पहले जापान फिर चीन...कूटनीति में यात्रा का क्रम कई संदेश देता है, एशियाई राजनीति में संतुलन साधेंगे मोदी

PM Modi
ANI

अमेरिकी दृष्टि से यह यात्रा बेहद अहम है। वॉशिंगटन इसे गहराई से देखेगा, क्योंकि यह उसकी इंडो-पैसिफिक रणनीति, चीन के साथ प्रतिस्पर्धा और जापान की भूमिका— तीनों से जुड़ी है। भारत यहाँ अमेरिका को यह संदेश देना चाहता है कि वह किसी एक खेमे का हिस्सा नहीं है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 29 अगस्त से 1 सितंबर तक जापान और चीन की यात्रा पर जा रहे हैं। यह दौरा केवल दो देशों की यात्रा भर नहीं है, बल्कि एशिया तथा वैश्विक राजनीति की दिशा और संतुलन को प्रभावित करने वाला महत्वपूर्ण कदम है। इतना ही नहीं, इसके प्रभाव वॉशिंगटन तक भी पहुँचेंगे।

सबसे पहले, 29–30 अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी जापान जाएंगे, जहाँ वह प्रधानमंत्री शिगेरू इशिबा के साथ 15वें भारत–जापान वार्षिक सम्मेलन में शामिल होंगे। यह मोदी का जापान का आठवाँ दौरा और इशिबा के साथ उनकी पहली मुलाक़ात होगी। हम आपको बता दें कि भारत और जापान के बीच “स्पेशल स्ट्रैटेजिक एंड ग्लोबल पार्टनरशिप” है, जिसमें रक्षा-सुरक्षा, व्यापार, तकनीकी सहयोग और जन-से-जन संपर्क प्रमुख आधार हैं। इस यात्रा के माध्यम से मोदी यह संदेश देंगे कि भारत एशिया-प्रशांत क्षेत्र में लोकतांत्रिक, पारदर्शी और नियम-आधारित व्यवस्था का प्रबल समर्थक है। जापान के लिए यह संकेत भी स्पष्ट होगा कि भारत उसके साथ गहरी साझेदारी चाहता है और चीन की बढ़ती आक्रामकता के बीच वह अकेला नहीं है।

इसे भी पढ़ें: आत्मनिर्भरता व स्वदेशी के मूल मंत्र से ही भारत होगा मजबूत व सुरक्षित

इसके बाद, 31 अगस्त–1 सितंबर को प्रधानमंत्री मोदी चीन के तियानजिन में शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे। SCO भारत की एशिया नीति का अहम हिस्सा है, जहाँ सुरक्षा, आतंकवाद और क्षेत्रीय सहयोग जैसे विषयों पर विचार-विमर्श होता है। इस मंच पर मोदी की मौजूदगी चीन के लिए यह संदेश है कि भारत टकराव नहीं बल्कि संवाद और बहुपक्षीय सहयोग का पक्षधर है। साथ ही यह भी स्पष्ट संकेत है कि भारत जापान जैसे देशों के साथ सामरिक सहयोग बढ़ाकर बीजिंग पर अप्रत्यक्ष दबाव बनाए रखने की क्षमता रखता है।

कूटनीति में यात्रा का क्रम भी संदेश देता है। मोदी ने पहले जापान और फिर चीन का दौरा तय कर यह जताया है कि भारत एशिया में अपनी स्वतंत्र रणनीतिक प्राथमिकताओं पर चलता है। बीजिंग को संकेत दिया गया है कि भारत उसकी शर्तों पर नहीं झुकेगा और जापान को आश्वस्त किया गया है कि चीन के साथ संवाद उसकी कीमत पर नहीं होगा।

इसके अलावा, जापान के साथ रक्षा सहयोग हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की आक्रामकता का संतुलन साधने में मदद कर सकता है, वहीं जापान निवेश और तकनीकी सहयोग का भी बड़ा स्रोत है। दूसरी ओर, चीन के साथ सीधे संवाद बनाए रखने से भारत को सीमा विवाद और SCO जैसे मंचों पर अपनी स्थिति मजबूती से रखने का अवसर मिलता है। इस क्रम में केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल का हालिया बयान उल्लेखनीय है, जिसमें उन्होंने संकेत दिया कि परिस्थितियाँ मांगने पर चीनी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) पर लगी पाबंदियों की समीक्षा की जा सकती है। यह संकेत ऐसे समय आया है जब अमेरिका के साथ भारत के व्यापारिक संबंधों में तनाव देखा जा रहा है और चीन के साथ तालमेल की संभावनाएँ खुल रही हैं।

अमेरिकी दृष्टि से यह यात्रा बेहद अहम है। वॉशिंगटन इसे गहराई से देखेगा, क्योंकि यह उसकी इंडो-पैसिफिक रणनीति, चीन के साथ प्रतिस्पर्धा और जापान की भूमिका— तीनों से जुड़ी है। भारत यहाँ अमेरिका को यह संदेश देना चाहता है कि वह किसी एक खेमे का हिस्सा नहीं है। जापान में जाकर भारत अपने “स्पेशल स्ट्रैटेजिक एंड ग्लोबल पार्टनरशिप” को मजबूत करता है, जो अमेरिका की इंडो-पैसिफिक दृष्टि से मेल खाता है। वहीं चीन जाकर मोदी यह दिखाएंगे कि भारत अपने पड़ोस और बहुपक्षीय मंचों की अनदेखी नहीं करेगा।

बहरहाल, मोदी की जापान और चीन यात्रा अमेरिका को यह याद दिलाती है कि भारत उसका “नेचुरल पार्टनर” तो है, लेकिन “जूनियर पार्टनर” नहीं। भारत सहयोग का पक्षधर है, पर अपनी स्वायत्तता से समझौता नहीं करता। यह दौरा साफ़ तौर पर दिखाता है कि भारत किसी एक ध्रुव का हिस्सा बनने के बजाय संतुलित और स्वतंत्र विदेश नीति को प्राथमिकता देता है।

-नीरज कुमार दुबे

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
All the updates here:

अन्य न्यूज़