- |
- |
लगातार बढ़ रहा है देश का विदेशी मुद्रा भंडार
- प्रह्लाद सबनानी
- नवंबर 7, 2019 12:30
- Like

देश का विदेशी व्यापार घाटा अगस्त 2019 माह के 1,350 करोड़ अमेरिकी डॉलर से घटकर सितम्बर 2019 माह में 1,090 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया जो कि सितम्बर 2018 माह में 1,280 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा था।
दिनांक 25 अक्टूबर 2019 को समाप्त सप्ताह में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 180 करोड़ अमेरिकी डॉलर की वृद्धि दर्ज करते हुए 44,260 करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुँच गया। दिनांक 20 सितम्बर 2019 के बाद से लगातार 6 सप्ताह से विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि दृष्टिगोचर हो रही है। दिनांक 26 अक्टूबर 2018 को देश का विदेशी मुद्रा भंडार 39,210 करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर पर था। अर्थात, इस एक वर्ष के दौरान देश के विदेशी मुद्रा भंडार में 5,050 करोड़ अमेरिकी डॉलर की वृद्धि दर्ज की गई है। देश के विदेशी मुद्रा भंडार में पिछले 6 सप्ताहों से लगातार हो रही वृद्धि देश की अर्थव्यवस्था के लिए एक शुभ संकेत माना जा सकता है। क्योंकि, देश के विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि कई कारणों के चलते हो सकती है। जैसे, देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की आवक बढ़ रही है, देश के विदेशी व्यापार घाटे में कमी हो रही है, देश का निर्यात बढ़ रहा है, देश का आयात कम हो रहा है, देश के पूँजी बाज़ार में विदेशी निवेश बढ़ रहा है, आदि। उक्त वर्णित समस्त कारकों को देश की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छे संकेत के तौर पर माना जा सकता है।
इसे भी पढ़ें: अहिंसा के पुजारी आचार्य विनोबा भावे गांधीजी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी रहे
देश का विदेशी व्यापार घाटा अगस्त 2019 माह के 1,350 करोड़ अमेरिकी डॉलर से घटकर सितम्बर 2019 माह में 1,090 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया जो कि सितम्बर 2018 माह में 1,280 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा था। अर्थात, देश का विदेशी व्यापार घाटा लगातार कम हो रहा है। दूसरी ओर, देश के शेयर बाज़ार में विदेशी संस्थागत निवेश की राशि वर्ष 2019 में दिनांक 5 नवम्बर 2019 तक 1,687 करोड़ अमेरिकी डॉलर का आँकड़ा छू चुकी है और यह निवेश की राशि लगातार आगे बढ़ रही है। देश के शेयर बाज़ार में विदेशी संस्थागत निवेश के बढ़ने से शेयर बाज़ार भी अब लगातार नई ऊँचाइयों को छू रहा है। मुंबई स्टॉक एक्सचेंज का सेन्सेक्स 40,000 के आँकड़े को पार करते हुए दिनांक 5 नवम्बर 2019 को 40,248 के स्तर पर पहुँच गया। इसी प्रकार, नेशनल स्टॉक एक्सचेंज का निफ़्टी भी 11,900 के स्तर को पार करते हुए दिनांक 5 नवम्बर 2019 को 11,917 के स्तर पर बंद हुआ। तीसरे, देश के विदेशी मुद्रा भंडार में हो रही लगातार वृद्धि के चलते रुपया मज़बूत हो रहा है। दिनांक 5 नवम्बर 2019 को अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले रुपए की क़ीमत मज़बूत होकर रुपए 70.69 प्रति डॉलर के स्तर पर पहुँच गई। उक्त वर्णित सभी कारणों के चलते देश में तरलता की स्थिति में काफ़ी सुधार देखने में आ रहा है। दिनांक 5 नवम्बर 2019 को भारतीय रिज़र्व बैंक ने तरलता समायोजन सुविधा के माध्यम से रुपए 2,35,100 करोड़ की तरलता को अवशोषित किया।
अभी आगे आने वाले समय में देश के विदेशी मुद्रा भंडार में और तेज़ वृद्धि दृष्टिगोचर हो सकती है क्योंकि कई विदेशी कम्पनियों ने भारत में अपनी विदेशी निवेश सम्बंधी घोषणाएँ की हैं। जैसे, सऊदी अरब सरकार ने भारत में 10,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर के निवेश की घोषणा की है। विश्व बैंक की निवेश इकाई, अंतरराष्ट्रीय वित्त निगम, ने वर्ष 2022 तक भारत में अक्षय ऊर्जा कार्यक्रम लागू करने हेतु, 600 करोड़ डॉलर के निवेश की योजना बनाई है। वीएमवेयर, एक अमेरिकी प्रमुख साफ़्टवेयर कम्पनी ने 200 करोड़ अमेरिकी डॉलर के निवेश की योजना बनाई है। आईकीआ नामक कम्पनी भारत में अपने स्टोर्स स्थापित करने के लिए 61.20 करोड़ अमेरिकी डॉलर का निवेश करने जा रही है। वारबर्ग पिनकस नामक एम अमेरिकी कम्पनी, भारती एयरटेल की डीटीएच विंग में, 35 करोड़ अमेरिकी डॉलर का निवेश कर 20 प्रतिशत की हिस्सेदारी ख़रीदने जा रही है। सऊदी आरमको नामक कम्पनी रीलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड में 7,500 करोड़ अमेरिकी डॉलर का निवेश कर 20 प्रतिशत की हिस्सेदारी ख़रीदने जा रही है। साथ ही, कई अमेरिकी कम्पनियां, चीन एवं अमेरिका के बीच व्यापार युद्ध के चलते, चीन से अपनी विनिर्माण इकाइयों को भारत में स्थानांतरित करने की योजना बना रही हैं।
इसे भी पढ़ें: कश्मीर में मोबाइल की घंटी बजते ही बढ़ने लगे आतंकवादी हमले
विभिन्न देशों को विदेशी मुद्रा में लिए गए ऋणों पर ब्याज एवं इन ऋणों की अदायगी हेतु तथा विदेशों से आयात की गई वस्तुओं के भुगतान हेतु विदेशी मुद्रा की आवश्यकता होती है और इन्हीं कारणों के चलते विदेशी मुद्रा भंडार रखना पड़ता है। यह विदेशी मुद्रा भंडार विदेशी बैंक नोट, विदेशी बैंकों में जमाराशि, विदेशी ट्रेज़री बिल और अन्य अल्पकालिक विदेशी सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश, सोने के भंडार एवं विशेष आहरण अधिकार (एसडीआर) और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के पास जमा राशि के रूप में रखा जाता है। विदेशी मुद्रा भंडार का निवेश अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इस प्रकार से किया जाना चाहिए ताकि देश को इस प्रकार के निवेश पर अधिक से अधिक आय की प्राप्ति हो सके। अब, भारत में भी चूँकि विदेशी मुद्रा भंडार नित नई उचाईयाँ छू रहा है अतः इसके उचित निवेश पर देश को अधिकतम आय हो सके इस बात का ध्यान रखना भी अति आवश्यक हो गया है।
अंत में अब यह कहा जा सकता है कि देश के विदेशी मुद्रा भंडार में लगातार हो रही वृद्धि, देश की अर्थव्यवस्था के मज़बूती के साथ आगे बढ़ने का संकेत है।
प्रह्लाद सबनानी
उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव एक बार फिर मोदी के नाम पर लड़ सकती है भाजपा
- अजय कुमार
- जनवरी 19, 2021 14:33
- Like

परिस्थितियां भाजपा के लिए जितनी भी अनुकूल क्यों न हों, लेकिन सियासी पिच पर कब कौन कैसा ‘बांउसर’ फेंक दे कोई नहीं जानता है। इसीलिए आलाकमान यूपी पर पूरी तवज्जो दे रहा है। आलाकमान जानता है कि जब तक यूपी सुरक्षित है तभी तक दिल्ली का ‘ताज’ बचा रह सकता है।
उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष विधान सभा चुनाव होने हैं। बीजेपी सत्ता में रिटर्न होगी या फिर हमेशा की तरह यूपी के मतदाता इस बार भी ‘बदलाव’ की बयार बहाने की परम्परा को कायम रखेंगे ? अथवा 2017 की तरह मोदी का जादू फिर चलेगा। यह सवाल सबके जहन में कौंध रहा है। बस फर्क इतना है कि पिछली बार बीजेपी, मायावती-अखिलेश सरकार की खामियां गिना और वोटरों को सब्जबाग दिखाकर सत्ता में आई थी। वहीं अबकी से उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार को पांच साल का हिसाब-किताब देना होगा। ‘बीजेपी सरकार’ की बात इसलिए कही जा रही है क्योंकि 2017 का विधानसभा चुनाव बीजेपी बिना मुख्यमंत्री का चेहरा आगे किए मोदी के चेहरे पर लड़ी थी। योगी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला तो अप्रत्याशित रूप से चुनाव जीतने के बाद लिया गया था। मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी की भले ही चौतरफा तारीफ हो रही हो, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि योगी अपने बल पर बीजेपी को 2022 का विधानसभा चुनाव जिता ले जाने में पूरी तरह से सक्षम हैं।
इसे भी पढ़ें: गाँव-गाँव में पार्टी की मजबूती के लिए भाजपा ने बनाया मेगा प्लान
यह और बात है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में परिस्थितियां एकदम बदली नजर आ रही हैं, जो भाजपा के सबसे अधिक अनुकूल नजर आ रही है। 2017 के विधानसभा चुनाव के समय की ‘यूपी को यह साथ पसंद है’ वाली राहुल-अखिलेश की जोड़ी टूट चुकी है। वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में चर्चा का विषय रही बुआ-बबुआ के रिश्तों में ‘टूट’ पैदा हो गई है। मायावती ने तो अपने 65वें जन्मदिन (15 जनवरी 2021 का) पर यहां तक ऐलान तक कर दिया कि 2022 में यूपी और उत्तराखंड के चुनाव में उनकी पार्टी अकेले लड़ते हुए 2007 की तरह 2022 में भी अपने दम पर सरकार बनाएगी। दरअसल, गठबंधन की सियासत में मायावती की समस्या कुछ अलक किस्म की ही है। बसपा जिस पार्टी के साथ गठबंधन करती है, उस पार्टी के पक्ष में बसपा के वोट तो आसानी से ट्रांसफर हो जाते हैं, लेकिन गठबंधन की अन्य पार्टी के वोटर बसपा के लिए वोटिंग करने की जगह दूसरी राह पकड़ लेते हैं
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव की बात की जाए तो वह इसी बात से संतुष्ट नजर आ रहे हैं कि उप-चुनावों में उनकी ही पार्टी भाजपा को चुनौती दे रही है। यानी सपा चुनाव जीत नहीं पाती है तो दूसरे नंबर पर तो रहती ही है। इसी को अखिलेश अपनी ताकत समझते हैं, जिस तरह से एक के बाद एक बसपा नेता हाथी से उतर कर साइकिल पर सवार हो रहे हैं उससे भी अखिलेश का हौसला बढ़ा हुआ है। सपा प्रमुख को सबसे अधिक मुस्लिम वोट बैंक पर भरोसा है, लेकिन जिस तरह से मात्र दलित वोट बैंक के सहारे बसपा सुप्रीमो मायावती सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने में नाकामयाब रहती हैं, उसी प्रकार से सपा सिर्फ मुसलमानों के सहारे अपनी चुनावी वैतरणी पार करने में नाकाम रहती है। बात वोट बैंक में सेंधमारी की कि जाए तो भीम सेना की नजर बसपा के दलित वोट बैंक में सेंधमारी की रहती है, वहीं ओवैसी, समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोट बैंक में हिस्सेदारी करने को आतुर हैं। कुछ सीटों पर जहां बसपा मुस्लिम प्रत्याशी उतारती है, वहां उसके (बसपा) भी पक्ष में मुसलमान लामबंद होने से गुरेज नहीं करते हैं।
हाँ, इस बार के विधानसभा चुनाव के लिए आम आदमी पार्टी और ओवैसी के ताल ठोंकने से सियासत का रंग कुछ चटक जरूर हुआ है, लेकिन यह पार्टियां क्या गुल खिला पायेंगी, यह सब भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है। जहां तक ओवैसी की पार्टी की बात है तो उसके कूदने से समाजवादी पार्टी को ज्यादा नुकसान होता दिख रहा है। अपने पहले दौरे के दौरान ओवैसी ने समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव पर तीखा हमला बोलकर अपने इरादे भी स्पष्ट कर दिए हैं।
ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने वाराणसी पहुंचते ही मीडिया से बातचीत में तंज कसते हुए कहा कि प्रदेश में जब अखिलेश यादव की सरकार की थी तो हमें 12 बार प्रदेश में आने से रोका गया था। अब मैं आ गया हूं। सुभासपा के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर के साथ गठबंधन किया है, मैं दोस्ती निभाने आया हूं। ज्ञातव्य हो कि सुभासपा ने 2017 में भाजपा से यूपी विधानसभा चुनाव के लिए गठबंधन किया था। अजगरा विधानसभा क्षेत्र में संयुक्त रैली में गठबंधन की घोषणा के बाद विधानसभा चुनाव में पूर्वांचल की कई सीटों पर बंटवारा हुआ था। मगर, वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद यह गठबंधन टूट गया। इसके बाद से ही सुभासपा नए साथियों के साथ अपनी सियासत को पूर्वांचल में मजबूत करने की कोशिश में जुटी है। इसी क्रम में राजभर ने ओवैसी से सियासी दोस्ती की है।
इसे भी पढ़ें: अयोध्या में बन रहा भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर राष्ट्र मंदिर के रूप में भी जाना जायेगा
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस भी एक ‘कोण’ बनना चाहती है। याद कीजिए जब 2019 के लोकसभा चुनाव के समय उत्तर प्रदेश कांग्रेस की जिम्मेदारी प्रियंका वाड्रा ने संभाली थी, तब राहुल गांधी ने मीडिया से कहा भी था कि हमारी नजर 2022 के विधानसभा चुनाव पर है। 2022 के विधानसभा चुनाव में अब साल भर से कुछ ही अधिक का समय बचा है, लेकिन पिछले डेढ़-दो वर्षों में कांग्रेस की दिशा-दशा में कोई खास बदलाव आया हो, ऐसा दिखाई नहीं देता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस मात्र रायबरेली संसदीय सीट जीत पाई थी, जहां से यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी स्वयं मैदान में थीं। राहुल तक अमेठी से चुनाव हार गए थे। इसके बाद तो राहुल गांधी ने यूपी की तरफ से मुंह ही फेर लिया। इतना ही नहीं लोकसभा चुनाव के पश्चात हुए तमाम उप-चुनावों में भी कांग्रेस की ‘लुटिया’ बार-बार डूबती रही। अपवाद को छोड़कर प्रत्येक उप-चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी जमानत तक नहीं बचा पाए। अबकी बार भी कांग्रेस से कोई भी दल गठबंधन को तैयार नहीं है।
बहरहाल, परिस्थितियां भाजपा के लिए जितनी भी अनुकूल क्यों न हों, लेकिन सियासी पिच पर कब कौन कैसा ‘बांउसर’ फेंक दे कोई नहीं जानता है। इसीलिए भाजपा आलाकमान यूपी पर पूरी तवज्जो दे रहा है। आलाकमान जानता है कि जब तक यूपी सुरक्षित है तभी तक दिल्ली का ‘ताज’ बचा रह सकता है। चुनाव चाहे 2014 के हों या फिर 2019 के लोकसभा चुनाव, दिल्ली में मोदी सरकार इसीलिए बन पाई क्योंकि यूपी में भाजपा का प्रदर्शन काफी बेहतर रहा था और इसका सारा श्रेय मोदी को जाता है। संभवतः अबकी बार भी बीजेपी आलाकमान कोई नया प्रयोग करने की बजाए मोदी को ही आगे करके चुनाव लड़ेगा। योगी की भूमिका भी महत्वपूर्ण रहेगी, लेकिन कितनी यह भविष्य के गर्भ में छिपा है।
जिस तरह से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से साल भर पहले गुजरात कैडर के 1988 बैच के सेवानिवृत्त आईएएस रहे अरविंद कुमार शर्मा को भाजपा में शामिल करके उत्तर प्रदेश विधान परिषद चुनाव के लिए मैदान में उतारा गया है, वह काफी कुछ कहता है। मूलतः मऊ के निवासी अरविंद कुमार शर्मा 20 साल तक नरेंद्र मोदी के साथ काम कर चुके हैं। अरविंद के बारे में चर्चा जोरों पर है कि उन्हें जल्द ही योगी कैबिनेट में महत्वपूर्ण स्थान दिया जा सकता है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि अरविंद मौजूदा डिप्टी सीएम डॉ. दिनेश शर्मा की जगह नये डिप्टी सीएम हो सकते हैं। दिनेश शर्मा के बारे में आलाकमान को अच्छी रिपोर्ट नहीं मिल रही है। दिनेश शर्मा की ईमानदारी पर तो किसी को संदेह नहीं है, लेकिन वह जनहित के काम नहीं कर पा रहे हैं। फिलहाल अरविंद मुंह खोलने को तैयार नहीं हैं। वह इतना ही कह रहे हैं कि सीएम-पीएम और पार्टी जो भी दायित्व देंगे, उसे स्वीकार कर खरा उतरने का प्रयास करूंगा। अरविंद शर्मा की हैसियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सियासत में आए हुए अरविंद को 24 घंटे भी नहीं हुए थे, लेकिन पीएम मोदी के करीबी होने के नाते यूपी के भाजपाई उनसे मिलने और संपर्क तलाशने में जुट गए। पार्टी कार्यालय से लेकर कई चौराहों पर एके शर्मा के भाजपा में स्वागत के होर्डिंग्स टंग गए। उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य सहित कई नेताओं ने भी ट्वीट कर पार्टी में स्वागत किया। इससे पहले गुजरात की मुख्यमंत्री रह चुकीं और मोदी की काफी करीबी नेता आनंदी बेन पटेल को यूपी का राज्यपाल बनाकर भेजा गया था।
-अजय कुमार
Related Topics
up bjp arvind kumar sharma dinesh sharma yogi adityanath owaisi narendra modi uttar pradesh polls 2022 uttar pradesh vidhan sabha chunav 2022 om prakash rajbhar mayawati akhilesh yadav samajwadi party bsp up congress अरविंद कुमार शर्मा डॉ. दिनेश शर्मा योगी आदित्यनाथ योगी सरकार उत्तर प्रदेश भाजपा मोदी सरकार नरेंद्र मोदी योगी सरकार ओवैसी ओमप्रकाश राजभर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव अखिलेश यादव प्रियंका वाड्रादमघोंटू प्रदूषण की चादर में लिपटी हुई है दिल्ली, मगर सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ता
- ललित गर्ग
- जनवरी 18, 2021 16:44
- Like

इन दिनों दिल्ली में तेज हवा की वजह से पारे में तेज गिरावट तो आई और उससे ठंड की तस्वीर और बिगड़ी, मगर उससे हवा के साफ होने की भी गुंजाइश बनी थी। अब एक बार फिर दिल्ली में कोहरे या धुंध की हालत बनने के साथ वायुमंडल के घनीभूत होने की हालात पैदा हो गई है।
कहते हैं जान है तो जहान है, लेकिन दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण के कारण जान और जहान दोनों ही खतरे में हैं। दिल्ली की हवा में घुलते प्रदूषण का ‘जहर’ लगातार खतरनाक स्थिति में बना होना चिन्ता का बड़ा कारण है। प्रदूषण की अनेक बंदिशों एवं हिदायतों के बावजूद प्रदूषण नियंत्रण की बात खोखली साबित हुई। यह कैसी शासन-व्यवस्था है? यह कैसा अदालतों की अवमानना का मामला है? यह सभ्यता की निचली सीढ़ी है, जहां तनाव-ठहराव की स्थितियों के बीच हर व्यक्ति, शासन-प्रशासन प्रदूषण नियंत्रण के अपने दायित्वों से दूर होता जा रहा है। यह कैसा समाज है जहां व्यक्ति के लिए पर्यावरण, अपना स्वास्थ्य या दूसरों की सुविधा-असुविधा का कोई अर्थ नहीं है। जीवन-शैली ऐसी बन गयी है कि आदमी जीने के लिये सब कुछ करने लगा पर खुद जीने का अर्थ ही भूल गया, यही कारण है दिल्ली की जिन्दगी विषमताओं और विसंगतियों से घिरी होकर कहीं से रोशनी की उम्मीद दिखाई नहीं देती। क्यों आदमी मृत्यु से नहीं डर रहा है? क्यों भयभीत नहीं है? दिल्ली की जनता दुख, दर्द और संवेदनहीनता के जटिल दौर से रूबरू है, प्रदूषण जैसी समस्याएं नये-नये मुखौटे ओढ़कर डराती हैं, भयभीत करती हैं।
इसे भी पढ़ें: साक्षात्कारः पर्यावरणविद् सुनीता नारायण ने बताये प्रदूषण से निजात के उपाय
मालूम हो कि स्विस एयर क्वालिटी टेक्नोलॉजी कंपनी के मुताबिक भारत के तीन बड़े शहर- दिल्ली, कोलकाता और मुंबई दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में शामिल हैं जो कि एक चिंताजनक बात है। दिल्ली में प्रदूषण जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गयी है। हर कुछ समय बाद अलग-अलग वजहों से हवा की गुणवत्ता का स्तर ‘बेहद खराब’ की श्रेणी में दर्ज किया जाता है और सरकार की ओर से इस स्थिति में सुधार के लिए कई तरह के उपाय करने की घोषणा की जाती है। हो सकता है कि ऐसा होता भी हो, लेकिन सच यह है कि फिर कुछ समय बाद प्रदूषण का स्तर गहराने के साथ यह सवाल खड़ा होता है कि आखिर इसकी असली जड़ क्या है और क्या सरकार की कोशिशें सही दिशा में हो पा रही हैं। इस विकट समस्या से मुक्ति के लिये ठोस कदम उठाने होंगे। दिल्ली की सामाजिक संरचना में बहुत कुछ बदला है, मूल्य, विचार, जीवन-शैली, वास्तुशिल्प, पर्यावरण सब में परिवर्तन है। आदमी ने जमीं को इतनी ऊंची दीवारों से घेर कर तंगदील बना दिया कि धूप और प्रकाश तो क्या, जीवन-हवा को भी भीतर आने के लिये रास्ते ढूंढ़ने पड़ते हैं। सुविधावाद हावी है तो कृत्रिम साधन नियति बन गये हैं। चारों तरफ भय एवं डर का माहौल है। यह भय केवल प्रदूषण से ही नहीं, भ्रष्टाचारियों से, अपराध को मंडित करने वालों से, सत्ता का दुरुपयोग करने वालों से एवं अपने दायित्व एवं जिम्मेदारी से मुंह फैरने वाले अधिकारियों से भी है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि हम अब भी ऐसे मुकाम पर हैं, जहां सड़क पर बाएं चलने या सार्वजनिक जगहों पर न थूकने जैसे कर्तव्यों की याद दिलाने के लिए भी पुलिस की जरूरत पड़ती है। जो पुलिस अपने चरित्र पर अनेक दाग ओढ़े हैं, भला कैसे अपने दायित्वों का ईमानदारी एवं जिम्मेदारी से निर्वाह करेगी?
इन दिनों दिल्ली में तेज हवा की वजह से पारे में तेज गिरावट तो आई और उससे ठंड की तस्वीर और बिगड़ी, मगर उससे हवा के साफ होने की भी गुंजाइश बनी थी। अब एक बार फिर दिल्ली में कोहरे या धुंध की हालत बनने के साथ वायुमंडल के घनीभूत होने की हालात पैदा हो गई है और इसमें प्रदूषण की मात्रा बढ़ गई है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तहत वायु गुणवत्ता और मौसम पर नजर रखने वाली संस्था ‘सफर’ ने जो ताजा आकलन जारी किया है, उसके मुताबिक दिल्ली में एक बार फिर प्रदूषण की स्थिति गंभीर होने वाली है। दरअसल, वायु की गुणवत्ता की कसौटी पर दिल्ली पहले भी अक्सर ही चिंताजनक हालत में रही है। ऐसे बहुत कम मौके आए, जब इसमें राहत महसूस की गई। पिछले साल पूर्णबंदी लागू होने के बाद जब वाहनों और औद्योगिक इकाइयों का संचालन नाममात्र का रह गया था, तब न सिर्फ वायु, बल्कि यमुना में भी प्रदूषण की समस्या में काफी सुधार देखा गया था। लेकिन उसके बाद पूर्णबंदी में क्रमशः ढिलाई के साथ-साथ जब आम जनजीवन सामान्य होने लगा है, तब धुएं और धूल के हवा में घुलने के साथ ही प्रदूषण ने फिर से अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है।
‘सफर’ के ताजा आकलन के मुताबिक दिल्ली में वायु गुणवत्ता का स्तर 431 अंकों तक पहुंच गया। गौरतलब है कि वायु गुणवत्ता का यह स्तर ‘गंभीर श्रेणी’ में माना जाता है और यह आम लोगों में सांस से संबंधित कई तरह की दिक्कतों के लिहाज से जोखिम की स्थिति है। ज्यादा चिंताजनक यह है कि इसमें अगले कुछ दिनों तक और गिरावट आने की आशंका जताई गई है। ‘सफर’ के अनुसार वायु गुणवत्ता का स्तर 469 अंक तक पहुंच सकता है। सारे कानून-कायदों, अदालती या सरकारी आदेशों और पुलिस की कवायद के बावजूद प्रदूषण दिल्ली में कम होने की बजाय बढ़ता जा रहा। वैसे भी, भारत दुनिया के चुनिंदा देशों में है जहां शायद सबसे अधिक कानून होंगे, लेकिन हम कितना कानून-पालन करने वाले समाज हैं, यह किसी से छिपा नहीं है।
इसे भी पढ़ें: वायु प्रदूषण अब नवजातों की मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण बन रहा है
यों इस मौसम में दिन की शुरूआत यानी सुबह के समय कोहरे या धुंध की चादर का घना होना कोई हैरानी की बात नहीं है। यह कड़ाके की ठंड के दिनों की एक खासियत भी है और विवशता भी। लेकिन मुश्किल यह है कि वायुमंडल के घनीभूत होने की वजह से जमीन से उठने वाली धूल और वाहनों से निकलने वाले धुएं के छंटने की गुंजाइश नहीं बन पाती है। नतीजतन, वायु में सूक्ष्म जहरीले तत्व घुलने लगते हैं और प्रदूषण के गहराने की दृष्टि से इसे खतरनाक माना जाता है। हमारा राष्ट्र एवं राजधानी नैतिक, आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक एवं व्यक्तिगत सभी क्षेत्रों में मनोबल के दिवालिएपन के कगार पर खड़ी है और हमारा नेतृत्व गौरवशाली परम्परा, विकास और हर प्रदूषण खतरों से मुकाबला करने के लिए तैयार है, का नारा देकर अपनी नेकनीयत का बखान करते रहते हैं। पर उनकी नेकनीयती की वास्तविकता किसी से भी छिपी नहीं है, देश की राजधानी और उसके आसपास जिस तरह प्रदूषण नियंत्रण की छीछालेदर होती रहती है, उससे यह सहज ही जाहिर हो गया है। बात सरकार की अक्षमता की नहीं है। उन कारणों की शिनाख्त करने की है, जिनके चलते एक आम नागरिक पर्यावरण या उसके अपने स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर मंडरा रहे खतरों के बावजूद लगातार उदासीन एवं लापरवाह क्यों होता जा रहा है।
दिल्ली में प्रदूषण को कम करने के मसले पर केंद्र और राज्य सरकारें लगातार बैठकें करती रही हैं, लेकिन प्रदूषण के स्तर में कोई खास कमी नहीं आई है। इस मुद्दे पर राजनीति भी खूब देखने को मिली। इस बीच लांसेट प्लैनेटरी हेल्थ पत्रिका की एक रिपोर्ट सामने आई है, जिसके मुताबिक वायु प्रदूषण का सबसे ज्यादा असर दिल्ली पर ही पड़ा है। इसके बाद नंबर आता है हरियाणा का। प्रदूषण के चलते साल 2019 में दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय में करीब 4,578 रुपये की गिरावट दर्ज की गई। वहीं, हरियाणा को प्रति व्यक्ति आय के रूप में करीब 3,973 रुपये का नुकसान हुआ। ऐसे में प्रदूषण की रोकथाम के लिए कड़े कदम उठाए जाने कि जरूरत बताई गई, जिसके बाद सीपीसीबी ने दिल्ली-एनसीआर में हॉट मिक्स प्लांट और स्टोन क्रशर पर 2 जनवरी 2021 तक के लिए बैन लगा दिया है। हालांकि, इससे कितना प्रदूषण कम होगा, ये आने वाला वक्त ही बताएगा।
फिलहाल दिल्ली में वायु प्रदूषण की स्थिति गंभीर होने की वजह साफ दिख रही है। विडंबना यह है कि जब भी प्रदूषण की समस्या खतरनाक हालत में पहुंचती है, तब सरकारें कुछ प्रतीकात्मक उपाय करके सब कुछ ठीक हो गया मान लेती हैं, लेकिन इस जटिल एवं जानलेवा समस्या का कोई ठोस उपाय सामने नहीं आता। मसलन, कुछ समय पहले दिल्ली में सरकार की ओर से प्रदूषण की समस्या पर काबू करने के मकसद से चौराहों पर लगी लालबत्ती पर वाहनों को बंद करने का अभियान चलाया गया था। सवाल है कि ऐसे प्रतीकात्मक उपायों से प्रदूषण की समस्या का कोई दीर्घकालिक और ठोस हल निकाला जा सकेगा।
-ललित गर्ग
Related Topics
Air quality Delhi Pollution Delhi AQI Delhi NCR Pollution Level Today Delhi air pollution Delhi air quality SAFAR Noida air quality Gurugram केजरीवाल सरकार वायु प्रदूषण दिल्ली में प्रदूषण दिल्ली एनसीआर दिल्ली समाचार एनसीआर समाचार वायु गुणवत्ता सीपीसीबी प्रदूषण नियंत्रण के उपाय दिल्ली की वायु गुणवत्ता प्रदूषण की समस्यासुरक्षा परिषद में मिला भारत को महत्वपूर्ण स्थान, आतंक पर पाक की कसेगी नकेल
- राकेश सैन
- जनवरी 16, 2021 14:53
- Like

पाकिस्तान के पूर्व सूचना मंत्री मुशाहिद हुसैन सैयद ने यह बात मानी है कि यह पाकिस्तान के लिए अच्छा समाचार नहीं है क्योंकि तालिबान सेंक्शन कमेटी और काउंटर टेररिज़्म कमेटी, जिसकी भारत 2022 में अध्यक्षता करेगा ये दोनों पाकिस्तान के मूलभूत हित हैं।
दिल्ली में चल रहे कथित किसान आंदोलन के नाम पर हो रही सस्ती राजनीति व मीडिया का पूरा ध्यान इस पर होने के कारण देशवासियों का ध्यान भारत को मिली अंतरराष्ट्रीय उपलब्धि पर नहीं गया कि दुनिया में बदलती परिस्थितियों के चलते पाकिस्तान का टेंटुआ अब भारत के हाथों में आता दिखाई दे रहा है। दुनिया में आतंकवाद, तालिबान का पोषण करने सहित अनेक मुद्दों पर फैसले करने में भारत की भूमिका महत्त्वपूर्ण होने जा रही है और पाकिस्तान पशोपेश में है कि नई परिस्थितियों से बचे तो बचे कैसे ? संयुक्त राष्ट्र में भारत के पास सुरक्षा परिषद् की तीन समितियों की अध्यक्षता का जिम्मा मिला है। इनमें तालिबान प्रतिबंध समिति (सेंक्शन कमेटी), आतंकरोधी समिति और लीबिया प्रतिबंध समिति शामिल हैं।
इसे भी पढ़ें: 2026 में होने वाले परिसीमन को देखते हुए नये संसद भवन का निर्माण जरूरी हो गया था
बीबीसी लंदन में सहर बलोच की रिपोर्ट के अनुसार, काउंटर टेररिज़्म और तालिबान सेंक्शन कमेटी दो ऐसे क्षेत्र हैं, जिनके तहत भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को परेशान कर सकता है और साथ ही उस पर और प्रतिबंध भी लगवा सकता है। तालिबान सेंक्शन कमेटी उन देशों की सूची तैयार करती है, जो तालिबान का आर्थिक रूप से समर्थन करते हैं, या उनके साथ किसी और तरह से सहयोग करते हैं। इसके आधार पर, दुनिया भर के 180 से अधिक देश अपने कानूनों में संशोधन करते हैं और उन लोगों के नाम को प्रतिबंधित संगठनों और व्यक्तियों की सूची में जोड़ दिया जाता है। इसके बाद उन पर मनी लॉन्ड्रिंग और वित्तीय सहायता पर बनने वाले कानून लागू होते हैं। संयुक्त राष्ट्र की इन कमेटियों के मामले आधिकारिक रूप से संचालित होते हैं और ये इन्हें लागू कराते आ रहे हैं।
जैसा कि सभी जानते हैं कि पाकिस्तान इस समय दो से तीन समस्याओं का सामना कर रहा है, उनमें से एक फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स यानी एफएटीएफ का आगामी ऑनलाइन सत्र है। यह टास्क फोर्स मनी लॉन्ड्रिंग और आतंकवादियों को वित्तीय सहायता की रोकथाम करने वाली एजेंसी है। अक्तूबर 2020 में पाकिस्तान ने एफएटीएफ की 27 सिफारिशों में से 21 को पूरा कर लिया था, लेकिन शेष छह सिफारिशों को टास्क फोर्स ने बहुत महत्वपूर्ण माना है। इसकी समय सीमा फरवरी 2021 में पूरी होगी। पाकिस्तान को भय है कि भारत अपनी पूरी ताकत लगा कर उसे एफएटीएफ की काली सूची में शामिल करवा सकता है। इसके तहत भारत पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सहायता भी रुकवा सकता है।
पाकिस्तान के पूर्व सूचना मंत्री मुशाहिद हुसैन सैयद ने इस पत्रकार को बताया कि यह पाकिस्तान के लिए अच्छा समाचार नहीं है क्योंकि तालिबान सेंक्शन कमेटी और काउंटर टेररिज़्म कमेटी, जिसकी भारत 2022 में अध्यक्षता करेगा ये दोनों पाकिस्तान के मूलभूत हित हैं। भारत इन दोनों मुद्दों पर पाकिस्तान का विरोध करता रहा है। अब भारत को पिछले दरवाजे से अफगान शांति प्रक्रिया में शामिल होने का मौका मिल गया है। अफगानिस्तान में पाकिस्तान ने एक तरफ अमेरिका और तालिबान के बीच और दूसरी तरफ अफगान सरकार और अफगान तालिबान के बीच, बातचीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत इन मूलभूत हितों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर सकता है।
इसे भी पढ़ें: वामपंथी नहीं चाहते भारत आगे बढ़े, पहले उद्योगों का विरोध किया और अब कृषि क्षेत्र के पीछे पड़े हैं
ज्ञात रहे कि साल 1996 में भारत ने कॉम्प्रिहेंसिव कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल टेरर के तहत आतंकवाद की वित्तीय सहायता और आतंकवाद की रोकथाम पर विस्तृत बात करने की कोशिश की थी और भारत एक बार फिर से इसे लागू कराने की पूरी कोशिश करेगा। तालिबान कमेटी पर संयुक्त राष्ट्र के गैरस्थायी सदस्य इन कमेटियों की अध्यक्षता करते आ रहे हैं, लेकिन सुरक्षा परिषद् भी अक्सर उन देशों को चुनती है जो पड़ोसी नहीं हैं और अकसर क्षेत्र के बाहर के देशों को अध्यक्षता करने का अवसर दिया जाता है। लेकिन अब जब भारत को तालिबान सेंक्शन कमेटी का अध्यक्ष चुना गया है यह भारत सरकार के लिए बहुत महत्वपूर्ण बात है।
चाहे देश का आंतरिक मामला हो या बाहरी आतंकवाद के मोर्चे पर भारत विशेषकर मोदी सरकार का बहुत सख्त दृष्टिकोण रहा है। मोदी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दुनिया को 'गुड टैरेरिज़्म-बैड टेरेरिज़्म' के बीच अंतर न करने व आतंकवाद की व्याख्या करने पर जोर देते रहे हैं। अभी पिछले साल 27 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र में अपने संबोधन के दौरान मोदी ने आतंकवाद को लेकर दुनिया को भारतीय दृष्टिकोण से अवगत करवाया था और आतंकवाद के स्रोत पर कार्रवाई की जरूरत पर जोर दिया था। पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राईक व एयर स्ट्राईक आदि बहुत-सी कार्रवाइयां हैं जो साबित करती हैं कि मोदी सरकार ने केवल ऐसा कहा ही नहीं बल्कि करके भी दिखाया है। अब कूटनीतिक क्षेत्र में भारत को जो सफलता हासिल हुई है उससे आतंकवाद और इसको स्तनपान करवाने वाले पाकिस्तान का टेंटुआ भारत के हाथों आता दिखाई दे रहा है।
-राकेश सैन
Related Topics
india pakistan taliban afghanistan united nations un security council taliban sanctions committee Taliban delegation Mullah Abdul Ghani Baradar terror training camps in Pakistan TS Tirumurti India envoy to the UN पाकिस्तान तालिबान प्रतिबंध समिति भारत-पाकिस्तान एफएटीएफ आतंकवाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद मोदी सरकार आतंकी फंडिंग धन शोधन मुशाहिद हुसैन सैयद किसान आंदोलन मोदी सरकार भारत
