मपनी आचार्य को अपनी सेना टुकड़ी के साथ दुश्मन के कब्जे वाली अहम चौकी को आजाद कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई। यह जगह बेहद खतरनाक थी क्योंकि यहां दुश्मनों ने जमीन में माइंस बिछा रखे थे ताकि कोई भी भारतीय सैनिक दुश्मन कब्जे वाले एरिया में एंट्री करते ही माइंस के विस्फोट में मारा जाए।

इस चाल को मात देने के लिए मेजर पद्मपनी आचार्य ने अपनी टीम के साथ मिल कर योजना बनाई और आगे बढ़े... लागातार दुश्मनों की बम और गोलियों की बरसात हो रही थी। फूंक-फूंक कर कदम रखती मेजर की टीम दुश्मन के कब्जे वाले क्षेत्र में आ चुके थे। यहां दुश्मनों के पास अत्याधुनिक हथियारों थे। वह लगातार फायर कर रहे थे मेजर को कई गोलियां लग चुकी थी लेकिन वह दुश्मन को तबाह करने की ठान चुकी थी। उन्होंने आगे बढ़कर फायरिंग की और अपनी टीम के साथ मिलकर दुश्मनों को खदेड़ दिया। उनके अत्याधुनिक हथियार को बर्बाद कर दिया। इसके बाद मेजर पद्मपाणि ने दम तोड़ दिया और हमेशा के लिए अमर हो गये।

मेजर आचार्य मूल रूप से ओडिशा से थे और हैदराबाद, तेलंगाना के निवासी थे। आचार्य, चारुलाथा से शादी कर रहे थे। आचार्य के पिता, जगन्नाथ आचार्य 1965 और 1971 के पाकिस्तान के साथ युद्ध के दौरान भारतीय वायु सेना के सेवानिवृत्त विंग कमांडर थे। वे वर्तमान में हैदराबाद में रक्षा अनुसंधान और विकास प्रयोगशालाओं के साथ काम कर रहे हैं। 

स्कावड्रन लीडर अजय आहूजा 

एक तरफ जहां थल सेना ने अदम्य साहस से कारगिल युद्ध में दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिये थे वहीं भारतीय वायुसेना का भी कारगिल में बड़ा योगदान रहा था। कारगिल पर विजय के लिए भारतीय वायुसेना ने ऑपरेशन सफेद चलाया। इस ऑपरेशन का मकसद था बॉर्डर पर पाकिस्तानी सेना ने कहां-कहां कब्जा किया हुआ है उसका पता लगाया जा सके। अब युद्ध हवा में होना था। हवाई जहाज से पाकिस्तानी सैनिको की पोजिशन का पता लगा कर उन्हें नष्ट करना था। ये जिम्मेदारी अब वायुसेना की थी। भटिंडा की ‘गोल्डन-एरोज़’ की स्क्वाड्रन में अजय आहूजा फ्लाइट कमांडर थे।

ऑपरेशन सफेद के चलते स्कावड्रन लीडर अजय आहूजा को ये जिम्मेदारी दी गई की वह LOC पर पाकिस्तानियों कि पोजिशन का पता लगाएं और सारी जानकारी दें। स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा ने आगे बढ़कर ये जिम्मेदारी ली और मिग-21 विमान को लेकर LOC पर चले गये। पोजिशन का पता लगाने के लिए वह बॉर्डर पर ही उड़ रहे थे। अभी उन्हें खबर लगी कि उनकी साथ आये साथी के मिग-27 विमान में आग लग गई जिसके कारण उन्हें नीचे कूदना पड़ा, ये सुनने के बाद स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा अपने साथी को बचाने के लिए पाकिस्तानी सीमा में दाखिल हो गये तभी एक आग का गोला आया जिससे उनके प्लेन में आग लग गई। मिग 21 जलने लगा और अजय ने पाकिस्तानी सीमा में छलांग लगा दी। एयरफोर्स से स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा का संपर्क पूरी तरह से टूट चुका था। पाकिस्तानी सैनिकों ने अजय आहूजा को पकड़कर बंधक बना लिया था और बाद में उन्हें गोली मार दी थी। स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा को मार कर पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र की जिनेवा-कनवेंशन का उल्लंघन किया था। भारत ने इसका कड़ा विरोध भी किया था। जिसके बाद पाकिस्तान ने झूठ बोला था कि अजय की मौत प्लेन से नीचे गिरकर हुई थी लेकिन जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट आई तब सबकुछ साफ हो गया कि स्कावड्रन लीडर अजय आहूजा को बेहद करीब से गोलियां मारी गईं थी। स्कावड्रन लीडर अजय आहूजा को उनकी बहादुरी के लिए मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया।

अजय आहूजा का जन्म राजस्थान के कोटा में हुआ था। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा सेंट पॉल सीनियर सेकेंडरी स्कूल, माला रोड कोटा, लड़कों के लिए एक प्रसिद्ध मिशनरी स्कूल से की। उन्होंने राष्ट्रीय रक्षा अकादमी से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और 14 जून 1985 को भारतीय वायुसेना में उन्हें लड़ाकू पायलट नियुक्त किया गया। फाइटर पायलट के रूप में उन्होंने मिग -23 फाइटर-बॉम्बर और मिग -21 वेरिएंट का दौरा किया, साथ ही 1,000 घंटे से अधिक के इंस्ट्रक्शनल फ्लाइंग एक्सपीरिएंस में अब-इनिटियो पायलटों को पढ़ाने का अनुभव लिया। स्क्वाड्रन लीडर आहूजा 1997 में भटिंडा, पंजाब, भारत में किल्ली भिसियाना एयरबेस में तैनात थे। 

मेजर अजय जसरोटिया

कारगिल की जंग चल रही थी। 17 हजार फुट ऊंची तोलोलिंग चोटी पर कब्जा करके पाकिस्तानी घुसपैठिए लगातार भारतीय सैनिकों पर फायरिंग कर रहे थे। पाकिस्तानी सैनिकों को लगा कि ऊंचाई से गोलीबारी करके वह भारत पर विजय प्राप्त कर लेंगे लेकिन उनके नापाक इरादों को भारतीय सेना ने मुंहतोड़ जवाब दिया। तोलोलिंग चोटी से पाकिस्तानियों को खदेड़ने की जिम्मेदारी मेजर अजय जसरोटिया और उनकी पलटन को दी गई थी।

तोलोलिंग चोटी पर कब्जा जमाए बैठे पाकिस्तानी सैनिकों की गोलीबारी का मेजर अजय जसरोटिया ने मुंहतोड़ जवाब दिया। उधर से गोलियां चलती रही और भारतीय सैनिक आगे बढ़ते रहे। इसी दौरान अजय जसरोटिया खुद गंभीर रूप से घायल हो गये थे लेकिन घुसपैठियों को मैदान से पीछे खदेड़ रहे थे ऐसे में उनका पूरा शरीर गोलियों से भर चुका था तब भी उन्होंने अपने छह घायल साथियों को बमबारी के बीच से सुरक्षित निकाल कर खुद को मातृभूमि की बलिवेदी को समर्पित कर दिया। 

मेजर अजय कुमार जसरोटिया का जन्म 31 मार्च 1972 को जम्मू कश्मीर में हुआ था। अजय अर्जुन सिंह जसरोटिया और बीना जसरोटिया के पुत्र थे। मेजर अजय ने अपनी पढ़ाई अपने गृहनगर में की और बाद में जम्मू में कॉमर्स कॉलेज से स्नातक किया। वह एक सैन्य परिवार से थे, जिसमें उनके दादा लेफ्टिनेंट कर्नल खजूर सिंह ने सेना में सेवा की और बीएसएफ में डीआईजी के रूप में अपनी सेवाएं दीं। अजय  बचपन से ही सशस्त्र बलों में शामिल होने के इच्छुक थे और स्नातक के बाद अपने सपने का पालन किया। उन्होंने संयुक्त रक्षा सेवा परीक्षा दी जिसके माध्यम से उनका चयन किया और 23 वर्ष की आयु में 1996 में सेना में भर्ती हुए।

कैप्टन विजयंत थापर 

कैप्टन विजयंत थापर कारगिल के जांबाज हीरो में से एक हैं। 22 साल के विजयंत ने अपनी जिंदगी का हर पल जिया और जब वक्त आया तो देश के लिए अपनी जान देने में पीछे नहीं हटे। विजयंत एक सैनिक परिवार से आते थे। कैप्टन विजयंत थापर का जन्म 26 दिसंबर 1976 को एक सैन्य परिवार में कर्नल वी एन थापर और श्रीमती तृप्ता थापर के घर हुआ था। सेना परिवार में रहने के बाद कैप्टन थापर हमेशा अपने पिता के नक्शेकदम पर चलना चाहते थे। अपने बचपन में, वह अक्सर बंदूक के साथ खेलते थे और अपने पिता की चोटी की टोपी पहने और एक अधिकारी की तरह अपने बेंत को पकड़े हुए मार्च करते थे। उन्होंने अपने सपने का पीछा किया और आईएमए देहरादून में चयनित होने के लिए कड़ी मेहनत की। उन्होंने अपने प्रशिक्षण में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया और 12 दिसंबर 1998 को 2 राजपुताना राइफल्स में शामिल हुए।

जब कारगिल का युद्ध हो रहा था उससे पहले विजयंत की यूनिट जो कुपवाड़ा में आतंक विरोधी अभियान चला रही थी। यूनिट को जंग के ऐलान के बाद घुसपैठियों को भगाने तोलोलिंग की ओर द्रास भेजा गया। विजयंत की यूनिट को नोल एंड लोन हिल पर ‘थ्री पिम्पल्स’ पर भेजा गया यहां के पूरे एरिया में पाकिस्तानी घुसपैठियों ने कब्जा कर रखा था।

विजयंत की टीम को पाकिस्तानियों को खदेड़ने की ज़िम्मेदारी मिली। विजयंत ने ये जिम्मेदारी स्वीकार की और अपनी यूनिट के साथ आगे बढ़े। विजयंत की यूनिट ने रात के समय चढ़ाई शुरू की और दुश्मन के बंकर के पास जा पहुंचे। दोनों ओर से जबरदस्त फायरिंग हुई लेकिन विजयंत आगे बढ़े और आखिर में विजयंत की यूनिट नें 13 जून 1999 को तोलोलिंग जीता, वो कारगिल में हिंदुस्तानी फौज की पहली जीत थी। ये महत्वपूर्ण जीत करगिल की जंग के दौरान भारत के हक में एक निर्णायक लड़ाई साबित हुई थी। इस जीत में विजयंत शहीद हो गये। विजयंत थापर को कैप्टन की रैंक उनके मरणोपरांत दी गई। कैप्टन विजयंत थापर को मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया।

मेजर राजेश सिंह अधिकारी 

मेजर राजेश सिंह अधिकारी एक भारतीय सेना अधिकारी थे जिनकी कारगिल युद्ध के दौरान मृत्यु हो गई थी। युद्ध के मैदान में बहादुरी के लिए उन्हें मरणोपरांत दूसरे सर्वोच्च भारतीय सैन्य सम्मान महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था। उत्तराखण्ड के नैनीताल में जन्मे वीर योद्धा मेजर राजेश सिंह अधिकारी ने अपनी दिलेरी का परिचय देते हुए मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी और हमेशा-हमेशा के लिए अमर हो गए।

कारगिल की जंग के दौरान सबसे मुश्किल चुनौती थी टाइगर हिल पर कब्जा जमाए बैठे पाकिस्तानी लगातार बमबारी और गोलियां चला रहे थे, चोटी पर चढ़कर दुश्मन के ठिकानों को बर्बाद करना ही भारतीय सेना का पहला लक्ष्य था। इससे लिए सबसे पहले तोलोलिंग से घुसपैठियों का कब्जा हटाने की योजना बनाई गई। दुश्मन 15 हजार फीट की ऊंचाई पर बैठा गोलिया बरसा रहा था जिस पर काबू पाने के लिए मेजर राजेश सिंह अधिकारी को जिम्मेदारी दी गई थी।

मेजर राजेश सिंह अधिकारी ने अपनी यूनिट के साथ चढ़ाई की और पाकिस्तानी घुसपैठियों के बंकर को रॉकेट लॉन्‍चर से उलझाए रखा और अधिकारी को मौका मिला तो उन्होंने बंकर को तबाह कर दिया। पाकिस्तानी घुसपैठियों को भी मार गिराया। गंभीर रूप से घायल होने के बाद भी मेजर लड़ते रहे और कई घुसपैठियों को मार कर उनके ठिकानों पर कब्जा कर लिया। लेकिन मेजर राजेश सिंह अधिकारी इस जंग में शहीद हो गये।

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