Gyan Ganga: सुग्रीव के आदेश पर राक्षसों को क्यों मार रही थी वानर सेना?

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सुखी भारती । Jan 3 2023 5:22PM

दूतों के हृदय में अब अशांति के स्थान पर आनंद का वास होने लगा था। वे पँच विकारों को त्याग, दैविक गुणों को धारण कर रह थे। ज्यों-ज्यों वे श्रीराम जी की दिव्य लीलाओं के साक्षी बन रहे थे, वैसे-वैसे उनके मन में मृत्यु का भय भी धुँधलाता जा रहा था।

रावण के जीवन का यही दुर्भाग्य है कि वह श्रीराम जी के परम प्रताप को अपनी आँखों से नहीं देखना चाहता है। अपितु वह दूसरे किसी के द्वारा बनाये गए, श्रीराम जी के अक्स को ही सत्य माने बैठा है। जैसे सर्वप्रथम उसने अपनी बहन सूर्पनखा के द्वारा श्रीराम जी के बारे में सुना। फिर अपने सभासदों, एवं फिर अनेकों राम विरोधियों के माध्यम से सुना। सुन-सुन कर उसने अपने हृदय में यह पक्का धारण कर लिया, कि श्रीराम जी निश्चित ही एक साधारण पुरुष हैं। काश उसको श्रीहनुमान जी एवं श्रीविभीषण जी द्वारा गाई प्रभु की गाथा पल्ले पड़ गई होती। अभी भी रावण ने यही निराधार नीति अपनाई थी। श्रीविभीषण जी जब लंका त्याग करके वहाँ से चले, तो उसने अपने दूतों को उनके पीछे सागर के इस पार भेज दिया। वे दूत वानरों का ही रूप धारण कर, प्रभु की प्रत्येक लीला का दर्शन कर रहे थे। वे आये तो इसलिए थे, कि श्रीराम जी की एक से एक कमजोरी व कमी को पकड़ कर, इसकी संपूर्ण जानकारी रावण तक पहुँचायें। लेकिन उन्हें भी यह ज्ञान थोड़ी न था, कि सूर्य के भाल पर रात्रि का पहरा नहीं हुआ करता है। वहाँ कुछ पाना है, तो केवल प्रकाश ही प्रकाश मिलेगा। इसी प्रकार से श्रीराम जी के व्यक्तित्व में कमी अथवा कोई पीड़ित पक्ष होगा, ऐसी कल्पना ही मिथ्या है। पहले तो वे भी श्रीराम जी को, रावण की ही बनाई निम्न दृष्टि से देख रहे थे। लेकिन जब उन्होंने देखा, कि श्रीराम जी जैसा उदार व दीन दयालु तो सृष्टि में भी कोई नहीं। तो इसके पश्चात उनकी मति में पूर्णतः परिवर्तन हो गया। वे श्रीराम जी के गुणों की एवं शरणागत पर उनके स्नेह की महिमा गाने लगे-

‘सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।

प्रभु गुन हृदयँ सराहहिँ सरनागत पर नेह।।’

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दूतों के हृदय में अब अशांति के स्थान पर आनंद का वास होने लगा था। वे पँच विकारों को त्याग, दैविक गुणों को धारण कर रह थे। ज्यों-ज्यों वे श्रीराम जी की दिव्य लीलाओं के साक्षी बन रहे थे, वैसे-वैसे उनके मन में मृत्यु का भय भी धुँधलाता जा रहा था। वे भूल ही गए थे, कि वे रावण के दूत हैं। जिसका परिणाम यह हुआ, कि वे बनावटी वानर के रूप को त्याग, अपने राक्षसी वेश में आ गए। वानर सेना ने अचानक से जब राक्षसों को अपने मध्य विचरण करते देखा, तो वे तत्काल ही सजग हो उठे। उन्होंने उन्होंने उसी क्षण राक्षसों को पकड़ा, और उन्हें बाँधकर सुग्रीव के पास ले गए। दूतों ने तो सोचा भी नहीं था, कि रावण की लंका से आये किसी लंका वासी के साथ, ऐसा बाँधा-बाँधी वाला सीन भी आयेगा। उन्होंने तो यही सोचा था, कि श्रीराम जी के दरबार में, जब रावण के भाई तक को कुछ नहीं कहा जा रहा। तो हम भला नन्हें-नन्हें राक्षसों को क्या कहा जा सकता है। लेकिन बेचारों को तो यहाँ सब उल्टा-पुल्टा हो गया लगता था। कारण कि श्रीविभीषण जी के भविष्य का निर्णय करने के लिए तो स्वयं श्रीराम जी ने सभा लगाई थी। और सुग्रीव के लाख नकारात्मक कहने पर भी, श्रीराम जी ने श्रीविभीषण जी को दण्डि़त नहीं, अपितु लंकेश के पद पर बिठाया था। दूतों को लगा, कि ठीक है, उन्हें पकड़ भले ही लिया है, लेकिन श्रीराम जी के समक्ष जाने पर, वे अवश्य ही प्रभु की दया के अधिकारी होंगे। लेकिन यहाँ तो उन्हें लेने के देने पड़ गए थे। कारण कि उन्हें श्रीराम जी के समक्ष नहीं, अपितु राजा सुग्रीव के समक्ष लाया गया था। राजा सुग्रीव ने जैसे ही देखा, कि रावण के दूत पकड़े गए हैं, तो मानों उनके हृदय में वह संपूर्ण दृश्य घूम गया, जो श्रीहनुमान जी के साथ लंका में हुआ था। कैसे-कैसे रावण ने श्रीराम दूत को बँदी बनाकर, पूरी लंका की फेरी लगवाई थी। सुग्रीव को वह एक-एक अत्याचार याद हो उठा, जो लंका प्रवास के दौरान, श्रीहनुमान जी के साथ हुआ था। उन्हें स्मरण हो उठा, कि रावण ने श्रीहनुमान जी के संबंध में सर्वप्रथम यही आदेश दिया था, कि राम-दूत को अंग भंग कर दिया जाये। निश्चित ही हमें भी रावण दूतों को भी यही दण्ड देना चाहिए। इसलिए सुग्रीव ने आदेश दिया, कि हे वानर जनों! आप भी इन राक्षसों को अंग भंग करके भेज दो। इतना सुनना था, फिर क्या था। वानर जनों ने उन राक्षसों को पकड़ा, और ठीक वैसे ही उन्हें बाँधकर सेना के चारों और पकड़ कर घुमाया, जैसे उन्होंने श्रीहनुमान जी को पूरे लंका नगरी में घुमाया था। केवल इतना ही नहीं, वानर उन राक्षसों को मार भी रहे थे। क्योंकि वानर जानते थे, कि इन्होंने भी श्रीहनुमान जी को ऐसे ही लात घूँसों से मारा था-

‘कह सुग्रीव सुनहु सब बानर।

अंग भंग करि पठवहु निसिचर।।

सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए।

बाँधि कटक चहु पास फिराए।।

बहु प्रकार मारन कपि लागे।

दीन पुकारत तदपि न त्यागे।।’

राक्षसों का निश्चित ही काल आ गया था। मृत्यु उनके निकट खेल रही थी। लेकिन क्या श्रीराम जी के दरबार में रहने के पश्चात भी, किसी के जीवन में ऐसा घट जाना उचित था? जब स्वयं महाकाल की पावन उपस्थिति वहाँ हो, तो काल की क्या बिसात, कि वहाँ पर आ भी सके। जी हाँ! राक्षसों ने भी एक ऐसी ही नीति अपनाई, और वानरों की मार से बच गए। क्या भी वह नीति, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।

- सुखी भारती

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