लॉकडाउन में शहरों का हाल खूब सुना होगा, आइये जरा गाँवों की देखी-सुनी सुनाते हैं

lockdown village
मोहन सिंह । May 9 2020 12:27PM

यह सोचने की बात है कि मुसलमानों के लिए यह रमजान का पाक महीना है और अशरफ मियां अपने ‘नापाक’ आदत को पूरा करने पे तुले हैं। इससे पहले जब कोरोना संक्रमण ने अपना पैर फैलाना शुरू ही हुआ था, गांव में एक विचित्र घटना दर्ज हुई।

पिछले एक महीने से कोरोना महामारी रोकने के जो उपाय किए गए वह अचानक, शराब की दुकान खुलते ही गांव से लेकर शहर तक तार-तार नजर आया। लोगों के धैर्य और संयम का बांध टूट गया। अचानक लोगों के “हैपिनेस इंडेक्स” में ऐसा ‘उछाल' ट्रेंड होने लगा कि पिछली पाबंदी का सारा रिकॉर्ड ध्वस्त हो गया। बता दें “हैपिनेस इंडेक्स” भूटान जैसे छोटे देश में लोगों की खुशी मापने का एक मानक है। शराब की दुकानें क्या खुलीं कुछ लोगों के लिए जैसे जन्नत के दरवाजे खुल गए। 

राज्य सरकारों ने शराब की बिक्री से प्राप्त होने वाले राजस्व के आंकड़े दनादन जारी किए तो कुछ पियक्कडों ने यह बताने में देरी नहीं की कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद दूसरे नम्बर पर सबसे लोकप्रिय ‘ब्रांड’ यह पेयपदार्थ ही है। दुकान बंदी के दौरान गांव में “महुब्राण्ड” भी खासा लोकप्रिय रहा। गाँव के बबलू पटेल अपने साथी ट्रैक्टर ड्राइवर लक्षन के साथ बगल के गांव से एक दिन ‘महुआसोमरस’ का पान कर अभी खुमारी से उबर ही रहे थे कि दूसरे दिन किसान, शंकर सिंह ‘महुआसोमरस’ छककर पिए और खुद को पूरी तरह “कोरांनटाइन” कर लिया।

इसे भी पढ़ें: न्यायपालिका के दबाव में होने का दुष्प्रचार करने वाले जरा गिरेबाँ में झाँक कर देखें

चाय-पान करने की सुध भी नहीं रही। ठर्रा से जब जी भर गया तो ठीक तीसरे दिन जब अंग्रेजी शराब की दुकान खुली तो इन ‘सज्जनों’ की खुशी का ठिकाना न रहा। उस दिन सफाईकर्मी दिलीप की आंखों में गजब की चमक थी। बबलू वैगरह भी मेहनत से पैदा किए गेहूँ को बेचकर ‘सोमरस’ का आनंद लेने से नहीं चूके। अब तो आलम यह है कि अशरफ मियां सहराब सुबह के पांच बजे ही दुकान पर पहुँच गए। तब तक गांव का ‘सेल्समैन’ भी दुकान पर पहुंच चुका था। अशरफ ने ‘माल’ की मांग की। दुकानदार ने बताया कि दुकान दस बजे खुलेगी। अशरफ मियाँ अपनी जिद पर कायम की ‘माल’ इसी वक्त चाहिए। अगर दस बजे दुकान खुलती है तो तुम क्यों पाँच बजे सुबह ही दुकान पर आ गए। 

यह सोचने की बात है कि मुसलमानों के लिए यह रमजान का पाक महीना है और अशरफ मियां अपने ‘नापाक’ आदत को पूरा करने पे तुले हैं। इससे पहले जब कोरोना संक्रमण ने अपना पैर फैलाना शुरू ही हुआ था, गांव में एक विचित्र घटना दर्ज हुई। पचहत्तर साल के विक्रम काका को, मुँहबोले किसान जनार्दन सिंह ने अपने अनुभव के आधार पर सलाह दी कि कोरोना का असली काट शराब है। विक्रम काका ने न आव देखा न ताव, एक बोतल ‘मिलिट्री ब्रांड’ शराब अपने आसामी (बटाईदार) किशन से लगान के एवज में मंगा ली। ठेपि से तीन-चार ठेपी निकाल कर लेने लगे। तीन दिन तक निर्बाध यह क्रम चला।

घर की बहुएँ चिंतित हुई कि अचानक ‘बाबा’ को यह क्या हो गया! शाम के वक्त उनकी आंखें बड़ी-बड़ी और डरावनी लगने लगीं। हालांकि काका के पैर गठिया से पहले ही कमजोर हो चुके हैं। बात जब काका की भौजाई तक पहुँची तो वो मुस्कुरा के कहने लगीं कि इस उम्र में यह नया शौक़ क्यों पाल रहे हैं? बहु बेटी, नाती-नतिनी सब क्या कहेंगी आपको? यह वाक्य जब धीरे-धीरे परिवार और पूरे गांव को पता चला तो विक्रम काका ने बोतल अपने नौकर ‘मंगल’ के हवाले कर किसी तरह अपने पचहत्तर साल की उम्र में उपजे नए शौक से पिंड छुड़ाया।

इसे भी पढ़ें: लॉकडाउन लगाते रहना समस्या का हल नहीं, बंदिशों के साथ आगे बढ़ना होगा

इन तमाम घटनाओं के अलावा गांवों में आजकल कुछ ऐसा भी घटित हो रहा है जो समाजशास्त्रीय लिहाज से दिलचस्प अध्ययन का विषय है। यह बदलाव भी इन्हीं तीन चार दशक के दौरान हुए हैं। गांव के लोग ‘आपदधर्म’ भूल रहे हैं। पारिवारिक ताना-बाना तो छिन्न भिन्न हुए ही हैं। भाई-भाई के बीच अविश्वशनीयता की दीवार खड़ी हो गई है। गांव के मुखिया, सरपंच, प्रधान अब ‘वो’ नहीं रहे जिनकी पुकार पर पूरा टोला-मोहल्ला और गांव उनके पीछे हो लेता था। इधर 'रेखिया उठान' (किशोर) पीढ़ी के पास पहुंचे स्मार्ट फ़ोन ने लोक लाज और लोक मर्यादा की सारी हदें पार कर दी हैं। अश्लील गाने और वीडियो की भरमार है। 

गांव के लोगों में एक अजीब किस्म का चरित्र देखने को मिल रहा है, खासकर-सफेद पोश लोगों में। यह लोग राजनीति को समाज सेवा की बजाय किसी भी तरह किसी, के साथ मिलकर, कमाने-खाने और ऐशो-आराम का साधन समझते हैं। ग्राम-प्रधान स्तर से यह कहानी शुरू होती है और तीसरे-चौथे दर्जे के कर्मचारियों के मिली भगत से, भ्रष्टाचार फलता-फूलता है। निचले स्तर पर पूरी नौकरशाही, जातीय आधार पर बँटी है। यह भ्रष्ट नौकरशाही, सरकारी नीतियों के ठीक से अमल होने में बड़ी बाधा है। यही नहीं लोग यह भी भूल गए से लगते हैं कि, कोरोना जैसी महामारी के समय, यह याद करें कि बाढ़, तूफान और प्राकृतिक आपदा के वक्त कैसे जीवन व्यतीत किया जाता है।

कोरोना वायरस के प्रभाव से पूर्वी उत्तर प्रदेश के तीन जिले- बलिया, चंदौली और सोनभद्र फिलहाल मुक्त हैं। मतलब की ‘ग्रीनजोन’ में हैं। पर आपसी विवाद, रोजाना मारपीट, जमीन के विवाद, बे-वजह रोज के झगड़े और जातीय झगड़ों के लिहाज से ‘बागी बलिया’ जनपद को तो ‘रेड जोन’ में होना चाहिए। ऐसे में जब श्रमिक एक्सप्रेस से प्रवासी मजदूर गांव-गांव पहुच रहे हैं और सरकारी तंत्र की निगरानी में पूरे चौदह दिन तक ‘क़्वारेंटाइन’ हो रहे हैं तो सरकारी अमले की सांसें तो फूल ही रही हैं, अफवाह के जैसे पंख लग जा रहे हैं।

सोशल मीडिया के इस दौर में जब पूरी दुनिया घरों में कैद है, ये अफवाहें जल्द ही अंधड़ में बदल जा रही हैं। गांव के कुछ अधकचरे विशेषज्ञ, कोरोना की उत्पत्ति को तब्लीगी जमात से लेकर चीन के खान-पान की पद्धति की उपज बताने में लगे हैं। गांव में इन दिनों सक्रियता और उदासी साथ-साथ नजर आ रही है। पिछले तीन-चार दशकों में गांवों में एक अर्ध-शिक्षित-अधकचरी संस्कृति पोषक, मुफ्तखोर-कामचोर और सफेद पोश तबका पैदा हुआ है, जो सरकार और समाज के राजनेताओं के संपर्क में आकर वह हर कुछ अपने लिए हासिल करने के लिए बेचैन है जिन पर गरीबों का पहला हक होना चाहिए, मसलन अन्तोदय कार्ड धारक- लालकार्ड धारक और मनरेगा के तहत जॉब कार्ड धारक। 

अगर इन कार्ड धारकों की ठीक से जाँच हो जाए तो पता चल जाएगा कि इन योजनाओं के तहत जो लाखों करोड़ों रूपये खर्च हो रहे हैं, वह ज्यादातर सक्षम लोगों को ही हासिल हो रहे हैं। यानी गरीबों के हक़ छीन रहे है और ‘खाए-पिए-अघाए’ लोग योजनाओं के पैसे से ऐश की जिंदगी जी रहे हैं। यह तबका ही कोरोना महामारी में सबसे ज्यादा बेचैन-परेशान है, क्योंकि गांवों में बड़े पैमाने पर मनरेगा के काम शुरू नहीं हुए हैं।

मध्य जून के आसपास बरसात का मौसम भी शुरू हो जाएगा और प्रवासी मजदूरों के घर वापसी की स्थिति में, फर्ज़ी कार्ड धारकों का काम छीन जाने का भय भी सता रहा है। दूसरा तबका जो गांव-बाजार के चट्टी-चौराहों पर ज्यादातर बेवजह आबाद रहने को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानता है, वह पुलिस की मार के भय से अपने को इस अधिकार से वंचित महसूस कर रहा है। वे पुलिस प्रशासन को तो कोस ही रहे हैं, सार्वजनिक स्थान पर एक दूसरे से दूरी बनाए रखने के सरकारी निर्देशों की सरे आम धज्जियां उड़ा रहे हैं। 

बेबस अन्नदाता बेचारा किसान उदासी के गर्त में डूबा पड़ा है। उसके सीने पर जैसे साँप लोट रहे हों। बारिश ने उसकी चिंता बढ़ा दी है। अप्रैल-मई के महीनों में ऐसी बेमौसमी बरसात ने किसान के किए धरे पर जैसे पानी फेर दिया हो। तीस-चालीस फीसद फसलों की कटाई के बाद, अनाज अभी खलिहान में पड़ा है। बटाईदार किसानों के सामने यह समस्या आ पड़ी है कि वे खेत मालिकों की मालगुजारी और आगामी खरीफ फसलों की बुआई की तैयारी कैसे करें? 

इसे भी पढ़ें: इस तरह धीरे-धीरे वापस पटरी पर आ सकती है देश की अर्थव्यवस्था

सरकारी तंत्र तो पूरी मुस्तैदी से कोरोना महामारी के संकट से जूझ रहा है। ‘जान है तो जहान है’ यह मंत्र तो अपना काम कर रहा है, पर अन्न के बिना ‘जान’ भी कैसे बचेगी ? कबीर भले फरमा के गए है कि ”उदर समाता अन्न दे, तनहीँ समाता चीर” लेकिन अभी तो अन्न और वस्त्र, इन दोनों चीजों के आसानी से प्राप्त हो जाने पर ही सवाल खड़ा हो रहा है। अगर कोरोना महामारी पर यथाशीघ्र नियंत्रण नहीं पाया, तो 'भय-भीड़ और भूख' मिलकर, समाज के सारे तंत्र के सामने एक गम्भीर चुनौती खड़ी कर देंगे।

-मोहन सिंह

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दोकटी, बलिया के रहने वाले हैं।

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़