सपा में ''युग परिवर्तन'' का सर्वाधिक नुकसान शिवपाल यादव को हुआ

समाजवादी परिवार के बीच खिंची दीवारों की दरारें गहराती जा रही हैं। पूरा परिवार दो हिस्सों में बंट गया है तो नेताजी मुलायम सिंह यादव की स्थिति घड़ी के पैंडुलम जैसी हो गई है। न पुत्र मोह से बच पा रहे हैं, न भाई से ममता कम हो रही है। इसीलिये मुलायम के बयानों में भटकाव दिखाई देता है। वह कभी कुछ कहते हैं तो कभी कुछ बोलते हैं। लोग समझते हैं कि यह नेताजी की उम्र का तकाजा है, परंतु सच्चाई यह है कि नेताजी के दर्द को कोई समझने की ही कोशिश नहीं कर रहा है। वह एकता में शक्ति देख रहे हैं, जबकि परिवार के सदस्य अपनी−अपनी 'लाठी को तेल पिला रहे हैं।' इससे अगर किसी को नुकसान हुआ है तो वह सिर्फ और सिर्फ शिवपाल यादव हैं। शिवपाल हासिये पर ढकेल दिये गये हैं, लेकिन शिवपाल को इससे अधिक दुख इस बात का है कि समाजवादी पार्टी में उनकी भावनाओं और रणनीति को कोई समझ ही नहीं पा रहा है।
शिवपाल को जोड़तोड़ की राजनीति का माहिर माना जाता है। उनका ख्वाब था कि राष्ट्रीय स्तर पर गैर भाजपा−गैर कांग्रेसी दलों का एक गठजोड़ तैयार किया जाये, जिसका नेतृत्व मुलायम के हाथों में हो। शिवपाल की इस सोच के पीछे की मंशा साफ है। वह इस तरह के गठबंधन के सहारे मुलायम को देश का प्रथम नागरिक और अखिलेश को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा हुआ देखना चाहते हैं। शिवपाल की सोच उनके ख्वाब तक सीमित नहीं थी। इसके लिये वह काम भी कर रहे थे, लेकिन परिवार के झगड़े ने उनकी उम्मीदों पर तो पानी फेरा ही, उनकी नियत पर भी सवाल खड़ा कर दिया गया। शिवपाल के 'सियासी चरित्र' को उनके विरोधियों ही नहीं, परिवार के कुछ सदस्यों ने भी ऐसे पेश किया मानो वह सपा के नायक नहीं खलनायक हों, जबकि हकीकत यही है कि समाजवादी पार्टी को जो ऊंचाइयां हासिल हुईं उसमें शिवपाल के योगदान को कभी भी नकारा नहीं जा सकता है। उनके खिलाफ साजिश रची गई मानो मुख्यमंत्री बनने की चाह ने शिवपाल को 'खलनायक' बना दिया हो। इन्हीं दुश्वारियों और गंभीर आरोपों के चलते शिवपाल आजकल बुझे−बुझे रहने लगे हैं। उन्होंने अपना दायरा सीमित कर लिया है, लेकिन जब वह अपने पुराने मित्रों या पत्रकार बंधुओं से मिलते हैं तो उनकी बेबाकी जुबां पर आ ही जाती है।
शिवपाल का दर्द छोटा नहीं है। उसे कम करने भी नहीं आका जा सकता है। सबसे दुखद है शिवपाल को महत्वाकांक्षी बताया जाना, उनकी महत्वाकांक्षाएं तो थीं, लेकिन इससे उनका हित कहीं नहीं जुड़ा था। वह संगठन को मजबूत और नेताजी को राष्ट्रपति एवं अखिलेश को प्रधानमंत्री बनते देखने की तमन्ना रखते हैं, तो इसमें उनका क्या भला छुपा होगा। शिवपाल को पद की चाहत कभी रही ही नहीं। अगर होती तो 1996 की बजाये 1980 में ही वह विधायक बन जाते। यह बात शिवपाल कई मौकों पर कहते सुने भी जा चुके हैं कि 1980 में नेताजी तीन−तीन जगह से चुनाव जीते थे, दो सीटें बाद में उन्होंने छोड़ दी थीं, इसके लिये मैं दावेदारी कर सकता था, लेकिन मैंने विधायक बनने की बजाये संगठन को प्राथमिकता दी। शिवपाल को करीब से जानने वाले भी यही कहते हैं कि भले ही वह मंत्री रहे हों लेकिन उन्हें संगठन और संघर्ष का रास्ता ही हमेशा रास आया। नेताजी की सभाओं में दरियां बिछाईं, बूथ स्तर पर काम किया। जब संगठन या नेताजी पर हमला हुआ तो वह उनके पीछे खड़े नजर आये। बलराम सिंह यादव, दर्शन सिंह यादव के सामने खड़े होकर गोलियों की बौछार झेली। इतना सब होने के बाद भी शिवपाल ने कभी अपने को संगठन से ऊपर नहीं समझा। वह निस्वार्थ संगठन की सेवा करते रहे। साइकिल पर सवार होकर दूर−दूर जनसभाओं में पहुंच जाया करते थे।
शिवपाल के जनता से जुड़ाव का ही नतीजा था कि 1996 में तेरहवीं विधानसभा के लिये हुए चुनाव में वह पहली बार जसवन्तनगर से विधानसभा का चुनाव लड़े और ऐतिहासिक मतों से जीत भी हासिल की। इसी वर्ष वे समाजवादी पार्टी के प्रदेश महासचिव बनाये गये। पार्टी को मजबूत बनाने के लिए शिवपाल ने पूरे उत्तर प्रदेश को कदमों से नाप दिया। समय के साथ उनकी लोकप्रियता और स्वीकार्यता बढ़ती चली गयी। तत्कालीन समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रामशरण दास के अस्वस्थ होने के चलते 01 नवम्बर, 2007 को मेरठ अधिवेशन में शिवपाल को कार्यवाहक प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया और रामशरण दास की मृत्यु के बाद 6 जनवरी, 2009 को वे पूर्णकालिक प्रदेश अध्यक्ष बन गये। इसी दौरान मई 2009 में उन्हें विधानसभा में नेता विरोधी दल की भूमिका भी मिल गई। उस समय बसपा की सरकार थी। ऐसे समय में नेता विरोधी दल की जिम्मेदारी संभालना किसी के लिये आसान नहीं था, लेकिन शिवपाल ने इस दायित्व को संभाला और बखूबी निभाया भी। वह विपक्ष तथा आम जनता से जुड़े मुद्दे सदन से लेकर सड़क तक पर उठाते रहे। इसी दौरान पार्टी से निकाले गये नेता आजम खान की वापसी हो गई तो नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफा देने में शिवपाल ने एक पल का भी विलम्ब नहीं किया, जो दर्शाता है कि उन्हें पद से अधिक सिद्धान्त और पार्टी हित की चिंता रहती थी।
यह अतीत की बातें हैं तो सच्चाई यह भी है कि मौजूदा विधान सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को संभवतः इतनी करारी हार का सामना नहीं करना पड़ता, यदि परिवार एकजुट होता। शिवपाल की रणनीति को समझा जाता। शिवपाल की सबसे अधिक नाराजगी प्रोफेसर रामगोपाल और नरेश अग्रवाल को लेकर है। वह अक्सर कहते सुने भी जाते हैं कि मेरी ही नहीं नेताजी की भी नाराजगी इन्हीं दोनों नेताओ से सबसे अधिक है। शिवपाल को दुःख है कि उन्हें जसवंत नगर विधान सभा सीट से चुनाव हराने के लिये परिवार के कुछ सदस्यों ने ही एड़ी−चोटी का जोर लगा दिया। यह और बात थी कि ऐसी शक्तियां अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो सकीं।
बकौल शिवपाल, कुनबे में कलह से पूर्व उन्होंने पार्टी को बुलंदियों तक पहुंचाने के लिये एक खाका तैयार किया था, जिसके तहत वह गैर बीजेपी−गैर कांग्रेसी मोर्चा तैयार करके तमाम छोटे−छोटे दलों को एक छतरी के नीचे लाना चाहते थे, जिसकी अगुवाई मुलायम सिंह करते नजर आते। उनकी राष्ट्रीय लोकदल के चौधरी अजित सिंह से तो विलय को लेकर बात काफी आगे बढ़ भी गई थी। इसके अलावा कर्नाटक में देवगौड़ा, बिहार में नीतीश−लालू, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी सहित असम, महाराष्ट्र, तमिलनाडु सहित तमाम क्षेत्रीय क्षत्रपों से भी गठजोड़ की बात चल रही थी। शिवपाल की सियासी रणनीति के तहत अगर तमाम क्षेत्रीय क्षत्रपों को मुलायम छाया में लाकर खड़ा कर दिया जाता तो सपा को कांग्रेस के दरवाजे पर जाना ही नहीं पड़ता, कांग्रेस स्वतः समाजवादी चौखट पर आने को मजबूर हो जाती। थोड़ा उदास लहजे में शिवपाल कहते दिख जाते हैं कि जिस योजना के तहत वह कार्य कर रहे थे, उसको उनका परिवार समझ ही नहीं पाया। उक्त योजना के तहत मेरा सपना था कि मुलायम सिंह राष्ट्रपति बनें और प्रधानमंत्री अखिलेश यादव हों, लेकिन उनकी राणनीति को अमली जाना नहीं पहनाने दिया गया।
लब्बोलुआब यही है कि शिवपाल पार्टी की दुर्दशा से काफी दुखी हैं। हाल फिलहाल में पार्टी और परिवार में भले ही सब कुछ ठीकठाक नजर आ रहा हो, लेकिन तमाम मौकों पर शिवपाल के संकेतों को समझा जाये तो यह तूफान से पहले की खामोशी है। पार्टी को मिली शर्मनाक हार ने शिवपाल को झंझोर के रख दिया है तो उन्हें इससे ज्यादा दुख इस बात का है कि समाजवादी पार्टी में सुधार की प्रक्रिया ठप पड़ी है। नेताजी मुलायम सिंह यादव को बार−बार अपमान का घूंट पीना पड़ रहा है, आगरा अधिवेशन में तो यहां तक कह दिया गया कि समाजवादी पार्टी में संरक्षक का कोई पद ही नहीं है। अगर ऐसा है तो फिर लखनऊ अधिवेशन में नेताजी को संरक्षक कैसे घोषित किया गया था। हद तो तब हो गई जब अक्टूबर के पहले हफ्ते में आगरा में हुई समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बिना विरोध अगले 5 सालों के लिए पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने जाने के बाद जब अखिलेश यादव ने अपनी नई टीम घोषित की तो उसमें चाचा शिवपाल यादव को तो राष्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है, लेकिन बसपा छोड़ सपा में आए इंद्रजीत सरोज को महासचिव बना दिया गया, जबकि चर्चा यह चल रही थी कि परिवार में सुलह के बाद अखिलेश यादव की कार्यकारिणी में शिवपाल को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिल सकती है।
शिवपाल को इस बात का भी दुख सताता है कि जिस कांग्रेस को मुलायम अपनी उंगलियों के इशारों पर नचाते थे, उसके सामने अखिलेश ने घुटने टेक दिये। ऐसा इसलिये हो रहा है क्योंकि अखिलेश चापलूसों से घिर गये हैं। उनमें राजनीतिक परिपक्वता का अभाव है। पुराने और पार्टी के लिये समर्पित नेताओं/कार्यकर्ताओं की कहीं पूछ नहीं हो रही है। जो शिवपाल पार्टी के गठन के बाद दो दशकों से अधिक समय तक समाजवादी पार्टी में नायक के किरदार में रहते थे, उनको 2012 के पश्चात धीरे−धीरे खलनायक की तरह पेश किया जाना, यह बताता है कि सपा में युग परिवर्तन हो गया है।
- अजय कुमार
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