तो क्या ज़ेलेंस्की, इंदिरा गांधी की तरह अमेरिकी राष्ट्रपति को करारा जवाब दे पाएंगे?

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कमलेश पांडे । Mar 4 2025 12:36PM

अखबार के मुताबिक, जब ट्रंप ने कहा कि ज़ेलेंस्की शांति में अड़चन डाल रहे हैं, भले ही उनका देश बर्बाद हो गया है। तब यूक्रेनी राष्ट्रपति ने बताया कि ट्रंप ने कई बातें ऐसी की, जिससे ऐसा लगा कि ये पुतिन के निर्देश में क्रेमलिन से आई हैं।

अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप और यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की में जो हालिया तीखी बहस देखी गई है, वह पहली बार नहीं है जब कोई देश अपने हितों के लिए अमेरिका से लड़ा है और अपमानित महसूस किया है। क्योंकि अपने वक्त में यानी 1970 के दशक में भारत की लौह महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी जाने-अनजाने अमेरिका से सीधी टक्कर ली थी। उन्होंने तब अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत के पीएम के तौर पर करारा जवाब दिया था और उन्हें घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। हालांकि, तब भी अमेरिका ने पाकिस्तान और चीन को भारत के खिलाफ भड़काने की कोशिश की थी, लेकिन इंदिरा गांधी की रणचंडी वाली भूमिका और रूस से अटूट दोस्ती की वजह से किसी की हिम्मत नहीं हुई थी कि वह भारत की ओर आंख तरेर ले। और जब अमेरिका ने ऐसी जुर्रत की तो रूस के डर से सहम गया। इसलिए दुनिया की मीडिया में यह सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या यूक्रेनी राष्ट्रपति ब्लोदिमिर जेलेन्सकी, भारत की पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी की तरह अमेरिकी राष्ट्रपति को करारा जवाब दे पाएंगे या फिर बस यूं ही अपमान का घूंट पी कर रह जाएंगे? क्योंकि बदलती वैश्विक कूटनीति के बीच पूरा यूरोप यूक्रेन के साथ खड़ा है। यह अमेरिका की दूरगामी कूटनीतिक विफलता भी है जो उसपर भारी पड़ सकती है। क्योंकि यूरोप-अमेरिका की अटूट दोस्ती से ही एशिया के देश भी भयभीत रहते हैं।

बता दें कि जब ब्रिटिश प्रभाव वश अमेरिका पाकिस्तान परस्त हुआ करता था, रूसी दुश्मनी के चलते चीन से रिश्ते मजबूत बना रहा था, तभी अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत के प्रधानमंत्री भी आंख दिखा चुकी हैं। एक अप्रत्याशित वाकये के तहत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन को 42 मिनट इंतजार सिर्फ इसलिए कराया, क्योंकि उससे कुछ घण्टे पहले वो ऐसी गलती कर चुके थे। इससे स्पष्ट है कि दुनिया में सुपरपॉवर होने के लिए हथियार और पैसा जरूरी है। लेकिन एक मजबूत और दृढ़प्रतिज्ञ राजनेता होने के लिए नहीं।

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वैसे भी अब सुपरपॉवर की पहचान मार्केट पॉवर से होती आई है, जंग के मैदान में किसी की ताकत से नहीं। वहीं, एक मजबूत इंटरनेशनल लीडर होने के लिए पर्सनालिटी और अपने देश की जनता का प्यार मिलना जरूरी है। इस मामले में भले ही अमेरिका तो शुरू से ही एक ताकतवर देश रहा है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि इसके राष्ट्रपति किसी और देश के नेता को कमतर आंक सकते हैं। 

यदि ऐसा होता तो वेनेजुएला, क्यूबा, ईरान जैसे देश नतमस्तक हो गए होते। वियतनाम वार में अमेरिका को शर्मिंदगी झेलनी नहीं पड़ती। क्रास्त्रो जैसे अमेरिका विरोधी नेता की दुनिया में फैन फॉलोइंग नहीं होती। मसलन, आंख में आंख दिखाकर बात करने का जज्बा होना चाहिए। इससे कोई मतलब नहीं कि सामने अमेरिका का राष्ट्रपति बैठा है। 

हमारे देश के पीएम मोदी ने इसी जज्बे के बूते पूरी दुनिया की कूटनीति में एक अलग मुकाम हासिल किया है। आज किसी और वर्ल्ड लीडर में हम पर दबंगई दिखाने की हैसियत नहीं है। हालांकि, ऐसी हिमाकत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय की गई थी, लेकिन आयरन लेडी ने तब उसका माकूब जवाब दिया था। इस लिहाज से चर्चा है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की के साथ अमेरिकी वाइट हाउस में जो हुआ उसके लिए कौन जिम्मेदार है? क्या खुद जेलेन्सकी, या अमेरिकी राष्ट्रपति या फिर दोनों?

आपको रूसी हमले से पहले का वक्त याद होगा। तब कैसे नाटो वाले जेलेंस्की को चढ़ा रहे थे। समझा रहे थे कि झुकना मत, रूस हमला करेगा तो हम लोग हैं। इसमें तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन भी शामिल थे। और जब पुतिन ने आर्मी घुसा दी तो यूक्रेन के आसमान को नो फ्लाइ जोन घोषित करने से भी सब के सब पीछे हट गए। 

वहीं, आज बाइडन के उत्तराधिकारी डोनाल्ड ट्रंप ने जिस तरह से यूक्रेन से मुंह फेर लिया है, वह किसी विश्वासघात से कम नहीं है। फिर भी यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की जब उनके दर पर अमेरिका गए तो क्या सोच कर गए, यह तो वही जानें? और वहां से बड़े बेआबरू होकर जिस तरह से निकाले गए, यह दुनिया की कूटनीति की एक अनहोनी समझी जा सकती है। हालांकि, इस बात में दम तो है ही कि जेलेंस्की बिना चुनाव कराए ही सत्ता पर काबिज हैं, क्योंकि युद्ध के बहाने उन्होंने मार्शल लॉ लागू कर रखा है। ऐसे में उन्हें यूक्रेन के लोगों का सपोर्ट भी है या नहीं क्या पता? और फिर जब यूरोप का सपोर्ट था तो वहां अमेरिका में घिघियाने क्यों लगे? जबकि उन्हें डट कर जवाब देना चाहिए था।

यहां पर भारत और उसके एक पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के हौसले की दाद देनी होगी। क्योंकि हमारा देश भारत भी 1971 में कुछ ऐसे ही हालात से गुजर रहा था। तब पूर्वी पाकिस्तान में बांग्लाभाषी मुसलमानों पर डिक्टेटर यह्या खान की आर्मी जुल्म ढा रही थी। जब यह स्थिति इंदिरा गांधी से ये देखी न गई। तब नवंबर 1971 में उन्होंने अमेरिका जाने का निश्चय किया। वह वहां गईं और जब वाइट हाउस में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन से मिलने पहुंची तो उन्हें 42 मिनट तक इंतजार कराया गया। 

वहीं, इससे पहले निक्सन और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर का पाकिस्तान प्रेम जगजाहिर था। किसिंजर तो पाकिस्तानी मदद से चीन तक पहुंच गए थे और दोनों देशों के कूटनीतिक रिश्ते बहाल करने की बुनियाद रख चुके थे। खैर, तब निक्सन भारत की महिलाओं को बदसूरत और न जाने क्या-क्या कहते पाए गए। मसलन, दो साल पहले यानी 2023 में जो डिप्लोमैटिक केबल लीक हुए थे, उससे पता चलता है कि इंदिरा गांधी के लिए भी निक्सन जैसे दोगले नेता गाली निकालते थे। 

दरअसल, उस दिन वाइट हाउस में इंतजार कराने के बाद इंदिरा गांधी ने उनको स्पष्ट बता दिया कि पूर्वी पाकिस्तान के हालात ठीक नहीं है और हम ज्यादा दिन जुल्मोसितम देख नहीं सकते। लेकिन बदला अभी बाकी था। उस दिन इंदिरा गांधी भी वाइट हाउस के ठीक सामने ब्लेयर हाउस में रुकी थीं। यहीं पर उनके पिता और भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी रूका करते थे।

ऐसे में अगले दिन जब निक्सन की मिलने की बारी आई और वो इंदिरा से मिलने ब्लेयर हाउस पहुंचे तो उन्हें बताया गया कि इंदिरा जी रेडी हो रही हैं, आप इंतजार कीजिए। और ठीक 42 मिनट का इंतजार करवाया गया। भले ही तब हमारे देश भारत की ताकत आज जैसी नहीं थी, लेकिन इंदिरा गांधी की थी। क्योंकि उनके हौसले मजबूत थे और इरादे नेक। 

इसलिए जब उनके अमेरिका से लौटने के बाद उसके शह पर तीन दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान ने जंग की शुरुआत कर दी और भारत ने जबरदस्त पलटवार किया, तब निक्सन-किसिंजर बौखला गए। उन्होंने अपना सातवां बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेजा और इंग्लैंड को अपना एयरक्राफ्ट कैरियर ईगल जहाज अरब सागर की तरफ भेजने पर राजी किया। यहां तक कि किसिंजर ने चीन से यह अपील कर दी कि उत्तर से भारत पर दबाव बनाओ। 

वो तो भला हो रूस का जिसने ऐन मौके पर अपनी परमाणु पनडुब्बियां भेजकर दोस्ती का फर्ज निभाया और पाकिस्तान के रहनुमाओं को वापस जाना पड़ा। अमेरिकी दोगलेपन को करारा धक्का तब मिला, जब पाकिस्तानी जनरल नियाजी से सरेंडकर कर दिया। हालांकि उसके बाद भी किसिंजर-निक्सन की गुस्ताखी जारी रही। लेकिन इंदिरा पर इसका कोई असर नहीं हुआ। 

इससे हतप्रभ रह गईं इंदिरा गांधी ने जंग के बीच ही 15 दिसंबर को राष्ट्रपति निक्सन के नाम एक मशहूर चिट्ठी लिखी। फिर वाशिंगटन में भारत के राजदूत एलके झा से कहा कि जाओ और ये चिट्ठी पहुंचाओ। तब रूस-यूक्रेन जंग की तरह हम पूर्वी और पश्चिमी दोनों मोर्चे पर लड़ ही तो रहे थे। 

दरअसल, इस चिट्ठी में इंदिरा ने अमेरिकी दोगलेपन की बखिया उधेड़ दी थी, इसलिए आप भी इसे पढ़िए..उन्होंने लिखा था..... ‘प्रिय श्रीमान राष्ट्रपति, मैं आपको एक बहुत ही दुखद क्षण में यह पत्र लिख रही हूं, जब हमारे दोनों देशों के संबंधों में तनाव आ गया है। मैं अपने सभी भावनाओं को अलग रखकर शांति से यह समझने की कोशिश कर रही हूं कि इस त्रासदी की जड़ें कहां हैं।

इतिहास में ऐसे क्षण आते हैं जब अंधकार और त्रासदी के बीच हमें अतीत की महान घटनाओं से प्रेरणा लेनी चाहिए। अमेरिका की आजादी के घोषणा-पत्र ने दुनिया भर में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वालों को प्रेरित किया। इस घोषणा-पत्र में कहा गया था कि जब कोई सरकार लोगों के जीवन, स्वतंत्रता और खुशहाली के अधिकारों को नष्ट करने लगे, तो लोगों को उसे बदलने या समाप्त करने का अधिकार है।

जबकि 25 मार्च 1971 से बांग्लादेश में जो कुछ भी हो रहा है, उसे पूरी दुनिया ने देखा है। 7.5 करोड़ लोगों ने महसूस किया कि न तो उन्हें जीने की आज़ादी है, न स्वतंत्रता और न ही खुश रहने का कोई अवसर। पूरी दुनिया के समाचार पत्रों, रेडियो और टेलीविज़न ने इन घटनाओं को स्पष्ट रूप से दिखाया है। अमेरिका के कई विद्वानों ने भी इस संकट के वास्तविक कारणों को समझाया है।

आज जो युद्ध चल रहा है, उसे रोका जा सकता था। पिछले नौ महीनों में दुनिया के बड़े नेताओं ने इस समस्या को हल करने की कोशिश नहीं की। मैंने कई देशों का दौरा किया और शांति बनाए रखने की अपील की, लेकिन किसी ने इस गंभीर मुद्दे की जड़ को सुलझाने की कोशिश नहीं की। शरणार्थियों के प्रति सहानुभूति तो दिखाई गई, लेकिन उनकी समस्या के मूल कारण पर ध्यान नहीं दिया गया।

अगर दुनिया के बड़े देशों, खासकर अमेरिका, ने पाकिस्तान के नेताओं पर दबाव डालकर शेख मुजीबुर रहमान को रिहा करवाया होता, तो युद्ध को टाला जा सकता था। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इसके बजाय, पाकिस्तान में दिखावटी सरकार बनाई गई और चुनावों का नाटक किया गया।

अमेरिका ने भी माना कि मुजीब इस पूरे मामले का केंद्र बिंदु हैं और लंबे समय में पाकिस्तान को पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) को अधिक स्वायत्तता देनी होगी। लेकिन यह कहकर कुछ भी नहीं किया गया कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति याह्या खान की स्थिति नाजुक है।

श्रीमान राष्ट्रपति, मैं आपसे पूरी ईमानदारी से पूछती हूं– क्या एक व्यक्ति, शेख मुजीबुर रहमान, को रिहा करवाना या उनसे गुप्त बातचीत करना, युद्ध से भी ज्यादा खतरनाक था? पाकिस्तान के शासकों को लगा कि वे जो चाहें कर सकते हैं, क्योंकि किसी ने भी– यहां तक कि अमेरिका ने भी– यह नहीं कहा कि पाकिस्तान की अखंडता के साथ उसके लोगों के मानवाधिकार भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं।

हमने पूरे नौ महीने तक धैर्य रखा और युद्ध से बचने की कोशिश की। लेकिन जब पाकिस्तान ने 3 दिसंबर को दिनदहाड़े हमारे हवाई अड्डों पर बमबारी की, तो हमारे पास जवाब देने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था।

हम पर आरोप लगाया जा रहा है कि हमने इस संकट को बढ़ावा दिया, लेकिन यह पूरी तरह से गलत है। मैंने अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया और बेल्जियम की यात्रा करके सभी को बताया कि एक राजनीतिक समाधान की तुरंत जरूरत है। जब डॉ. हेनरी किसिंजर अगस्त 1971 में भारत आए, तो मैंने उनसे भी यही बात कही। लेकिन आज तक, हमें किसी भी तरह के समाधान का कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिला है।

सादर,

इंदिरा गांधी

स्पष्ट है कि इंदिरा गांधी के निक्सन के प्रति दृढ़ रुख और जेंलेंस्की के साथ ट्रंप के व्यवहार की तुलना कूटनीति में दृढ़ता, रणनीतिक गठजोड़ और गरिमा बनाए रखने के महत्व को उजागर करती है। जहां इंदिरा गांधी भारत के हितों पर अडिग रहीं। वहीं, ज़ेलेंस्की की स्थिति यह दिखाती है कि जब कोई नेता कमजोर स्थिति में हो और एक महाशक्ति पर निर्भर हो, तो उसके लिए अपने हितों को सुरक्षित रखना कितना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।

तभी तो बातचीत के दौरान दोनों राष्ट्रपति की भाव-भंगिमा पर 'मॉस्को टाइम्स' ने रूसी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता ज़ाख़ारोवा के हवाले से यहां तक कह दिया कि गनीमत है कि व्हाइट हाउस में चीख-चिल्लाहट भरी इस बातचीत में ट्रंप ने ज़ेंलेस्की पर हाथ नहीं उठाया। उन्होंने सिर्फ ज़ेलेंस्की के लिए अपशब्दों को इस्तेमाल करते हुए कहा कि ट्रंप और वेंस ने खुद को जिस तरह से रोके रखा वो तो धैर्य का जादू जैसा है। इसी अखबार के अनुसार पूर्व रूसी राष्ट्रपति और पुतिन के सहयोगी दिमित्री मेदवेदेव ने भी ज़ेंलेस्की के लिए गुस्ताख़ शब्द का इस्तेमाल करते हुए कहा कि ओवल ऑफिस में उनके साथ सही सुलूक हुआ। बता दें कि मेदवेदेव फिलहाल रूस की सुरक्षा परिषद के उप प्रमुख हैं। 18 फ़रवरी 2025 को सऊदी अरब में रूस और अमेरिका के बीच बातचीत में वो प्रमुख वार्ताकारों में से एक थे।

वहीं, रूस के प्रमुख मीडिया संस्थान आरटी ने विदेश मामलों के कई विशेषज्ञों के हवाले से लिखा है कि यूक्रेन में ज़ेलेंस्की के शासन की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। अखबार ने ग्लोबल अफेयर्स के रूस में प्रमुख संपादक फ्योदोर लुक्यानोव के हवाले से लिखा है कि ज़ेलेंस्की ने ट्रंप के आने के बाद अमेरिकी राजनीति में आए बदलाव को कम करके आंका है। वहीं, एक अन्य विशेषज्ञ अनास्तासिया लिकाचेवा के हवाले से उसने लिखा है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में लोगों ने ऐसा दृश्य लंबे समय से नहीं देखा था। ये किसी रियलिटी टीवी शो जैसा था। ये सारे संकेत बताते हैं के आने वाले दिन और कुछ हफ़्ते बेहद ख़तरनाक होने वाले हैं।

वहीं, एमजीआईएमओ यूनिवर्सिटी में इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ के डायरेक्टर मैक्सिम सचकोव ने 'आरटी' से कहा है कि ''ज़ेलेंस्की ने ट्रंप के साथ बातचीत में वो सारे बटन दबा दिए, जो उन्हें नहीं दबाने चाहिए थे। ज़ेलेंस्की के अड़ियल रवैये ने रूस-यूक्रेन के बीच समझौता कराने का ट्रंप का बड़ा सपना तोड़ दिया। ज़ेलेंस्की की इस यात्रा ने रूस को एक और अतिरिक्त मौका मुहैया करा दिया और उसे इसका इस्तेमाल काफी होशियारी से करना चाहिए।''

वहीं, 'आरटी' ने इस तीखी बहस के बाद डोनाल्ड ट्रंप के उस बयान को प्रमुखता से छापा है, जिसमें उन्होंने कहा है कि यूक्रेन को अमेरिकी सैन्य मदद सिर्फ ज़ेंलेस्की को मजबूत ही करेगा। इससे वो और ज्यादा बातचीत से दूर भागेंगे। हम ऐसे लोगों को नहीं चाहते जो इन समझौतों से मजबूत हो जाए और फिर आंख दिखाए। हम नहीं चाहते कि ये जंग दस साल तक चलती रही।

उल्लेखनीय है कि व्हाइट हाउस में ज़ेंलेस्की से बातचीत के बाद ट्रंप ने पत्रकारों से कहा था कि यूक्रेनी राष्ट्रपति कुछ ज्यादा ही बढ़-चढ़ कर बोल रहे थे। वो रूस के साथ समझौते की इच्छा नहीं रखते। वहीं, रूस की समाचार एजेंसी 'तास' ने फॉक्स न्यूज़ के साथ ज़ेलेंस्की के इंटरव्यू का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि उन्होंने इस बहस के बाद ट्रंप से माफ़ी मांगने से इनकार कर दिया। एजेंसी के मुताबिक़ जे़ेलेंस्की ने कहा, ''मैं राष्ट्रपति ट्रंप का सम्मान करता हूं। मैं अमेरिकी लोगों का सम्मान करता हूं। मेरा मानना है कि हमारी बातचीत खुली और ईमानदार थी। और मुझे नहीं लगता कि हमने कुछ खराब काम किया।

इस प्रकार से जहां कई रूसी मीडिया आउटलेट्स ने ट्रंप और ज़ेलेंस्की इस बातचीत के विवाद में फंसने के लिए यूक्रेनी राष्ट्रपति को दोषी ठहराया है, वहीं यूक्रेनी मीडिया ने ज़ेलेंस्की का पक्ष लिया है। कई यूक्रेनी मीडिया आउटलेट्स में प्रमुख 'कीएव इंडिपेंडेंट' ने अपने एक संपादकीय में लिखा कि अब साफ बोलने के समय आ गया है। इस युद्ध में अमेरिकी नेतृत्व ने पाला बदल लिया है। लेकिन अमेरिकी लोगों ने पाला नहीं बदला है। उन्हें अब अपनी आवाज़ उठानी चाहिए। पिछले कई हफ्तों में, अमेरिकी नेतृत्व ने यूक्रेन के प्रति अपनी दुश्मनी साफ तौर पर दिखाई है। ट्रंफ ने अपने बयानों और नीतियों को रूस के पक्ष में कर दी हैं।  अमेरिका के सहयोगी यूक्रेन के राष्ट्रपति इतिहास में पहले ऐसे विश्व नेता बने जिन्हें व्हाइट हाउस से बाहर निकाला गया। जबकि वो कोई तानाशाह नहीं थे, न कोई बदनाम राजनेता थे। वो यूक्रेन के राष्ट्रपति हैं जो 21वीं सदी में सबसे भयावह आक्रमण से पीड़ित देश के नेता हैं। वो देश जहां अमेरिकी प्रशासन ने शांति लाने की कसम खाई थी।

'कीएव इंडिपेंडेंट' आगे लिखता है कि 'अमेरिकी राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति ने यूक्रेन को मिल रही मदद के लिए कृतज्ञ न होने के लिए ज़ेलेंस्की को फटकार लगाने की कोशिश की। क्योंकि ट्रंप चाहते थे कि वो उनके सामने झुकें। निश्चित रूप से ज़ेलेंस्की खुद को संयमित करके और अपनी भावनाओं को काबू करके बात कर सकते थे लेकिन उन्हें ऐसी स्थिति में डाल दिया गया था कि वो इससे पार नहीं पा सकते थे। क्योंकि ट्रंप ने कई बार गलत तथ्य और आंकड़े पेश किए, जबकि ज़ेलेंस्की ने उन्हें ठीक किया। 

अखबार के मुताबिक, जब ट्रंप ने कहा कि ज़ेलेंस्की शांति में अड़चन डाल रहे हैं, भले ही उनका देश बर्बाद हो गया है। तब यूक्रेनी राष्ट्रपति ने बताया कि ट्रंप ने कई बातें ऐसी की, जिससे ऐसा लगा कि ये पुतिन के निर्देश में क्रेमलिन से आई हैं। ऐसे में ज़ेलेंस्की ने ठीक ही कहा कि हो सकता है कि पुतिन यह जानकारी साझा कर रहे हों कि उन्होंने हमें नष्ट कर दिया। लेकिन हमने ट्रंप से पूछा कि पिछली बार राष्ट्रपति पुतिन से आपने कब बात की थी और उन्होंने क्या कहा था?"

वहीं, 'यूक्रेनस्का प्रावदा' ने भी ज़ेलेंस्की के फॉक्स न्यूज़ को दिए गए इंटरव्यू का ज़िक्र किया है, जिसमें उन्होंने ट्रंप से माफी मांगने से इनकार किया था। ज़ेलेंस्की ने कहा था, ''मुझे नहीं लगता कि हमने कुछ खराब काम किया है। हम लोकतंत्र और स्वतंत्र मीडिया का पूरा सम्मान करता है। लेकिन कुछ चीजें हैं जहां हमें यूक्रेन की स्थिति समझना होगा।'' इसलिए सवाल उठ रहे हैं कि क्या जेलेन्सकी, इंदिरा गांधी की तरह अमेरिकी राष्ट्रपति को करारा जवाब दे पाएंगे? या फिर मन मसोसकर रह जाएंगे, गुज़श्ता वक्त बताएगा।

- कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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