श्रद्धा के बाद निक्की...आखिर कब तक ऐसे हत्याकांड होते रहेंगे? क्या हत्यारों की रूह नहीं काँपती?

Crime against Women
Prabhasakshi
ललित गर्ग । Feb 17 2023 1:14PM

प्रेम-पर्व वेलेंटाइन डे यानी 14 फरवरी की सुबह सूचना मिलती है कि राजधानी दिल्ली के नजफगढ़ इलाके के मित्रांव गांव के बाहरी इलाके में एक ढाबे में एक युवती की हत्या कर शव छिपा दिया गया है, पुलिस की टीम ने मौके पर पहुंचकर शव को बरामद करती है।

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में फिर एक और श्रद्धा हत्याकांड जैसा त्रासद, अमानवीय एवं खौफनाक मामला सामने आया है। दिल्ली के नजफगढ़ इलाके में एक युवती निक्की यादव की उसी के प्रेमी साहिल गहलोत द्वारा हत्या कर उसका शव ढाबे के फ्रिज में छुपाने के मामले ने रोंगटे खड़े कर दिये, रूह को कंपा दिया। समाज में बढ़ती हिंसक वृत्ति, क्रूरता एवं संवेदनहीनता से केवल महिलाएं ही नहीं बल्कि हर इंसान खौफ में है। मानवीय संबंधों में जिस तरह से महिलाओं की निर्मम हत्याएं हो रही हैं उसे लेकर बहुत सारे सवाल उठ खड़े हुए हैं। विडंबना यह है कि समाज का दायरा जैसे-जैसे उदार एवं आधुनिक होता जा रहा है, जड़ताओं को तोड़ कर युवा वर्ग नई एवं स्वच्छन्द दुनिया में अलग-अलग तरीके से जी रहा है, संबंधों के नए आयाम खुल रहे हैं, उसी में कई बार कुछ युवक अपने लिए बेलगाम जीवन सुविधाओं को अपना हक समझ कर ऐसी हिंसक एवं अमानवीय घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। यद्यपि समाज लिव-इन रिलेशनशिप पर सवाल उठाता रहा है लेकिन जो कुछ समाज में हो रहा है वह पाश्विकता एवं दरिंदगी की हद है। वैवाहिक हो या लिव-इन रिलेशनशिप, हिंसात्मक व्यवहार और अंत को बीमार मानसिकता से नहीं समझा जा सकता। श्रद्धा हत्याकांड जैसे कई कांड सामने आ चुके हैं। एक के बाद एक टुकड़ों-टुकड़ों में शव मिल रहे हैं। समाज बार-बार सिहर उठता है, घायल होता है। इस सिहरन को कुछ दिन ही बीते होते हैं कि नया निक्की हत्याकांड सामने आ जाता है। इन प्रदूषित एवं विकृत सामाजिक हवाओं को कैसे रोका जाए, यह सवाल सबके सामने है। समाज को उसकी संवेदनशीलता का अहसास कैसे कराया जाए और समाज में उच्च मूल्य कैसे स्थापित किए जाएं, यह चिंता का विषय है।

प्रेम-पर्व वेलेंटाइन डे यानी 14 फरवरी की सुबह सूचना मिलती है कि राजधानी दिल्ली के नजफगढ़ इलाके के मित्रांव गांव के बाहरी इलाके में एक ढाबे में एक युवती की हत्या कर शव छिपा दिया गया है, पुलिस की टीम ने मौके पर पहुंचकर शव को बरामद करती है। घटना का कारण बताया जा रहा है कि कुछ दिनों पहले ही आरोपित साहिल गहलोत की किसी और युवती से शादी तय हुई, जिसमें मृतका खलल डाल रही थी। जबकि लम्बे समय से मृतका निक्की यादव अपने ब्वायफ्रैंड के साथ लिव-इन रिलेशन में थी, लिव-इन रिलेशन के बढ़ते प्रचलन के यह समझना मुश्किल है कि भरोसे की बुनियाद पर खड़े संबंधों के बीच किसी व्यक्ति के भीतर इस स्तर की संवेदनहीनता कैसे उभर आती है कि वह अपनी प्रेमिका को मार डालता है। पहले तो दुनिया से छिपा कर कोई युवक किसी युवती के साथ प्रेम संबंध में या फिर सहजीवन में जाता है, फिर किसी जटिल स्थिति के पैदा होने पर उसका मानवीय हल निकालने के बजाय वह हत्या का रास्ता अख्तियार करता है। इस तरह की मानसिकता का पनपना नये निर्मित होते समाज पर एक बदनुमा दाग है एवं बड़ा प्रश्न भी है कि इस तरह के प्रेम संबंधों की ऐसी क्रूर एवं हिंसक निष्पत्ति क्यों होती है?

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इस तरह के व्यवहार को कैसे सोच-समझ कर की गई किसी पेशवर अपराधी की हरकत नहीं कहा जाएगा? विडंबना यह है कि समाज का दायरा जैसे-जैसे उदार होता जा रहा है, जड़ताओं को तोड़ कर युवा वर्ग नई दुनिया में अलग-अलग तरीके से दखल दे रहा है, संबंधों के नए आयाम खुल रहे हैं, उसी में कई बार कुछ युवक अपने लिए बेलगाम जीवन सुविधाओं को अपना हक समझ लेते हैं। जबकि परिवार और समाज की कितनी बाधाओं को तोड़ कर किसी ने उस पर भरोसा किया होता है। निश्चित तौर पर ऐसी घटनाएं कानून की कसौटी पर आम आपराधिक वारदात ही हैं, लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि प्रेम संबंधों में भरोसा अब एक जोखिम भी होता जा रहा है! आखिर बेटियों एवं नारी के प्रति यह संवेदनहीनता कब तक चलती रहेगी? युवतियों को लेकर गलत धारणा है कि उन्हें प्रेम, भौतिकतावादी जीवन एवं सैक्स के ख्वाब दिखाओ एवं जहां कहीं कोई रुकावट आये, उसे मार दो। एक विकृत मानसिकता भी कायम है कि बेटियां भोग्य की वस्तु है? जैसे-जैसे देश आधुनिकता की तरफ बढ़ता जा रहा है, नया भारत-सशक्त भारत-शिक्षित भारत बनाने की कवायद हो रही है, जीवन जीने के तरीकों में खुलापन आ रहा है, वैसे-वैसे महिलाओं पर हिंसा के नये-नये तरीके और आंकड़े भी बढ़ते जा रहे हैं। अवैध व्यापार, बदला लेने की नीयत से तेजाब डालने, साइबर अपराध, प्रेमी द्वारा प्रेमिका को क्रूर तरीके से मार देने और लिव इन रिलेशन के नाम पर यौन शोषण हिंसा के तरीके हैं।

कौन मानेगा कि यह वही दिल्ली है, जो करीब दस साल पहले निर्भया के साथ हुई निर्ममता पर इस कदर आन्दोलित हो गई थी कि उसे इंसाफ दिलाने सड़कों पर निकल आई थी। अब ऐसा सन्नाटा क्यों? जाहिर है, समाज की विकृत सोच को बदलना ज्यादा जरूरी है। बालिकाओं के जीवन से खिलवाड़ करने, उन्हें बीमार मानसिकता के साथ लिव-इन रिलेशन में डालने, उनके साथ रेप जैसे अपराध करने की घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए कड़ी से कड़ी कार्रवाई करने और पुलिस व्यवस्था को और चाक-चौबंद करने की मांग के साथ समाज के मन-मिजाज को दुरुस्त करने का कठिन काम भी हाथ में लेना होगा। यह घटना शिक्षित समाज के लिए बदनुमा दाग है। अगर ऐसी घटनाएं होती रहीं तो फिर कानून का खौफ किसी को नहीं रहेगा और अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी। ऐसी हिंसा के खिलाफ महिलाओं को स्वयं आवाज बुलंद करनी चाहिए। कानून कितने भी क्यों न हों जब तक समाज स्वयं महिलाओं को सम्मान एवं सुरक्षा का आश्वासन नहीं देगा तब तक कुछ नहीं हो सकता। समाज तमाशबीन बना रहेगा तो फिर कौन रोकेगा हैवानियत, बलात्कार को और प्रेम-प्यार के नाम पर ऐसी हिंसक दरिंदगी को।

निक्की यादव की बर्बर हत्या की घटना ने एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि अपराध आखिर किन शक्लों में हमारे आसपास पल रहा है! यों इस वाकये को भी एक आपराधिक घटना के तौर पर ही दर्ज किया जाएगा, लेकिन इसमें प्रेम एवं संवेदना, भरोसे और संबंध का जो पहलू जुड़ा हुआ है, वह इसे सामान्य आपराधिक वारदात से अलग स्वरूप भी देता है। प्रश्न है कि यह कैसे संभव हो पाता है कि कोई व्यक्ति अपने रुतबे और सुविधा को कायम रखने के लिए उसी महिला के खिलाफ इस हद तक बर्बर एवं क्रूर हो जाता है, जिसने शायद सब कुछ छोड़ कर उस पर भरोसा किया होता है! सवाल है कि इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने वाले युवकों के भीतर अगर आपराधिक मानसिकता नहीं पल रही होती है तो वे संबंधों को लेकर स्पष्टता क्यों नहीं बरतते हैं और विवाद की स्थिति में हत्या तक करने में उन्हें कोई हिचक क्यों नहीं होती!

समाज में आए खुलेपन के चलते वर्जनाएं टूट रही हैं। युवक-युवतियों में खुलापन बढ़ रहा है। लिव-इन रिलेशनशिप को कानून भी न तो अपराध मानता है और न ही अनैतिक। आज के दौर में पारिवारिक मूल्य खत्म हो चुके हैं। भावनात्मक जुड़ाव कम है, केवल अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए भोगवादी मानसिकता है। कई लोग लिव-इन रिलेशन की संस्कृति को सामाजिक-आर्थिक बदलाव की एक बड़ी प्रक्रिया के अनिवार्य हिस्से के तौर पर भी देखते हैं, लेकिन स्थानीय मान्यताओं और संस्कृतियों की कई परतें हैं जिनसे समाज और परिवार के बुजुर्ग अब तक बाहर नहीं निकल सके हैं। ऐसे में लड़कियों को ये आजादी जोखिमों के साथ मिल रही है। श्रद्धा और उन जैसी लड़कियों को इसकी कीमत इसलिए भी चुकानी पड़ती है क्योंकि अपनी मर्जी से शादी का फैसला लेने के लिए उन्हें बहुत कुछ दांव पर लगाना पड़ता है, परिवार छोड़ना पड़ता है, सारे रिश्ते-नातों से दूरियां बनानी पड़ती है, सामाजिक बहिष्कार और अलगाव का दंश झेलना पड़ता है। लेकिन आधुनिक समाज में यह प्रचलन तो आम होता जा रहा है, तो क्या ऐसी हिंसक घटनाओं को भी आम होने दिया जायेगा?

-ललित गर्ग

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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