Gyan Ganga: कण-कण में राम! भगवान शिव ने पार्वतीजी को बताया सगुण-निर्गुण का रहस्य

विचार करने योग्य बात है, कि क्या भगवान शंकर सचमुच देवी पार्वती के इन विचारों से रुष्ट भाव में थे? जी नहीं! वास्तव में वे तो संसार में यह भाव रखना चाह रहे थे, कि भगवान श्रीराम जी, एवं वह परम शक्ति, जिसको वेद भी गाते हैं, उन दोनों में कोई भेद नहीं है।
भगवान शंकर देवी पार्वती को भगवान श्रीराम जी के संबंध में विस्तार से कहना आरम्भ करते हैं। वे अभी तक किंचित भी, कहीं भी उनके किसी प्रश्न को रुष्ट भाव से नहीं ले रहे थे। किंतु अब उनके श्रीमुख से यह वाक्य रिस कर बाहर आये-
‘एक बात नहिं माहि सोहानी।
जदपि मोह बस कहेहु भवानी।।
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना।
जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना।।’
किंतु हे पार्वती! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी। यद्यपि वह तुमने मोह के वश होकर ही कही है। तुमने जो यह कहा कि वे राम कोई और हैं, जिन्हें वेद गाते और मुनिजन जिनका ध्यान करते हैं।
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विचार करने योग्य बात है, कि क्या भगवान शंकर सचमुच देवी पार्वती के इन विचारों से रुष्ट भाव में थे? जी नहीं! वास्तव में वे तो संसार में यह भाव रखना चाह रहे थे, कि भगवान श्रीराम जी, एवं वह परम शक्ति, जिसको वेद भी गाते हैं, उन दोनों में कोई भेद नहीं है। अगर कोई दशरथ नंदन श्रीराम जी और सूक्षम रुप में, कण-कण में समाई दिव्य परम शक्ति में कोई अंतर मानता है, तो वह महाअभागा है। उसके संबंध में भोलेनाथ कहते हैं-
‘कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच।।’
अर्थात जो मोह रुपी पिशाच के द्वारा ग्रस्त हैं, पाखण्डी है, भगवान के चरणों से विमुख हैं, और जो झूठ-सच कुछ भी नहीं जानते, ऐसे अधम मनुष्य ही इस तरह कहते सुनते हैं।
जिनको निर्गुण सगुण का रत्ती भर भी ज्ञान या विवेक नहीं है, जो अनेक मनगढं़त बातें बका करते हैं, जो श्रीहरि की माया के वश में होकर जगत में भ्रमिते फिरते हैं, उनके लिए कुछ भी कह डालना असंभव नहीं है।
भगवान शंकर के यह विचार श्रवण कर, देवी पार्वती कहती हैं, कि हे देव! आप जो कह रहे हैं, वह ही परम सत्य होगा। किंतु मैं अथवा मेरी जैसी ऐसी बुद्धि किसी की हो, तो वह क्या करे-
‘अस निज हृदयँ बिचारि तजुं संसय भजु राम पद।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम।।’
अर्थात हे पार्वती! तुम्हारे पास केवल एक ही राम बाण है, कि तुम केवल और केवल मेरे ही वचनों पर विश्वास करो। क्यों मेरे वचन ऐसे हैं, जैसे अँधकार का नाश करने के लिए, सूर्य के प्रकाश की किरणें होती हैं। लो अब मैं तुम्हें सर्गुण व निर्गुण प्रमात्मा पर विशेष बल देकर समझाता हुँ-
‘सगुनिह अगुनहि नहिं कछु भेदा।
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।
अगुन अरुप अलख अज जोई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।’
हे पार्वती! मैं सत्य कह रहा हुँ, कि सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है। सभी मुनि, पुराण, पंडित और वेद ऐसा ही भाषण कर रहे हैं। जो निर्गुण अरुप, अलख और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है।
साधारण शब्दों में अगर समझाया जाये, तो जल और ओले में क्या भेद है? एक सामान्य व्यक्ति भी बता सकता है, कि बाहर से भले ही जल और ओले की बनावट में भेद है। किंतु भीतर से तो दोनों एक ही हैं। और उनका वह भीतरी रुप है ‘जल’। उस जल को जब किसी के हाथों में नहीं बँधना, या नहीं समाना, तो वह जल रुप में तरल ही रहता है। किंतु अगर वह जल सोच ले, कि मुझे अब एक रुप में आकार लेना है, तो वह ओले के रुप में आ जाता है। प्रमात्मा भी ठीक इसी प्रकार है। उसे जब किसी के सथूल प्रभाव में नहीं रहना होता है, तो वह निराकार प्रकाश रुप में रहता है। किंतु जब भक्तों के प्रेम भावों के वश बँधता है, तो अपने प्रकाश रुप से परे होकर, वह देह धारण कर लेता है, और साकार रुप कहलाता है।
देवी पार्वती बड़े ध्यान से भगवान शंकर की सीख सुन रही है।
क्रमशः
- सुखी भारती
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