तम्बाकू निषेध दिवसः छोड़िए लत, इससे पहले कि तंबाकू आपको खाए

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देखा जाए तो तंबाकू निषेध की दिशा में हमारी सरकारों के जरिए काफी पहले से प्रयास किए जा रहे हैं। इसके दुष्प्रभावों के प्रति लोगों को सचेत करने के लिए जागरुकता अभियान चलाए जा रहे हैं। जगह-जगह होर्डिंग, बैनर और पोस्टर लगवाकर लोगों को संदेश देने की कोशिश की जाती रही है।

हर फिक्र को धुएं में उड़ाने वालों को अपनी फिक्र करनी चाहिए क्योंकि जिंदगी ज्यादा दिनों तक उनका नहीं साथ निभाती है। पान-गुटखे के साथ या फिर सीधे तौर पर तम्बाकू का सेवन करने वालों को भी अपनी परवाह होनी चाहिए। वह भी इससे मौत को जल्द दावत देते हैं। ऐसा तम्बाकू सेवन से होने वाली मौतों के आंकड़े कहते हैं। इसके कारण पूरी दुनिया में हर वर्ष करीब 8 मिलियन अर्थात 80 लाख से अधिक लोगों को मौत अपने गले लगा लेती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के ताजा आंकड़ों के अनुसार इन 8 मिलियन मौतों में से 7 मिलियन सीधे तौर पर तम्बाकूनोशी से होती हैं जबकि 1.2 मिलियन लोग अप्रत्यक्ष रूप से पैस्सिव स्मोकिंग अर्थात धूम्रपान करने वालों के संपर्क में आने से मरते हैं।

स्थिति की इसी भयावहता को देखते हुए विकसित देशों ने तंबाकू उत्पाद बनाने वाली कंपनियों के नियम-कानून बहुत सख्त कर दिए हैं। यही वजह है कि इन कंपनियों ने अब विकासशील देशों में अपना ज्यादा आधार बना लिया है। नतीजतन धूम्रपान के कारण पूरे विश्व में होने वाली मौतों में 80 प्रतिशत इन्हीं विकासशील देशों में होती हैं। अकेले भारत में इससे हर बरस मरने वालों की संख्या लगभग एक मिलियन अर्थात 10 लाख तक जा पहुंची है। इसको देखते हुए हमारी सरकारों और नीति निर्धारकों को सचेत होने की जरूरत है।

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देखा जाए तो तंबाकू निषेध की दिशा में हमारी सरकारों के जरिए काफी पहले से प्रयास किए जा रहे हैं। इसके दुष्प्रभावों के प्रति लोगों को सचेत करने के लिए जागरुकता अभियान चलाए जा रहे हैं। जगह-जगह होर्डिंग, बैनर और पोस्टर लगवाकर लोगों को संदेश देने की कोशिश की जाती रही है। तम्बाकू उत्पादों पर इसके सेवन से होने वाली कैंसर जैसी खतरनाक बीमारियों के चित्र छापकर लोगों को जागरुक करने के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन इनके वांछित नजीजे अब तक हासिल नहीं हो सके हैं। ‘सिगरेट एण्ड अदर टोबैको प्रोडक्ट्स एक्ट’ यानी कोटपा-2003 पहले से लागू है। इसके तहत तंबाकू उत्पादों के विज्ञापन तथा उसके कारोबार, व्यवसाय, उत्पादन, आपूर्ति पर नियंत्रण लगाने का प्रावधान है। समय-समय पर इसमें संशोधन में होते रहे हैं। इसके अनुसार सार्वजनिक स्थानों पर धूर्मपान करने, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर इन उत्पादों का प्रचार करने वाले सभी तरह की विज्ञापनों, बच्चों को तंबाकू उत्पाद बेचने तथा शैक्षणिक संस्थानों के एक निर्धारित दायरे में इन्हें बेचने पर पाबंदी है। यही नहीं केंद्र सरकार के जरिए 2007-2008 में राष्ट्रीय तंबाकू नियंत्रण कार्यक्रम (एनटीसीपी) चलाया गया। इन सब प्रयासों के बावजूद नतीजा वही ढाक के तीन-पात रहा है।

पान मसाला, गुटखा और खैनी जैसे जाने कितने तंबाकू उत्पाद हैं जिनका महज एक मामूली सी वैधानिक चेतावनी के साथ धड़ल्ले से प्रचार-प्रसार किया जाता है। यही हाल सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान करने वालों का है जो बिना किसी रोकटोक धूम्रपान करके अपने लिए मौत को दावत देते हैं। साथ-साथ आसपास मौजूद लोगों को ‘पैस्सिव स्मोकिंग’ कराकर उनके लिए भी मौत का सामान मुहैया कराते हैं। धूम्रपान से बच्चे और शिक्षण संस्थान भी अछूते नहीं हैं। इससे अंदाजा होता है कि तंबाकू निषेध के लिए बनाए गए नियम-कानून और प्रयास अपर्याप्त साबित हो रहे हैं। 

देखा जाए तो इसकी सबसे बड़ी वजह केंद्र और राज्य सरकारों का इनके प्रति गंभीर न होना है। केंद्र सरकार ‘सिगरेट एण्ड अदर टोबैको प्रोडक्ट्स एक्ट- 2003’ को ठीक ढंग से क्रियान्वित न करने का ठीकरा राज्य सरकारों पर फोड़ती रही है। जबकि राज्य सरकारें पुलिस और दीगर एजेंसियों के जरिए इसे लागू कराने के मामले में जर्रा बराबर भी दिलचस्पी नहीं दिखाती हैं। हालांकि 2004 में ‘फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑफ टोबैको कंट्रोल’ को अंगीकार करने के बाद इस सामाजिक बुराई को नियंत्रित करना भारत का दायित्व है।

दरअसल तंबाकू के भारतीय बाजार पर केवल विदेशी कंपनियों की ही नहीं बल्कि हमारी अपनी सरकारों की हमेशा से ही गिद्ध निगाह रही है। यही वजह है कि कोई भी इस मामले में सही से अपने कर्तव्यों का निर्वाह करता हुआ नजर नहीं आता है। असल में तंबाकू उत्पादों के सेवन के मामले में पूरे विश्व में चीन के बाद भारत का दूसरा स्थान है। यहां तंबाकू सेवन करने वालों की संख्या लगभग 120 मिलियन यानी 12 करोड़ है जो सिगरेट-बीड़ी या फिर तंबाकू से बने पान, पान मसाला, गुटखा जैसे उत्पादों को इस्तेमाल करते हैं। इस नाते हमारे देश में तंबाकू उत्पादों की बड़े पैमाने पर खपत है। इससे होने वाली काफी बड़ी आमदनी का मोह न तो कंपनियां छोड़ पा रही हैं और न तो हमारी सरकारें। हालांकि इस आय के चक्कर में कई बड़े-बड़े व्यय की अनदेखी की जाती है। मसलन तंबाकू निषेध के लिए चलाए जाने वाले कार्यक्रमों पर वर्षों से लंबा-चौड़ा बजट खर्च होता रहा है। यही नहीं तंबाकू सेवन से होने वाले कैंसर, हृदय एवं फेफड़े सम्बंधी रोगों की रोकथाम का खासा भार हमारी अर्थव्यवस्था को सहन करना पड़ता है। अर्थात पहले हम आमदनी के चक्कर में तंबाकू सेवन का मर्ज बढ़ाते हैं, फिर उन्हीं पैसों से इसकी दवा करते हैं। सरकारों के जरिए इस मामले में अक्सर तंबाकू उत्पादों से जुड़े किसानों, कारोबारियों और कामगारों के बेरोजगार होने की चिंता व्यक्त की जाती रही है। जबकि इन्हीं पैसों से तंबाकू व्यवसाय से जुड़े किसानों और मजदूरों के लिए वैकल्पिक कारोबार की व्यवस्था की जा सकती है।

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अजीब बात है कि तंबाकू निषेध के लिए चलाए जा रहे सरकारी एवं गैर सरकारी सतह पर सभी कार्यक्रम निष्प्रभावी साबित हो रहे हैं और भारत में लोग तंबाकू खाने-पीने से तभी तौबा करते हैं जब उन्हें तम्बाकू खुद खाने-पीने लगता है। यानी जब वो किसी तरह की बीमारी से ग्रसित हो जाते हैं। इसका मतलब है कि लोगों को इसके प्रति जागरुक करने के लिए और व्यापक पैमाने पर प्रयास करने होंगे और उन्हें इसके जानलेवा खतरों के बारे में बताना होगा। इसके लिए सरकार को शैक्षिक पाठ्यक्रम तक के स्तर से इसके लिए प्रयास करने होंगे। इसके अलावा तंबाकू कर में इजाफा, सार्वजनिक एवं कार्यस्थलों पर धूम्रपान करने पर पाबंदी, बच्चों को तंबाकू उत्पाद बेचने पर प्रतिबंध जैसे नियम-कानूनों के क्रियान्वयन में हमारी केंद्र और राज्य सरकारों को ज्यादा दृढ़ इच्छाशक्ति दिखानी होगी।  

- मोहम्मद शहजाद

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