क्या महाराष्ट्र में मिली हार के गहरे निहितार्थ समझ पाएगी कांग्रेस ?

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कांग्रेस नेताओं को कभी अपनी हिन्दू और सनातनी पहचान पर लज्जा या असुरक्षा महसूस नहीं हुई और यही इनकी अखिल भारतीय लोकप्रियता एवं विश्वसनीयता का आधार था। आज का कांग्रेस नेतृत्व इस मामले में बहुत ही कृपण और असुरक्षा की मार से पीड़ित है।

कांग्रेस महाराष्ट्र में चुनाव हार गई। वह राष्ट्रवादी कांग्रेस से भी पीछे यानि चौथे नम्बर की पार्टी हो गई। असल में यह होना ही था, सभी पूर्वानुमान इसकी मुनादी कर रहे थे। यूं तो 2014 से शुरू हुआ कांग्रेस का चुनावी राजनीति में पराजय का सिलसिला अब कतई आश्चर्य महसूस नहीं कराता है लेकिन महाराष्ट्र से लगातार दूसरी हार और चौथा नम्बर विस्मयकारी है इसके निहितार्थ कांग्रेस आलाकमान के स्तर पर तलाशे जाने ही चाहिये। क्योंकि महाराष्ट्र देश में कांग्रेस राजनीति का सबसे सशक्त शक्ति केन्द्र रहा है। देवेंद्र फडणवीस से पहले सिर्फ एक बार ही यहां शिवसेना बीजेपी की सयुंक्त सरकार गैर कांग्रेस के नाम पर रही है यानि यह राज्य कांग्रेस का गढ़ रहा है। जिन परिस्थितियों में इस बार एक नई उम्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने यहां गैर बीजेपी दलों को अप्रासंगिक करके रख दिया है वह सियासी जानकारों के लिये शोध का विषय है। इस जीत के लिये देवेंद्र फडणवीस अभिनंदन के अधिकारी हैं। महाराष्ट्र साधारण राज्य नहीं है बल्कि यह कांग्रेस नेतृत्व की उर्वरा भूमि रहा है। इसलिये आज यहां की हार को गहरे विश्लेषण की दरकार है।

महाराष्ट्र में शर्मनाक हार 2019 की मोदी सुनामी के पूरे पांच महीने बाद हुई। क्या इस अवधि में कांग्रेस ने अपने पुनरुद्धार के लिये मोदी को कोसने के अलावा कुछ ठोस काम करने की कोशिशें की है? इस पर ईमानदारी से आत्ममंथन की आवश्यकता है। संसदीय राजनीति में चुनावी हार जीत सामान्य अंतर्निहित घटनाक्रम होता है लेकिन लगातार यही हालात बने रहे तब इस सबसे बड़ी सियासी पार्टी के लिये उसके अस्तित्व पर सवाल उठना लाजिमी है।

महाराष्ट्र की हार असल में मौजूदा नेतृत्व को बैताल की तरह लाद कर चलने की कांग्रेस नेताओं की भीरुता और वैचारिक दिवालियेपन का परिणाम है। हकीकत यह है कि आज आलाकमान न नेहरु को समझता है न इंदिरा गांधी को। शेष अधिकतर कांग्रेसी सिर्फ सत्ता के लिये नेहरू-गांधी टैग पर निर्भर हैं वे नए भारत के जनमन को समझने के लिये तैयार ही नहीं हैं। ऐसा लगता है मानो इस ऐतिहासिक पार्टी को आउटसोर्सिंग पर चंद वामपंथी बुद्धिजीवियों के सुपुर्द कर दिया गया है। इस वाम आवरण ने भारत की आजादी के इस प्रेरणादायक लोकमंच (काँग्रेस) को पहले चाटुकार जमात के साथ युग्म बनाकर सत्ता और चुनावी मंच में बदला और अब इस अखिल भारतीय दल को जेएनयू जैसे सीमित और अस्वीकृत परकोटे में सीमित कर देने पर आमादा है।

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महाराष्ट्र में वीर सावरकर को लेकर जो स्टैंड कांग्रेस ने अख्तियार किया वह जेएनयू की बौद्धिक जुगाली के लिये तो रोचक हो सकता था लेकिन मराठी वोटर के लिये यह उनकी अस्मिता पर हमले की तरह अहसास करा रहा था। मोदी और अमित शाह के प्रति नफरत की बेइंतहा हद ने विपक्षियों को लगता है दिमागी तौर पर पूरी तरह से विचलित करके रख दिया है। सावरकर के मामले में यह साबित हो चुका है कि वामपंथी विचारों पर टिके कांग्रेस के नेताओं ने अपने ही पुरखों को लाल बस्ते में स्थाई रूप से बांध कर रख दिया है। अनुच्छेद 370 के मामले में भी यही हुआ। एयर स्ट्राइक, सर्जिकल स्ट्राइक, राफेल की शस्त्र पूजा, कमलेश तिवारी का मर्डर या राम मंदिर पर बहस हर मामले में कांग्रेस उस टुकड़े-टुकड़े और खान मार्केट गैंग के यहां वैचारिक रूप से गिरवी रखी हुई दिखी जिसका विस्तार सिर्फ जेएनयू या गोपाल भवन तक सिमटा है।

'सारे भारत से नाता है, सरकार चलाना आता है' यह नारा कभी कांग्रेस का मंत्र था लेकिन आज कांग्रेस चुनावी मैदान से गायब हो चुकी है और उसका फोकस नई आजादी के उन लड़ाकों से नजर आता है जो भारत की बर्बादी और हर घर से अफजल निकालने की बातें करते हैं। महान विरासत की पूंजी रखने वाली इस पार्टी को यह समझना ही होगा कि नया भारत अब तुष्टीकरण को बर्दाश्त नहीं कर सकता है। बहुलतावाद के लिये उसकी परम्पराओं को तिरोहित नहीं किया जा सकता है। राफेल की शस्त्र पूजा पर 24 अकबर रोड़ में मजाक उड़ाया जाना आज भारत के बहुसंख्यक समाज को नागवार गुजरता है। इंदिरा गांधी ने कभी अपनी रूद्राक्ष की माला को तन से ओझल नहीं होने दिया था, राजीव गांधी ने रामलला के ताले खुलवाये, सरदार पटेल ने सोमनाथ का वैभव लौटाया, राजेन्द्र बाबू ने नेहरू की मनाही को दरकिनार कर सोमनाथ की प्राण प्रतिष्ठा में गर्व के साथ शिरकत की।

इन पीढ़ियों के कांग्रेस नेताओं को कभी अपनी हिन्दू और सनातनी पहचान पर लज्जा या असुरक्षा महसूस नहीं हुई और यही इनकी अखिल भारतीय लोकप्रियता एवं विश्वसनीयता का आधार था। आज का कांग्रेस नेतृत्व इस मामले में बहुत ही कृपण और असुरक्षा की मार से पीड़ित है उसे गुलाम नबी, शशि थरूर, मणिशंकर अय्यर और अधीर रंजन जैसे नेताओं ने बंधक बना रखा है। राहुल गांधी आज भी जेएनयू और विदेश से तालीम लेकर आये अपने जीन्स झोलाछाप सलाहकारों से घिरे रहते हैं जिनको भारत के अंतर्मन की कोई समझ नहीं है। उनका एजेंडा तो सिर्फ भारत की सनातन परम्पराओं, शिवाजी, सावरकर, महाराणा प्रताप की जगह टीपू सुल्तान, अकबर महान और औरंगजेब की शासनकला को श्रेष्ठ साबित करना है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मानस को बहुत करीने से पढ़ लिया है इसलिए वे करोड़ों भारतीयों के मन और मस्तिष्क के नजदीक महसूस होते हैं। वह वोटिंग से पहले केदारनाथ में मत्था टेकते हैं तो कभी कहीं पशुपतिनाथ तक नंगे पैर परिक्रमा करते नजर आते हैं। वह नवरात्र में अपने व्रत का पालन अमेरिका में जाकर भी करते हैं। भारत हजारों साल से बीसियों आतातायियों के आक्रमण के बावजूद इन्हीं परम्पराओं पर गौरवबोध के साथ अवलंबित है। इंदिरा गांधी इसे समझती थीं और आज मोदी भी इसे अपनाए हुए हैं। यही तत्व मोदी को विजयी बनाये हुए है। बेहतर होगा इन दो राज्यों की लगातार दूसरी पराजय से कांग्रेस पार्टी कुछ सबक सीखने की कोशिश करे।

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हकीकत यह है कि समाज एक जीवंत इकाई होती है उसकी चेतना के स्तर और विषय वक्त के साथ बदलते रहते हैं। भारतीय समाज आज मार्क्सवादी नेहरु मॉडल को खारिज कर रहा है क्योंकि यह मॉडल उसे उसकी ऐतिहासिक उपलब्धि से वंचित कर औरंगजेब जैसे क्रूर शासक के नजदीक जाने को विवश करता रहा है। 67 साल तक इस मनोविज्ञान ने समाज को परिचालित किया पर अब नया भारत इतिहास, विज्ञान, साहित्य से लेकर लोकजीवन के हर क्षेत्र में अपनी मौलिक निधि को खोजने और उसके गौरवगान में भरोसा करता है। आज सूचना के उन्नत तकनीकी साधनों ने उसके विमर्श के फलक को नया आकार दे दिया है। कांग्रेस इसे जितना जल्द समझ ले उतना ही भारत की संसदीय राजनीति के लिये बेहतर है, क्योंकि मजबूत विपक्ष से ही जम्हूरियत जनोन्मुखी बनी रह सकती है।

-डॉ. अजय खेमरिया

(लेखक राजनीति विज्ञान अध्यापन से जुड़े हैं)

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