मोदी के राज में एकतंत्र बनता जा रहा है हमारा लोकतंत्र

[email protected] । Jan 16 2017 12:08PM

जब किसी देश का शासन व्यक्ति केंद्रित हो जाता है तो गलत निर्णयों को सही ठहराने की जिद ठान ली जाती है। उससे सरकार और जनता का भारी नुकसान होता है।

ढाई साल के मोदी राज में देश किस दिशा में जाता रहा है, यह प्रश्न पूछने का समय अब आ गया है। यह महसूस हुआ है कि कोई प्रधानमंत्री है और धमाकेदार है, जबकि उसके पहले के दस वर्षों में यह पता लगाना पड़ता था कि प्रधानमंत्री कौन है। उन दिनों नीतियां कौन बना रहा था और उन्हें कौन लागू कर रहा था, यह बताना भी आसान नहीं था लेकिन, अब तक प्रधानमंत्री मोदी की कार्यपद्धति ऐसी रही है कि भारतीय लोकतंत्र, अब एकतंत्र (मोदीतंत्र) में बदलता दिख रहा है। इसके फायदे भी हैं और नुकसान भी हैं।

फायदे कई हैं। जब प्रधानमंत्री शक्तिशाली होता है तो नौकरशाही उससे खौफ खाती है और मुस्तैदी से काम करती है। प्रधानमंत्री यदि ईमानदार हो तो मंत्रियों को भ्रष्टाचार करते वक्त डर लगता है। प्रधानमंत्री के पांच साल तक जमे रहने की संभावना के कारण सरकार में स्थायित्व आ जाता है। पिछली लगभग आधा दर्जन सरकारें या तो स्पष्ट बहुमत की सरकारें नहीं थीं या डेढ़-दो वर्ष में ही गुड़क गईं। इस दृष्टि से मोदी सरकार देश के लिए अत्यंत हितकर सिद्ध हो सकती थी। मोदी की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे अपनी बात लोगों के गले उतारने में सिद्धहस्त हैं। उन्होंने अब तक जितनी जन-सभाएं कीं, उतनी प्रायः अन्य प्रधानमंत्री नहीं करते हैं। लेकिन चिंता की बात यह भी है कि देश का सारा ध्यान एक ही व्यक्ति पर केंद्रित होता जा रहा है। सारी व्यवस्था आदर्श, सिद्धांत व कार्यक्रम केंद्रित होने की बजाय व्यक्ति केंद्रित हो रही है। यह न तो देश, न सत्तारूढ़ दल और न उस व्यक्ति-विशेष के लिए शुभ है।

लोकतंत्र के एकतंत्र में बदलने की प्रक्रिया इतनी सूक्ष्म, इतनी विरल और इतनी अदृश्य होती है कि लोगों का ध्यान आसानी से नहीं जाता। संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री को ‘बराबर वालों में प्रथम’ (प्रिमस एंटर पेरेस) माना जाता है, जैसा कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री होता है। अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह वह अपने मंत्रिमंडल का स्वामी (बॉस) नहीं होता है। आज भारत के मंत्रिमंडल की स्थिति क्या है? सरकार की प्रमुख नीतियों पर मंत्रिमंडल में खुलकर बहस होती हो, इसके कोई संकेत नहीं मिलते। यदि बहस होती रहती तो नोटबंदी जैसे कदम को क्या हरी झंडी मिल सकती थी? इसी प्रकार सीमांत पर की गई कथित ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ भी किसी नौकरशाह के दिमाग के उपज रही होगी। यह ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ रोज ‘फर्जिकल स्ट्राइक’ सिद्ध हो रही है। हमारे सौ से ज्यादा जवान पाकिस्तान ने मार गिराए हैं और दर्जनों स्थानों पर घुसकर उसने पलट सर्जिकल स्ट्राइक कर दी है। क्या सर्जिकल स्ट्राइक करने के पहले प्रधानमंत्री ने अपने साथी मंत्रियों और सामरिक विशेषज्ञों से कोई सलाह की? इसके कारण पाकिस्तान के साथ हमारा युद्ध भी हो सकता था। क्या हमारी सरकार उसके लिए तैयार थी?

नीति-निर्माण का काम व्यक्ति-केंद्रित होने का यही सबसे बड़ा खतरा है। इस तरह के काम का एक उदाहरण और भी है। काबुल-यात्रा पर गए प्रधानमंत्री अचानक पाकिस्तान चले गए, नवाज शरीफ की नातिन की शादी में भाग लेने। विदेश मंत्रालय को इसकी कोई जानकारी नहीं थी। उसके हफ्ते भर बाद ही पठानकोट में आतंकी हमला हो गया। बिना सोचे-विचारे निर्णय करना और भावावेश में बहकर नीति-निर्माण करने वाली संस्थाओं की उपेक्षा करना व्यक्ति-केंद्रित शासन का विशेष लक्षण होता है। नोटबंदी का अत्यंत महत्वपूर्ण वित्तीय फैसला रिजर्व बैंक को करना चाहिए था लेकिन, मोदी ने उस पर अपना यह फैसला थोप दिया। ऐसी कार्रवाइयों से देश की स्वायत्त संस्थाओं की प्रतिष्ठा पर आंच भी आती है और गलत निर्णय भी होते हैं। जब शासन व्यक्ति केंद्रित हो जाता है तो गलत निर्णयों को सही ठहराने की जिद ठान ली जाती है। उससे सरकार और जनता का भारी नुकसान होता है।

यह स्वागत योग्य है कि मोदी ने भाजपा की कार्यकारिणी के अधिवेशन में पारदर्शिता का प्रश्न उठाते हुए कहा कि लोगों को यह पूछने का अधिकार है कि भाजपा के पास पैसा कहां से आता है और उसका हिसाब क्या होता है। ऐसी अटपटी बात आज तक किसी प्रधानमंत्री या पार्टी अध्यक्ष ने नहीं कही। यदि मोदी सचमुच नेता हैं और उनमें दम है तो वे अपनी पार्टी के सारे हिसाब को सार्वजनिक क्यों नहीं कर देते? लेकिन, ऐसे कदम प्रायः अपनी छवि चमकाने के लिए होते हैं। पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र का सवाल भी बड़ा महत्वपूर्ण है। क्या कभी भाजपा में प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष ऐसे दो व्यक्ति रहे हैं, जो एक ही राज्य मंत्रिमंडल के ऊपर-नीचे सदस्य रहे हों? अमित शाह को अध्यक्ष पद थमा देने से भाजपा एक अर्थ में बहुत ही संकीर्ण-नियंत्रण वाली पार्टी बन गई है। वह पहले से अधिक व्यक्ति-केंद्रित और रबर-ठप्पा पार्टी बन गई है। पार्टी की कार्यकारिणी में किसी ने नोटबंदी की दो-टूक समीक्षा की हो और जनता के दुख-दर्दों को गुंजाया हो, ऐसा नहीं सुना गया। बल्कि उल्टा हुआ। पार्टी ने मोदी की विरुदावलियां गाईं।

इसी का परिणाम है कि राज्यों के चुनावों में किसी प्रांतीय नेता को नहीं चमकने दिया जाता है। दिल्ली और बिहार में भाजपा के पास कोई मुख्यमंत्री का उम्मीदवार ही नहीं था और उत्तर प्रदेश में भी नहीं है। प्रधानमंत्री भी वही हैं और भावी मुख्यमंत्री की भूमिका भी वही निभा रहे हैं। यही हाल विदेशी दौरों का है। प्रतिभाशाली विदेश मंत्रीजी घर में बैठी मक्खियां मार रही हैं और प्रधानमंत्री विदेश घूमने का कोई मौका नहीं चूक रहे हैं। अब खादी के विज्ञापनों में गांधी की जगह मोदी आ गए हैं। कितना भौंडा मजाक है, यह! जिसने अकेले दम नोटबंदी की, वह संसद में लगातार मौन धारण किए रहा और छुटभैये विपक्ष पर लपलपाते रहे। यह कैसा लोकतंत्र है, कैसी जिम्मेदार-जवाबदेह सरकार है। एकतांत्रिक शासक की यह खूबी होती है कि वह संवाद पसंद नहीं करता। वह सिर्फ एकतरफा भाषण जारी रखता है। इसीलिए ढाई साल में एक भी पत्रकार परिषद नहीं हुई, पार्टी की प्रायोजित सभाओं में आप कुछ भी बोलिए, आपको टोकने वाला कौन है? जब देश में एकतांत्रिक माहौल जोर पकड़ने लगता है तो अदालतों और स्वायत्त संस्थाओं के भी पसीने छूटने लगते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने सहारा-बिड़ला डायरियों को रद्‌द कर दिया, जबकि दिल्ली वि.वि. की 1978 की डिग्रियों की जांच की मांग करने वाले सूचना अधिकारी का मंत्रालय ने तबादला कर दिया। लोकतंत्र के लिए शुभ शकुन नहीं हैं।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)

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