Gyan Ganga: भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में बताया है- कैसे भक्त उन्हें अत्यधिक प्रिय हैं

Lord Krishna
आरएन तिवारी । May 21 2021 5:37PM

भगवान कहते हैं- हे अर्जुन ! जो मनुष्य इस धर्म रूपी अमृत का ठीक उसी प्रकार से पालन करते हैं जैसा मेरे द्वारा कहा गया है और जो पूर्ण श्रद्धा के साथ मेरी शरण ग्रहण किये रहते हैं, ऐसी भक्ति में स्थित भक्त मुझको अत्यधिक प्रिय होते हैं।

ढलना तो एक दिन है सभी को, चाहे इंसान हो या सूरज 

मगर हौसला सूरज से सीखो, रोज ढल के भी

हर दिन उम्मीद से निकलता है।

आइए ! आगे के गीता प्रसंग में चलते हैं-

पिछले अंक में भगवान ने निर्गुण और सगुण उपासना में सगुण उपासकों को श्रेष्ठ बताकर अर्जुन को सगुण उपासना करने की सलाह दी। अब आगे के श्लोकों में अपने प्रिय भक्तों के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं-

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श्रीभगवानुवाच

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।

निर्ममो निरहङ्‍कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥

भक्ति में स्थिर मनुष्य के लक्षण बताते हुए भगवान कहते हैं- जो मनुष्य किसी से द्वेष नहीं करता है, सभी प्राणियों के प्रति मित्रता का भाव रखता है, सभी जीवों के प्रति दया-भाव रखने वाला है, ममता से मुक्त, मिथ्या अहंकार से मुक्त, सुख और दुःख को समान समझने वाला, और सभी के अपराधों को क्षमा करने वाला है। श्रीमद् भागवत में जड़ भरत की कथा आती है- लोगों ने उनको बहुत सताया, परेशान किया किन्तु उन्होंने किसी का विरोध नहीं किया, बल्कि यह सोचते रहे कि इससे मेरे पापकर्मों का नाश हो रहा है। यह भगवान का विधान है इससे मेरा कल्याण ही होगा। 

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥

भगवान कहते हैं- हे अर्जुन ! जो मनुष्य निरन्तर भक्ति-भाव में स्थिर रहकर सदैव प्रसन्न रहता है, दृढ़ निश्चय के साथ मन सहित इन्द्रियों को वश में किये रहता है और मन एवं बुद्धि को मुझमें अर्पित किए हुए रहता है ऎसा भक्त मुझे प्रिय होता है। 

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥

जो मनुष्य न तो किसी के मन को विचलित करता है और न ही अन्य किसी के द्वारा विचलित होता है, जो हर्ष, अमर्ष और भय से मुक्त है वह मुझे अत्यंत प्रिय है। सच्चे साधकों के लिए यह श्लोक अत्यंत उपयोगी है। भगवान के कहने का यह तात्पर्य है कि— सच्चे भक्त को इस संसार में इस ढंग से रहना चाहिए कि उनके द्वारा किसी के मन को ठेस न लगे, जबकि इस दुनिया में ऐसे भी बहुत लोग मिलेंगे जो अकारण ही आपको सताना चाहेंगे क्योंकि यह उनका स्वभाव है।

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भर्तृहरि अपने नीतिशतक में कहते हैं— हिरण, मछली और सज्जन क्रम से घास, जल और संतोष पर अपना जीवन निर्वाह करते हैं किसी से कुछ नहीं कहते, फिर भी शिकारी, मछुए और दुष्ट लोग बिना किसी कारण के उनसे दुश्मनी रखते हैं और समय-समय पर उन्हे दुख देते रहते हैं। 

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥

जो मनुष्य किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं करता है, जो शुद्ध मन से मेरी आराधना में स्थित है, जो सभी कष्टों के प्रति उदासीन रहता है और जो सभी कर्मों को मुझे अर्पण करता है ऐसा भक्त मुझे प्रिय होता है। किसी-किसी भक्त को तो भगवान के दर्शन की भी अपेक्षा नहीं होती। भगवान दर्शन दें तो आनंद और न दें तो भी आनंद। ऐसे निरपेक्ष भक्त के पीछे-पीछे भगवान भी घूमा करते हैं। 

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्‍क्षति ।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥

जो मनुष्य न तो कभी हर्षित होता है, न ही कभी शोक करता है, न ही कभी पछताता है और न ही किसी चीज की कामना करता है, जो शुभ और अशुभ कर्मों से ऊपर उठा हुआ है वह भक्त मुझको प्रिय होता है।

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्‍गविवर्जितः ॥

जो मनुष्य शत्रु और मित्र में, मान तथा अपमान में समान भाव से स्थित रहता है, जो सर्दी और गर्मी में, सुख तथा दुःख आदि द्वंद्वों में भी समान भाव से रखता है और जो दूषित संगति से मुक्त रहता है, वह मेरा प्रिय भक्त है। यहाँ भगवान बताना चाहते हैं कि साधारण मनुष्य धन-दौलत और अनुकूल परिस्थिति में प्रसन्न होता है तथा विपरीत और दुख की घड़ी में रोने-धोने लगता है। किन्तु एक सच्चा साधक सुख और दुख दोनों को प्रभु का प्रसाद मानकर सदा प्रसन्न रहता है।    

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्‌ ।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥

जो निंदा और स्तुति को समान समझता है, जिसकी मन सहित सभी इन्द्रियाँ शान्त हैं, जो हर प्रकार की परिस्थिति में सदैव संतुष्ट रहता है और जिसे अपने घर गृहस्थी में बहुत आसक्ति नही होती है ऐसा स्थिर बुद्धि वाला भक्त मुझे अत्यंत प्रिय लगता है। 

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ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।

श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥

भगवान कहते हैं- हे अर्जुन ! जो मनुष्य इस धर्म रूपी अमृत का ठीक उसी प्रकार से पालन करते हैं जैसा मेरे द्वारा कहा गया है और जो पूर्ण श्रद्धा के साथ मेरी शरण ग्रहण किये रहते हैं, ऐसी भक्ति में स्थित भक्त मुझको अत्यधिक प्रिय होते हैं। प्राय: संसार में ऐसा देखा जाता है कि लोग सत्संग तो करते हैं, पर साथ-साथ जाने-अनजाने में कुसंग भी करते रहते है, संयम तो करते हैं पर कहीं न कहीं असंयम भी होता रहता है, साधना तो करते हैं पर साथ ही असाधना भी चलती रहती है। जब तक साधना के साथ असाधना या गुणों के साथ अवगुण रहेंगे तब तक साधक की साधना और भक्त की भक्ति पूर्ण नहीं होती, क्योंकि गुण-अवगुण और संयम-असंयम उनमें भी पाए जाते हैं जो सच्चे साधक या भक्त नहीं हैं। इस जगत में पाप करना आसान है और पुण्य करना कठिन है। लोग पुण्य तो बहुत करते हैं लेकिन पाप को छोड़ते नहीं। इसलिए पुण्य को जितना फल मिलना चाहिए उतना मिल नहीं पाता। इसलिए इस विषय में हमें विशेष सावधान रहना चाहिए। यदि हमारे व्यवहार और वृति में कोई दोष हो तो उसे दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। यदि कोशिश करने के बावजूद भी दूर न हो सके तो प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए। 

आइए, देखते हैं, भगवान श्रीकृष्ण के सच्चे भक्त और सगुण उपासक सूरदास जी अपने जाने-अनजाने अवगुणों को दूर करने के लिए किस तरह भगवान से प्रार्थना करते हैं-

कन्हैया ! मेरो, अवगुन दूर करौ।

समदरसी है नाम तुहारौ, सोई पार करौ॥

इक लोहा पूजा में राखत, इक घर बधिक परौ।

सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ॥

इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ।

जब मिलि गए तब एक-वरन ह्वै, सुरसरि नाम परौ॥

तन माया, ज्यौ ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ।

कै इनकौ निरधार कीजियै कै प्रन जात टरौ॥

श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु---

जय श्री कृष्ण---

- आरएन तिवारी

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