ताकि भगदड़ के हादसों पर लग सके लगाम

Stampede Mansa Devi Temple
ANI

भगदड़ की घटनाओं को लेकर अपनी व्यवस्था कितना संजीदा है, इसी साल हुई घटनाओं से इसका अनुमान लगाया जा सकता है। साल 2025 में ही सात घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें आधिकारिक तौर पर 81 लोगों की जान जा चुकी है।

हरिद्वार के मनसा देवी मंदिर में भगदड़ की सुर्खियों की स्याही अभी सूखी नहीं कि उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले से भी भगदड़ की खबर आ गई है। दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर देश तेजी से कदम बढ़ा रहा है। तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था का मतलब है कि तकनीक और सहूलियतों से देश लैस होता जा रहा है। इस संदर्भ में जब भगदड़ की घटनाएं सामने आती हैं तो आधुनिकता से कदमताल करने वाली ये छवियां दरकने लगती हैं। ऐसा नहीं कि देश का ध्यान इस विरोधाभास की ओर नहीं है। फिर भी ऐसी घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रहीं। ऐसी घटनाएं जब भी होती हैं तो एहतियाती कदम उठाए जाने की प्रशासनिक तंत्र की ओर से घोषणाएं होती हैं। कुछ दिन में देश ऐसी घटनाओं को भुला देता है। अभी भूलने और भुलाने का यह खेल जारी ही रहता है कि कोई नई घटना आ जाती है और एहतियाती कदमों का ऐलान महज हवा-हवाई बनकर रह जाता है।

भगदड़ की घटनाओं को लेकर अपनी व्यवस्था कितना संजीदा है, इसी साल हुई घटनाओं से इसका अनुमान लगाया जा सकता है। साल 2025 में ही सात घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें आधिकारिक तौर पर 81 लोगों की जान जा चुकी है। जबकि सैकड़ों घायल हुए हैं। दिलचस्प यह है कि ये घटनाएं कुंभ जैसे भीड़भाड़ वाले सांस्कृतिक और पारंपरिक आयोजन में तो हुई हीं, राष्ट्रीय राजधानी के रेलवे स्टेशन से लेकर गोवा जैसे कम जनसंख्या वाले राज्य में भी घटीं। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार नई सदी के बाइस साल में 23 बार भगदड़ मची, जिनमें करीब डेढ़ हजार लोगों को जान गंवानी पड़ी। इन घटनाओं में घायल लोगों में से कई दिव्यांग बन गए तो कई को ऐसा मानसिक आघात लगा कि उससे  अभी तक उबर नहीं पाए हैं। 

इसे भी पढ़ें: मनसा का मातमः अफवाह बनी त्रासदी की वजह

भगदड़ की घटनाओं के लिए नागरिक बोध की कमी को पहला कारण माना जाता है। लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि भगदड़ की ज्यादातर घटनाएं प्रशासनिक तंत्र की खामी की वजह से होती है। मसलन, 15 फरवरी को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर घटी घटना की वजह रेलवे अधिकारियों की सोच रही, जिन्होंने आनन-फानन में ट्रेन का प्लेटफॉर्म बदल दिया और उसमें जगह पाने के लिए लोग दौड़ पड़े। दुनिया की बेहतर प्रशासनिक व्यवस्थाओं में अधिकारियों का कल्पनाशील और अनुमानशील होना जरूरी माना जाता है। लेकिन भारतीय प्रशासनिक ढांचे इस कल्पनाशीलता की अक्सर कमी नजर आती है। उसे भावी संकटों और समस्याओं का अनुमान लगाने के लिए जरूरी सोच की कमी है। वह किसी समस्या का अंदाजा लगाकर उसे शुरू में रोकने और व्यवस्थित करने की बजाय आखिरी छोर पर निबटने की सोच से लगातार लैस रहता है। मेले-ठेले में जाने वाले लोगों की भीड़ को मेले में घुसने से पहले व्यवस्थित करने और उसे रोकने में भारतीय प्रशासनिक तंत्र की दिलचस्पी कम होती है, लेकिन जब मेले में भीड़ बढ़ जाती है तो मेले वाली जगह के दरवाजे पर वह अचानक से रोक लगा देता है। जबकि होना यह चाहिए कि मेले की ओर जान वाले रास्ते पर भीड़ को देखते हुए रोक  लगा दी जाए। दरवाजे पर भीड़ को रोकने से मेले में भीड़ भले ही ना घुसे, लेकिन पीछे से आ रहे रेले पर रोक नहीं लग पाती। इससे बैरिकेट वाली जगह पर भीड़ का दबाव बढ़ जाता है। पीछे वाली भीड़ के दबाव के चलते एक वक्त ऐसा आता है कि बैरिकेट का कोई मतलब नहीं रह जाता। फिर रेला लोगों को धकियाते आगे बढ़ने लगता है। इस बीच कोई गिर गया तो पीछे वाले के पास ना तो इतना वक्त होता है कि वह समझ पाए ना ही इतनी क्षमता  कि पीछे वाली भीड़ को रोक  पाए। वह सामने गिरे व्यक्ति  के शरीर की ओर अपना पैर बढ़ाने से रोक भी नहीं पाता। इसी दौरान गिरे हुए लोग दूसरे लोगों के पांवों से कुचलते चले जाते हैं। प्रयागराज की भगदड़ की भी वजह यही थी। भीड़ पीछे नहीं रोकी गई, स्नान केंद्र के पास रोकी गई। इसकी वजह से बैरिकेट पर दबाव बढ़ा और पीछे से आए रेला ने इसकी परवाह नहीं कि कौन गिरा है और किसके पेट,पीठ या सिर पर उसका पैर पड़ रहा है। 

भगदड़ के बारे में एक अवधारणा रही है कि गरीब-गुरबा और अशिक्षित लोग ही इसके शिकार बनते हैं। लेकिन यह अधूरा सच है। यह सच है कि उत्तर भारत के मंदिरों में दर्शनार्थियों की भीड़ में ज्यादार निम्न मध्यम वर्ग के लोग होते हैं। उत्तर भारत में मंदिरों तक में वीआईपी संस्कृति का बोलबाला है। इसकी तुलना में दक्षिण भारतीय मंदिरों में वीआईपी संस्कृति कुछ कम है। हालांकि दक्षिण के भी कई मंदिरों में दर्शन की व्यवस्था में वीआईपी संस्कृति का तड़का रहता है। लेकिन तुलनात्मक रूप से उत्तर में यह संस्कृति ज्यादा है। इसलिए उत्तर के मंदिरों और धार्मिक मेले-ठेले में अनुशासनहीन भीड़ की बहुलता होती है। चूंकि प्रशासनिक तंत्र कल्पनाशीलता से उन्हें व्यवस्थित नहीं कर पाता, लिहाजा भगदड़ की दुर्भाग्यजनक घटनाएं हो जाती हैं। 

इसमें दो राय नहीं कि भारत की एक बड़ी समस्या भारत की बड़ी जनसंख्या भी है। हालांकि आज की राजनीति का एक हिस्सा इसे समस्या नहीं मानती। क्योंकि उसका आधार वोट इसी भीड़तंत्र से ही विकसित  होता है। भारत में एक बड़ी समस्या यह है कि भीड़ को अनुशासित करने का संस्कार और शिक्षण पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर नहीं है। इसकी वजह से मौका पाते ही हर व्यक्ति रसूख के साथ भीड़ से निकलना चाहता है या फिर अपना वर्चस्ववादी स्वभाव दिखाना चाहता है। प्रशासनिक तंत्र इस मानस के आगे कभी रसूख  देख झुक जाता है तो कभी वह सोच भी नहीं पाता कि इसके नकारात्मक असर क्या-क्या हो सकते हैं। ऐसे में कई बार पिछड़ती हुई भीड़ अपना आपा भी खो देती है। भारत का एक बड़ा हिस्सा अरसे तक चूंकि गरीबी की मार झेलता रहा है, इसलिए उसके अवचेतन में कुछ पाने की चाह में दूसरों को पीछे छोड़ने की सोच हावी रहती है। इसमें अगर अफवाह अगर मिल जाती है तो हालात भयावह हो जाते हैं। कह सकते हैं कि संस्कार और सोच की कमी, व्यवस्था को सुचारू बनाने की जिम्मेदारी निभाने वाले तंत्र की कल्पनाहीनता और घनी जनसंख्या का कोलाज के सामने उनके बेपटरी होने की आशंका ज्यादा रहती है। ऐसा जब होता है तो हादसों के रूप में उसका भयावह नतीजा सामने आता है। 

ऐसे में सवाल यह है कि क्या ऐसी व्यवस्था नहीं बनाई जा सकती कि देश के भीड़भाड़ वाले आयोजन बिना किसी भगदड़ या अव्यवस्था के संपन्न हो सकें। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक मुकम्मल नीति बनाने और उसे कड़ाई से लागू करने की जरूरत है। हमें पता है कि आज के दौर की हर कठिन राह को तकनीक नेआसान की है। इसने तमाम  समस्याओं के समाधान की नई राहें भी निकाली हैं। नीतिगत स्तर पर प्रशासनिक तंत्र को तकनीक के इस्तेमाल के लिए तैयार किया जाना होगा। प्रशासनिक तंत्र को इसके लिए प्रशिक्षित किया जाना होगा कि तकनीक के इस्तेमाल से वे ठीक से पता लगा पाएं कि किस बिंदु पर भीड़ को रोका जाना चाहिए, कहां बैरिकेटिंग करके भीड़ को नियंत्रित किया जाना चाहिए। इसके साथ ही प्रशासनिक तंत्र की सोच में कल्पनाशीलता को बढ़ावा देने के लिए भी तैयार करना होगा। प्रशासनिक तंत्र समस्याओं का अनुमान लगाने वाला मानस विकसित कर सके,  इसके लिए भी जरूरी इंतजाम करना होगा। इसके साथ ही, भीड़ को अनुशासित करने के लिए दो स्तरों पर काम करना होगा। स्कूली स्तर से ही इस दिशा में शिक्षा और संस्कार देना होगा। साथ ही, आम लोगों को पीछे छोड़ने या किनारे रखने वाली वीआईपी संस्कृति पर पूरी तरह रोक लगाना भी इस दिशा में बेहद जरूरी कदम होना चाहिए। इसके साथ ही अफवाहों पर लगाम लगाने के मुकम्मल इंतजाम होने चाहिए। तभी जाकर हम आने वाले दिनों में अपनी भीड़ को सुरक्षित और बेहतर आयोजन का उपहार दे पाएंगे। 

-उमेश चतुर्वेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
All the updates here:

अन्य न्यूज़