उप्र में अब प्रियंका से ही उम्मीदें लगाए बैठी है कांग्रेस

अजय कुमार । Nov 26, 2016 3:35PM
कांग्रेस आलाकमान प्रियंका में संभावनाएं तलाश रहा है तो प्रियंका भी आलाकमान के सुर में सुर मिला रही हैं। गत दिनों अपनी दादी इंदिरा गांधी के जन्मशती समारोह पर स्वराज भवन आईं प्रियंका गांधी ने सक्रिय राजनीति में आने के संकेत दे भी दिए।

उत्तर प्रदेश में जब भी किसी चुनाव का आगाज होता है, उस समय कांग्रेस में प्रियंका गांधी वाड्रा के नाम का जाप शुरू हो जाता है। यह सिलसिला 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद से लगातार जारी है। 2009 मतलब वो साल जब लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का परचम फहराने के लिये उसके उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने 'वन मैन आर्मी' की तरह पूरे प्रदेश को 'नाप' डाला था। उनकी बड़ी−बड़ी जनसभाएं हुईं थीं। इसमें भीड़ भी जुट रही थी। कांग्रेसियों को लगने लगा था कि यूपी में 20 वर्षों का 'सूखा' राहुल खत्म कर देंगे। केन्द्र में मनमोहन की यूपीए सरकार पदारूढ़ थी। इस वजह से कांग्रेस के पास संसाधनों और धनबल की कोई कमी नहीं थी। 2004 में कांग्रेस के पास यूपी में मात्र 09 लोकसभा सीटें थीं, लेकिन राहुल के जर्बदस्त प्रचार के बाद यह आंकड़ा 21 पर पहुंच गया। इसके अलावा कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाली अजित सिंह की राष्ट्रीय लोकदल पार्टी के खाते में भी पांच सीटें आईं थीं। यह सीटें कांग्रेस के लिये उम्मीद से काफी कम थीं, परंतु उस समय राहुल गांधी के युवा जोश को देखकर यह मान लिया गया कि राहुल का 'सिक्का' चल पड़ा है, लेकिन इसके बाद हुए 2012 के विधान सभा चुनाव, 2014 के लोकसभा चुनाव और तमाम उप−चुनावों में कांग्रेस प्रत्याशी अधिकांश सीटों पर चौथे नंबर पर नजर आने लगे थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में तो कांग्रेस के सांसदों की संख्या दो पर ही यानी सोनिया−राहुल तक सिमट गई। इससे बड़ी बात यह थी कि लोकसभा चुनाव के समय अधिकांश कांग्रेसी उम्मीदवार सोनिया गांधी की तो जनसभा अपने यहां कराना चाह रहे थे, लेकिन राहुल गांधी की जनसभा अपने क्षेत्र में कराने को लेकर कोई भी प्रत्याशी रूचि नहीं दिखा रहा था।

राहुल में अनेक खामियां हो सकती हैं, परंतु उनकी एक सबसे बड़ी खूबी यह है कि उन्होंने कभी हार नहीं मानी। तमाम आलोचनाओं के बावजूद उन्होंने अपने अंदर कभी झांक कर यह देखने की कोशिश नहीं की कि वह प्रधानमंत्री बनने के योग्य भी हैं या नहीं। इसीलिये जब वह मोदी को चुनौती देते हैं तो ऊंट की पहाड़ से जुड़ी कहावत याद आ जाती है। 2009 से 2016 आते−आते राहुल में एक बदलाव और आ गया है। जब उन्हें यह लगने लगा कि भाजपा को वह अकेले शिकस्त नहीं दे सकते हैं तो वह प्रशांत किशोर यानी पीके को यह सोच कर ले आये कि मोदी और नीतीश की तरह पीके उनकी भी पार्टी का कायाकल्प कर देंगे। मगर यह खेल भी लम्बा चलता नहीं दिख रहा है। ऐसे में कांग्रेस प्रियंका को लेकर संभावनाएं तलाश रही है।

कांग्रेस आलाकमान प्रियंका में संभावनाएं तलाश रहा है तो प्रियंका भी आलाकमान के सुर में सुर मिला रही हैं। गत दिनों अपनी दादी इंदिरा गांधी के जन्मशती समारोह पर स्वराज भवन आईं प्रियंका गांधी ने सक्रिय राजनीति में आने के संकेत दे भी दिए। इससे पहले वह राजनीतिक आयोजनों और किसी भी तरह का बयान देने से बचती रहतीं थीं, लेकिन इस बार कार्यकर्ताओं से मुलाकात के दौरान प्रियंका ने सिर्फ सियासी मुद्दों पर बात की, जो कार्यकर्ता स्वराज भवन में प्रवेश नहीं कर सके, वह बाहर से प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने की मांग को लेकर नारेबाजी करते रहे और जिनकी प्रियंका से मुलाकात हुई, उन्होंने सीधे तौर पर प्रियंका से यूपी में पार्टी की कमान संभालने की मांग की। प्रियंका ने भी कार्यकर्ताओं को हताश नहीं किया। उन्होंने आश्वस्त किया कि इस बारे में जल्द ही कोई निर्णय लेंगी। 

प्रियंका से मुलाकात के दौरान पार्टी के कई नेताओं ने तो यहां तक मांग उठाई कि पंडित नेहरू के जाने के बाद से फूलपुर संसदीय क्षेत्र दुर्दशा का शिकार है। कांग्रेस यहां कमजोर है। अगर प्रियंका 2019 के लोकसभा चुनाव में इस सीट से चुनाव लड़ जाएं, तो पार्टी को अपनी विरासत वापस मिल जाएगी। प्रियंका ने धैर्य के साथ सबको सुना और मुस्कुराते हुए बोलीं, 'दिल्ली लौटकर कार्यकर्ताओं की सभी बातों पर विचार करूंगी और उचित समय पर निर्णय भी लूंगी।' प्रियंका ने साफ तौर पर तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उनकी ओर से कांग्रेसियों को मिला आश्वासन ही उन्हें उत्साहित करने के लिए काफी था। नेहरू की कर्मस्थली और इंदिरा की जन्म स्थली पर सियासत में हलचल मचा गईं प्रियंका गांधी को लेकर फिर नई बहस छिड़ गई है। जितना प्रियंका का सियासत में आना तय लग रहा है उतनी ही पक्की बात यह यह भी है कि प्रियंका को राहुल के नेतृत्व में ही काम करना पड़ेगा। 2009 में कांग्रेस ने राहुल गांधी को तुरूप के पत्ते की तरह पेश किया था, जो चल नहीं पाया। जानकार कहते हैं कि अब कांग्रेस के पास प्रियंका गांधी आखिरी सबसे बड़ा तुरूप का पत्ता रह गई हैं। अगर यह नहीं चला तो नेहरू−गांधी परिवार की सियासत इतिहास बन सकती है, लेकिन ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो राहुल के फ्लाप होने के बाद प्रियंका में नजर जमाये बैठे हैं और प्रियंका भी नहीं चलीं तो प्रियंका के बच्चों की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखने लगेंगे। कांग्रेस की सियासत का यही रंग−ढंग है।

बहरहाल, प्रियंका के राजनीति में आने की खबरों से कांग्रेसी खुश हैं तो प्रियंका के सामने चुनौती भी कम नहीं होगी। पिछले 27 वर्षों में यूपी में कांग्रेस का जनाधार पूरी तरह से बिखर चुका है, जिसे वापस कांग्रेस खेमे में लाना प्रियंका के लिये असंभव तो नहीं, मुश्किल जरूर है। कांग्रेस का दलित वोटर बसपा के साथ और मुस्लिम वोटर सपा के पाले में चला गया है तो भाजपा ने बनिया−ब्राह्मणों को अपनी तरफ कर रखा है। प्रियंका की अपरिपक्वता 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान देखने को मिली थी। प्रियंका के नीच वाले बयान को मोदी ने जिस तरह से हवा दी थी, उससे तब कांग्रेस को बच कर निकलना मुश्किल हो गया था। इसी तरह से प्रियंका के पति राबर्ट वाड्रा के जमीन घोटालों को विपक्ष चुनावी मुद्दा बनायेगा। इससे बचकर निकलना प्रियंका के लिये आसान नहीं होगा।

- अजय कुमार

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