तुलसीदासजी को समग्रता में देखिए...एक चौपाई से उन्हें मत आंकिए

Tulsidas
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कुछ साल पहले एक बौद्धिक ने गीता प्रेस को हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता बढ़ाने का तर्क देते हुए किताब ही लिख डाली थी। भारतीय बुद्धिजीवी और आज की राजनीति के एक बड़े वर्ग को सनातन परंपरा को गाली देना फैशन लगता है।

यह कोई पहला मौका नहीं है, जब रामचरित मानस और तुलसीदास पर हमला हुआ हो। काशी में करीब पौने पांच सौ साल पहले जब तुलसीदास, राम कथा पर केंद्रित श्रीरामचरित मानस की रचना कर रहे थे, तभी ना सिर्फ तुलसीदास बल्कि उनकी यह अन्यतम रचना ना सिर्फ द्वेषी और विद्वानों, बल्कि मूर्खों का भी विरोध झेल रही थी। लोकमानस के गहरे तक ईश्वर जैसी आस्था और पैठ बनाने वाली इस रचना को जब तुलसी दास जब रच रहे थे, तब भी उसको चुराने की कोशिश हुई। उसे जलाने का भी प्रयास हुआ, उसे नष्ट करने की भी कोशिश की गई। लेकिन इसे संयोग कहें या दैवीय कृपा..कि यह रचना ना सिर्फ बची रही, बल्कि अपनी रचना के बाद से ही सनातनी समाज को नैतिकता और लोकव्यवहार की अनूठी शिक्षा भी दे रही है। सनातनी समाज भी कहना, इसके प्रभाव को कम करके आंकना होगा, बल्कि कह सकते हैं कि यह पूरी मानवता और वैश्विक समाज को सीख और प्रेरणा देती रही है। इस ग्रंथ के प्रति लोक की आस्था ही कहा जाएगा कि भारतीय धरती की सबसे ज्यादा बिकने और पढ़ी जाने वाली यही रचना है।

यह दुर्भाग्य है कि भारतीय परंपरा के सर्वोच्च देव के रूप में प्रतिष्ठापित मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी राजनीति का जरिया बन गए हैं। वोटों की फसल काटने के लिए किसी के लिए राम सकारात्मक हैं तो किसी के लिए नकारात्मक बोध के प्रतीक। बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर इसी नकारात्मक बोध का प्रतिनिधित्व करते हैं। दिलचस्प यह है कि जिस समाजवादी धारा के अनुयायी चंद्रशेखर हैं, वह धारा लोहिया और कर्पूरी ठाकुर का नाम लेते नहीं थकती। उन्हें पता है कि लोहिया के भी आराध्य राम थे और कर्पूरी के भी। तो क्या इन अर्थों में यही नहीं माना जाना चाहिए कि चंद्रशेखर जैसे लोग समाजवादी भी नहीं हैं, बल्कि उनका अपना निजी एजेंडा है। वोट की फसल कटाई केंद्रित अपने एजेंडे पर काम करते हुए उन्हें जब भी मौका लगता है कि राम और रामचरित मानस पर सवाल उठाने से उन्हें राजनीतिक फायदा हो सकता है तो वे राम के नाम पर जहर उगलने की सफल कोशिश करने लगते हैं। इसके बाद विवाद खड़ा हो जाता है। विवाद की बुनियाद पर समाज में बंटवारा होता है और उस विभाजन का जो हिस्सा विरोध में खड़ा हो जाता है, वह चंद्रशेखर जैसे लोगों का राजनीतिक आधार बन जाते हैं।

  

आज के दौर में जिस तरह की वाम केंद्रित वैचारिकी काम कर रही है, उसमें रामचरित मानस को सवालों के घेरे में खड़ा करने और उसे सामाजिक वर्ण व्यवस्था में निचले पायदान वाली जातियों के विरोधी होने के लिए एक चौपाई का खूब इस्तेमाल किया जा रहा है। यह चौपाई है-

ढोल, गंवार, सूद्र, पसु, नारी। सकल ताड़न के अधिकारी।।

इस चौपाई का सीधा अर्थ जो लगाया जा रहा है, उसे समझाना यहां जरूरी नहीं है। इसका जो नकारात्मक भावार्थ इतना फैलाया गया है कि वह लोक में प्रचलित हो गया है। वाम वैचारिकी इसका सीधा-सीधा भावार्थ यही लगाते हैं कि तुलसीदास के मुताबिक, ढोलक, गंवार यानी अनपढ़ किस्म के लोग, शूद्र यानी सामाजिक तौर पर निचले तौर के लोग, पशु और स्त्रियां पीटने के ही अधिकारी होते हैं। लेकिन इसका प्रसंग का हवाला नहीं दिया जाता है। इस चौपाई के ठीक पहले की चौपाई और इसके प्रसंग को बड़ी चालाकी से वाम वैचारिकी ने विमर्श में आने ही नहीं दिया। यह चौपाई लंका कांड का है, जब राम समुद्र से रास्ता मांगते-मांगते थक जाते हैं और समुद्र अपने अहंकार से बाज नहीं आता तो क्रोधित राम समुद्र को ही नष्ट करने के लिए प्रत्यंचा चढ़ा लेते हैं। उसके बाद समुद्र खुद प्रगट होता है और जो कहता है, तुलसीदास ने इस प्रसंग में लंबा लिखा है। लेकिन इस कुचर्चित चौपाई के ठीक पहले की चौपाई पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। तुलसी ने लिखा है-

प्रभु भल कीन्हीं, मोहि सीख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं।।

समुद्र विनीत भाव से राम को प्रसन्न करते हुए कह रहा है कि प्रभु आपने अच्छी सीख मुझे दी है, जिससे मैंने मर्यादा को समझा। इसके बाद वह कहता है, कि ढोल, गंवार यानी अनपढ़, शूद्र, जानवर और स्त्रियां हमेशा ध्यान की मांग करती हैं...यानी वे गलत ना कर सकें, इसलिए उन पर निगाह रखनी चाहिए और उनका ध्यान रखना चाहिए। मनुष्य अपने बच्चों का, अपने परिवार का ध्यान रखता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह उसे लगातार पीटता रहता है, बल्कि उसे सचेत करता रहता है। बहरहाल वाम वैचारिकी ने सिर्फ एक शब्द ताड़न को ले लिया और उसके बहाने पूरी सांस्कृतिक परंपरा को ही तहस-नहस कर दिया। जबकि ऐसा नहीं है। ताड़न शब्द कुछ जगहों पर ध्यान देने के अर्थ में आता है तो कुछ इलाकों में गहरी नजर रखने के तो कई बार पीटने और दंडित करने के अर्थ में आता है। लेकिन हमारी वैचारिकी के लोग भाषा के इस गुण को समझे बिना सिर्फ एक अर्थ में ले लेते हैं और लोगों को गुमराह करते हैं।

हिंदी में एक शब्द है दारूण...एक रचना है, 

जाको प्रभु दारूण दुख दीन्हां, वाकी मति पहिले हरि लीन्हा...

भावार्थ है कि ईश्वर जिसको दारूण यानी भयंकर कष्ट देने वाला होता है तो उसकी बुद्धि पहले ही भ्रष्ट कर देता है...

लेकिन बांग्ला में यही दारूण शब्द सकारात्मक भाव देता है...बंगाली समुदाय बोलता है...कि दारूण चटनी..यानी जबर्दस्त स्वादिष्ट चटनी...भाषा सिर्फ अर्थ नहीं देती, वह भाव भी देती है।

वैसे रामचरित मानस में कई ऐसे प्रसंग हैं, जिनका उल्लेख वाम वैचारिकी कभी नहीं करेगी। क्योंकि इसमें सनातन की प्रतिष्ठा है, सामाजिक सौहार्द का वर्णन है।

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राम चरित मानस का एक प्रसंग यहां याद किया जाना चाहिए...

सीता का हरण हो चुका है..जंगल-जंगल राम सीता को ढूंढ़ रहे हैं...वे इतने विचलित हैं कि वे पक्षियों, जंगली जानवरों भंवरे और मधु मक्खियों तक से पूछते हैं..

हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी...तुम देखी सीता मृगनयनी...

तुलसी का धीरोदात्त नायक कैसा है...मर्यादा पुरूषोत्तम राम अपनी प्रिया के वियोग में इतना विह्वल है कि वह जंगली जानवर, पक्षी, भंवरा, पर्वत की चोटियां आदि से संवाद करता है और अपनी प्रिया के बारे में पूछता है...अगर तुलसी सचमुच शूद्र विरोधी होते, मर्यादाहीन होते या उनकी सोच वैसी होती, जैसी वाम वैचारिकी स्थापित करती रही है, जिसके प्रतिनिधि के तौर पर चंद्रशेखर जैसे प्रतिष्ठित राजनेता सामने आ जाते हैं, क्या अपने राम के लिए ऐसा लिखते? सीता हरण के बाद का ही एक और प्रसंग दृष्टव्य है। सीता नहीं मिल पाई हैं..इस बीच सावन आ गया है..एक रात को बादलों की गड़गड़ाहट के बीच तेज बारिश होने लगती है...राम अपने अनुज लक्ष्मण से बोलते हैं-

घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रियाहीन मन डरपत मोरा।।

तुलसी का राम बारिश की अंधेरी रात में बादलों के गर्जन के बीच प्रिया का साथ नहीं होने से डर रहा है...क्या राम स्त्री विरोधी होते या तुलसी का ऐसा नजरिया होता तो ऐसे प्रसंग राम चरित मानस का धीरोदात्त नायक पर रचा जाता?

तुलसी, उनकी सामाजिक दृष्टि को समझना हो तो शर्बरी का प्रकरण देखिए..शर्बरी क्या है...वह भी दलित और वंचित समुदाय से आती हैं। अगर तुलसी का भाव शूद्रों को प्रताड़ित करने वाला होता तो क्या शर्बरी प्रसंग यूं आता, जैसे रामचरित मानस में आता...क्या ऐसा संभव है कि लोक के कवि के भाव बदल जाते..

शर्बरी प्रसंग को देखिए..विनीत शर्बरी के भावों को तुलसी शब्द देते हैं-

केहि विधि अस्तुति करौ तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी।।

 

यानी मैं आपकी किस तरह अभ्यर्थना और स्वागत करूं..मैं तो जाति से अधम हूं और महामूर्ख हूं।

इस पर तुलसी के राम का जवाब ही साबित करने के लिए काफी है कि तुलसी की दृष्टि कैसी थी। तुलसी अपने आराध्य राम से कहलवाते हैं-

कह रघुपति सुनु भामिनी बाता। मानउँ एक भगति कर नाता।।

जाति पाति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।

भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।।

यानी शर्बरी तुम सुनो, एक मैं एक ही रिश्ता मानता हूं...और वह है भक्ति का.. जाति, पाँति, कुल, धर्म, प्रशंसा, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुराई, इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य ऐसा लगता है, जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) दिखाई पड़ता है।

अगर तुलसी ताड़न यानी प्रताड़ना के पक्षधर होते तो क्या वे शर्बरी प्रकरण में ऐसा लिखते...

वन गमन की राह में भगवान राम मंदाकिनी नदी पार करने वाले हैं। वहां निषाद राज उनका पैर धोने पर तुल गए हैं...और भगवान राम इससे बच रहे हैं। उस समय का संवाद देखिए...तुलसी को समझने का सूत्र मिलेगा।

राम के दौर में वशिष्ठ से बड़ा कोई नहीं था..

बड़ बशिष्ठ सम नहीं जग माही

तुलसी के राम चरित मानस में दशरथ के निधन के बाद राम को वन से लौटाने जा रहे महर्षि वशिष्ठ को मंदाकिनी के तट परजैसे पता चलता है कि निषाद राम के मित्र हैं तो वे उन्हें तत्काल गले लगा लेते हैं। अगर तुलसी में छूआछूत होता, ताड़न के अभिधार्थ पर ही उनका जोर होता तो क्या संभव था कि उनके रामचरित मानस के ऋषि वशिष्ठ निषाद राज को गले लगा लेते। निषाद को वशिष्ठ द्वारा गले लगाना क्या संदेश देता है।

तुलसी के राम कैसे हैं, हकीकत तो यह है कि राम के जरिए तुलसी अपनी सोच ही जाहिर करते हैं। निषाद प्रकरण में ही देखिए...

राम चित्रकूट पहुंच रहे हैं। वहां के कोल-किरात के प्रति भी उनका स्नेह उसी प्रकार है, जैसे अपने मित्रों और परिजनों से रहा। तुलसी लिखते हैं कि राम के सहज प्रेम के कारण कोल-किरात भी उनके प्रति अगाध स्नेह रखते हैं।

यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। 

हरषे जनु नव निधि घर आई।

कंद मूल फल भरि-भरि दोना। 

चले रंक जनु लूटन सोना।।’’

यानी जैसे ही कोल-किरातों को पता चला कि राम चित्रकूट आ चुके हैं, तो उनमें ऐसी प्रसन्नता छा जाती है, मानो उनके घर में नई निधि आ गई हो। पत्तों के दोने में कंद-मूल और फल भर कर राम से मिलने वे ऐसे पहुंचे, मानों वे सोना लूटने जा रहे हों।

जरा इस दृश्य को देखिए...शूद्र को ताड़न की दृष्टि क्या तुलसी को ऐसा लिखने के लिए प्रेरित कर सकती थी।

सामाजिक समरसता के ऐसे तमाम प्रसंग रामचरित मानस में जगह-जगह मिलेंगे। ऐसा ही एक प्रसंग है राम के विवाह के अवसर का। राम के विवाह में शामिल होने के लिए देवराज इंद्र की अगुआई में देवताओं की मंडली जनकपुर पहुंचती है। जैसे ही यह मंडली नगर में प्रवेश करती है तो उसे एक खूबसूरत आलीशान महल दिखता है। देवताओं के साथ ही अयोध्यावासी बाराती भी सोचने लगते हैं कि यह महल निश्चित तौर पर महाराज जनक का होगा। इंद्र सबको लेकर महल के अहाते में घुसने लगते हैं। तभी एक बुजुर्ग उन्हें रोकता है और बताता है कि राजमहल तो आगे है। इंद्र भौंचक्क रह जाते हैं और पूछते हैं कि यह महल किसका है? पता चलता है कि यह महल वहां के मेहतर यानी सफाईकर्मी का है। तुलसी इसे लेकर लिखते हैं-

जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुर नायक मोहा।।

यानी जो संपदा समाज के सबसे निचले पायदान वाले व्यक्ति के निवास की शोभा बढ़ा रही है, उसे देख ऐश्वर्यशाली देवताओं के राजा इंद्र भी मोहित हो गए है। सवाल यह है कि तुलसी ऐसा दृश्य रचकर क्या संदेश देना चाहते हैं। जिस तुलसी के नायक राम को अपनी पत्नी का वियोग नहीं सहन होता, जो शर्बरी के झूठे बेर खाने से परहेज नहीं करता, जिसका मित्र निषाद राज है, जो लोक मान्यता के चलते अपनी उस प्यारी पत्नी का भी त्याग कर देता है, जिसके हरण के बाद वह वन में रोता है, बादलों वाली रात को डरता है, जिसके लिए विश्व विजयी रावण को हराता है, ऐसे तुलसी और राम पर सवाल उठाते वक्त लोगों का ध्यान इन प्रसंगों पर क्यों नहीं जाता, यह चिंतन का विषय है।

तुलसी की रचना दृष्टि क्या थी, इसे समझने के लिए उनके ही शब्दों को ही देखना चाहिए। तुलसी ने लिखा है, उनका रचना विषयक दृष्टिकोण बडा़ व्यापक था-

कीरति भनिति भूति भली सोई। सुरसरि सम सब कह हित सोई।।

यानी यश, रचना और संपदा वही अच्छी होती है, जो गंगा की तरह सबका भला करती है। 

तुलसी प्रजा उपासक कैसे थे, इसे उनकी रचना में ही देखा जा सकता है, उन्होंने लिखा है,

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।

यानी जिस राजा के राज्य में प्रजा कष्ट में हो, वह राजा अवश्य नरक में जाता है। 

समाजवाद के प्रखर विचारक और लोहिया के शिष्य किशन पटनायक ने भारतीय बुद्धिजीवियों के लिए लिखा है कि उनकी दृष्टि पाश्चात्यमुखी है और उन्हें अपना सब कुछ खराब ही लगता है। समाजवाद के चिर विद्रोही लोहिया भारतीय सनातन धारा के प्रति कैसा भाव रखते थे, इसे समझने के लिए उनका निबंध राम, कृष्ण और शिव पढ़ना चाहिए। उन्होंने रामायण मेला लगाना शुरू किया। हैदराबाद में बद्रीविशाल पित्ती के घर पर मिले मकबूल फिदा हुसैन को रामायण पर पेंटिंग बनाने की प्रेरणा लोहिया ही देते हैं। यह बात और है कि बाद में मकबूल नंग-वृत्तांत में प्रवीण होते चले गए। चंद्रशेखर जैसे लोग हों या उनका दल, वे लोग समाजवाद का ढोल भी सिर्फ इसलिए पीटते हैं, क्योंकि उन्हें वोट और सत्ता चाहिए। उनका समाजवाद लोहिया का समाजवाद नहीं है, बल्कि वह किशन पटनायक द्वारा इंगित पश्चिमोन्मुखी सनातन विरोधी समाजवाद है। उन्हें तुलसी के बारे में या तो पता नहीं है या फिर वे जानबूझकर उनकी रचनाधर्मिता को जाति और वर्ग के खांचे में बांध कर रखते हैं।

कुछ साल पहले एक बौद्धिक ने गीता प्रेस को हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता बढ़ाने का तर्क देते हुए किताब ही लिख डाली थी। भारतीय बुद्धिजीवी और आज की राजनीति के एक बड़े वर्ग को सनातन परंपरा को गाली देना फैशन लगता है। इसके लिए वे तर्क भी गढ़ती है। इसके जरिए वे वितंडा फैलाते हैं, भ्रम का साम्राज्य खड़ा करते हैं और समाज को बांटते हैं। जबकि वास्तविकता इससे कोसों दूर होती है। बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर के बयान को भी इन्हीं अर्थों में देखा और समझा जाना चाहिए।

-उमेश चतुर्वेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं

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