अपराधों पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी से क्यों भाग रही हैं सरकारें?

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साल 2021 में देश के विभिन्न सेशन कोर्टों ने 144 दोषियों को मौत की सजा सुनाई। वहीं विभिन्न हाई कोर्टों ने 6 मामलों में मौत की सजा सुनाई। इसके अलावा 29 दोषी ऐसे थे जिनकी मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया था।

इटली के उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2021 में अधीनस्थ अदालत के उसे फैसले को नामंजूर कर दिया, जिसमें खाना चुराने के आरोप में एक भूखे व्यक्ति को 6 माह के कारावास की सजा सुनाई गई थी। शीर्ष अदालत ने कहा कि भूखे द्वारा खाना चुराने को अपराध नहीं माना जा सकता। दूसरा उदाहरण है बिहार का। नालंदा के न्यायाधीश ने बीमार मां के खाने और दवाई के लिए चोरी करने वाले युवक को सजा मुक्त कर दिया। इतना ही नहीं अदालत ने युवक को कपड़े, राशन और अन्य आवश्यक वस्तुएं मुहैया कराने के भी आदेश दिए। ये दोनों मामले बताते हैं कि अपराध चाहे छोटा हो या बड़ा, उसकी जड़ में कौन-सी समस्याएं हैं। इन समस्याओं का समाधान किए बगैर अपराध मुक्ति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। सारा दोष अपराधी के माथे पर मढ़ कर सरकारें अपराध के असली कारणों के निदान करने की बजाय अपनी जिम्मेदारी से भाग रही हैं।

भारत में मृत्युदंड वार्षिक सांख्यिकी रिपोर्ट -2022 के मुताबिक निचली अदालतों ने साल 2022 में 165 लोगों को मौत की सजा सुनाई है। सबसे अधिक मौत की सजा उत्तर प्रदेश में (100 दोषियों को) सुनाई गई। वहीं, गुजरात में 61, झारखंड में 46, महाराष्ट्र में 39 और मध्य प्रदेश में 31 दोषियों को मौत की सजा सुनाई गई है। मामला बेशक मृत्युदंड का हो किन्तु यह रिपोर्ट कहीं न कहीं देश के इन राज्यों के विकास की धुंधली तस्वीर भी दर्शाती है। गुजरात और महाराष्ट्र को अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो जिन राज्यों में मृत्युदंड की सजा देने के मामले बढ़े हैं, वे ज्यादातर बीमारू राज्य की श्रेणी में आते हैं। बीमारू राज्य से तात्पर्य उन राज्यों से है जोकि विकास के मामले में सर्वाधिक पिछड़े हुए हैं।

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यह सालाना रिपोर्ट नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी का हिस्सा है। यह यूनिवर्सिटी का वह ग्रुप है जो आपराधिक कानून में सुधार की बात करता है। रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2021 में देश के विभिन्न सेशन कोर्टों ने 144 दोषियों को मौत की सजा सुनाई। वहीं विभिन्न हाई कोर्टों ने 6 मामलों में मौत की सजा सुनाई। इसके अलावा 29 दोषी ऐसे थे जिनकी मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया था। इन दोषियों को ट्रायल कोर्ट ने मौत की सजा सुनाई थी, फिर दोषियों ने हाईकोर्ट में अपील की, जिसके बाद सजा में बदलाव हुआ। वहीं पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने किसी को भी मौत की सजा नहीं सुनाई है।

जुर्म साबित हो जाने के बाद मौत की सजा वाले अपराधों से जुड़े मामलों में सजा सुनाना वाकई एक जटिल समस्या है। ट्रायल कोर्ट के जजों को यह फैसला लेना होता है कि क्या सिर्फ मौत की सजा ही न्याय के उद्देश्यों को पूरा करेगी या फिर आजीवन कारावास काफी होगा। एक उचित मानदंड के रूप में, सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्धारित किया है कि सिर्फ "दुर्लभतम में से दुर्लभ" मामलों में ही मौत की सजा दी जा सकती है। बाद के फैसलों में इस सिद्धांत को पुष्ट करने की कोशिश की गई है कि किसी मामले को 'दुर्लभतम में से दुर्लभ' श्रेणी का मानने का एकमात्र मानदंड अपराध की भीषण प्रकृति नहीं हो सकती है। अपराधी, उसकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि और उसकी मानसिक स्थिति भी इस संबंध में प्रमुख कारक हैं।

सवाल उठता है कि अपराधी अपराध करने से पहले क्या यह नहीं जानते कि जघन्य अपराधों के लिए फांसी की सजा हो सकती है। दूसरा बड़ा सवाल यह है कि पूर्व में फांसी दिए जाने के मामलों के बाद भी ऐसे गंभीर अपराध क्यों होते हैं। अपराधियों को फांसी दिए जाने के बावजूद दूसरे लोग इससे सबक क्यों नहीं सीखते। निर्भया हत्याकांड के बाद पूरे देश में भूचाल आ गया था। इसके बाद देश के कानूनों को संशोधित करके कठोर और व्यापक बनाया गया। इसके बाद भी देश में बलात्कार और बलात्कार के साथ हत्या के मामलों में कमी नहीं आई। हाथरस कांड हो या दूसरे बलात्कार और हत्या के मामले, यह सब आए दिन सुर्खियों में आते रहते हैं। लॉ यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि जिन 165 लोगों को मृत्युदंड की सजा से दंडित किया गया, उनमें से हर तीसरा शख्स यौन अपराधों से जुड़ा हुआ है। इससे जाहिर है कि यौन अपराधों के प्रति आपराधिक मानसिकता के लोगों में भय व्याप्त नहीं है।

सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती हुई जनसंख्या, मौजूदा सूचना-प्रौद्योगिकी के निरंतर बढ़ते दुरुपयोग, कमजोर पड़ते सामाजिक और पारिवारिक बंधन और भौतिकता की चकाचौंध सामान्य से लेकर गंभीर प्रकृति के अपराधों के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है। मोबाइल संस्कृति के पनपने से विशेष कर किशोर और युवाओं में यौन भावनाओं को लेकर कुंठित करने का काम किया गया है। इसके अलावा नशीले पदार्थों के सेवन की निरंतर बढ़ रही सामाजिक और पारिवारिक स्वीकार्यता ने अपराधों के लिए आग में घी का काम किया है। शराब की कुसंस्कृति ने सामाजिक ताने-बाने को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया है। सरकारों के लिए शराब राजस्व का बड़ा और स्थायी स्त्रोत बन गई हैं। इस बुराई से न केवल मानसिक बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। सरकारों ने टैक्स की कमाई के कारण कैंसर की तरह फैलती जा रही इस बुराई से आंखें फेर रखी हैं।

यह निश्चित है कि केवल अपराधों के लिए दंड का प्रावधान मात्र कर देने से अपराधों को घटित होने से नहीं रोका जा सकता। इसके लिए न सिर्फ कानून के बल्कि देश के असंतुलित विकास के ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा। जब तक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक रूप से अपराध की जड़ में जाकर उसका समाधान नहीं तलाशा जाएगा, तब तक फांसी की सजा के कठोरतम प्रावधान के बावजूद ऐसे अपराध नहीं रुकेंगे। अतीत के फांसी के मामले इसके गवाह हैं। दुनिया में 97 देश ऐसे हैं जिन्होंने मौत की सजा को खत्म कर दिया है। इन देशों में किसी भी अपराध के दोषी को मौत की सजा नहीं दी जाती है। यह इस बात का प्रमाण है कि इन देशों की सरकारों को यह समझ में आ गया कि फांसी देने से अपराधों पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता। साथ ही अपराध का जो कारण प्रत्यक्ष दिखाई देता है, सिर्फ उतना ही नहीं होता। इसके दूसरे महत्वपूर्ण कारण भी होते हैं। जिनमें बुनियादी सुविधाएं भी शामिल हैं। रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराये बगैर अपराधों की संख्या नहीं घटाई जा सकती। यह जिम्मेदारी सरकारों को निभानी ही होगी।

- योगेन्द्र योगी

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