सार्वजनिक बैंकों का विलय करना समस्या का समाधान नहीं है

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दीपक गिरकर । Sep 4 2019 11:54AM

सरकारी बैंकों की समस्या प्रशासन और नियामक ढाँचे में व्याप्त विसंगतियों के कारण है। सार्वजनिक बैंकों के मर्जर की बजाए दीर्घकालीन ढांचागत सुधार किये जाने की जरूरत है। सार्वजनिक बैंकों की समस्या केवल प्रभावी व कठोर विनियमन की कमी की है।

बैंकों का बढ़ता एनपीए गंभीर चिंता का विषय है जोकि बैंकों को समामेलित करने के लिए प्रेरित कर रहा है। एनपीए के नुकसान की भरपाई के लिए सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में पूंजी डाल कर थक चुकी है। इसके बावजूद भी इस वित्तीय वर्ष में सरकार 70 हजार करोड़ की पूँजी सार्वजनिक बैंकों में डाल रही है। अब वह कमजोर बैंक को दूसरे मजबूत बैंकों में मर्जर के शॉर्टकट का मार्ग अपना रही है। यह बात सही है कि देश में बैंकों की संख्या कम होनी चाहिए। देश में सिर्फ़ 3 से 4 सरकारी बैंक, 3 से 4 प्राइवेट सेक्टर बैंक और एक या दो विदेशी बैंक होने चाहिए। अधिक बैंक होने से बैंकों में आपसी प्रतिस्पर्धा का फ़ायदा चूककर्ता ऋणी आसानी से उठा लेते हैं। वे एक बैंक के अपने अनियमित खातों को नियमित करने के लिए दूसरे बैंक से अपनी नई फर्जी कंपनी बनाकर ऋण लेते हैं और फिर दूसरे बैंक के ऋण खातों को ठीक करने के लिए तीसरे बैंक से एक और नई फर्जी कंपनी बनाकर ऋण लेते हैं। इस प्रकार ऐसे चूककर्ता ऋणी कई सालों तक इस प्रकार की फर्जी कंपनियां खड़ी करके कई बैंकों को चूना लगाते रहते हैं और जब किसी कारण से इनकी और ऋण लेने की चेन टूट जाती है तो इनका भांड़ा फूट जाता है। इतने अधिक पब्लिक सेक्टर बैंकों की स्थापना के लिए लाइसेंस जारी करने के स्थान पर कुछ ही बैंकों की स्थापना की जानी चाहिए थी जिससे उन्हीं कम बैंकों का प्रबंधन आसानी से किया जा सकता था एवं उन पर निगरानी और नियंत्रण भी आसानी से रखा जा सकता था। बैंकों में आपसी प्रतिस्पर्धा होने से बैंकों द्वारा ग्राहक की आर्थिक हैसियत और क्रेडिट रेटिंग का उचित विश्लेषण किए बिना ही अनसिक्योर्ड लोन बांट दिए जाते हैं। बैंकों में आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण बैंक ऋण देने में सही व्यक्ति और सही परियोजना का चयन नहीं कर पाता है और जल्दबाजी में ऐसे ऋण स्वीकृत व वितरण कर देते हैं जोकि एक या दो वर्षों में ही एनपीए में परिवर्तित हो जाते हैं।

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सरकार के अनुसार बैंकों को घाटे से उबारने एवं फंसे कर्ज़ की समस्या को दूर करने के ठोस उपायों में सरकार चाहती है क़ि बैंकों के विलय की प्रक्रिया को तेज गति से आगे बढ़ाया जाए। सरकार के मतानुसार बैंकों के अच्छे नियमन और नियंत्रण के लिए बैंकों का विलय ज़रूरी है। वित्त मंत्रालय के अनुसार बैंकों के विलय से बैंकों की दक्षता और संचालन में सुधार होगा। यह बात सही है कि उदारीकरण के दौर से ही सरकारी बैंकों के विलय की प्रक्रिया चल रही है। मोदी सरकार के पहले न्यू बैंक ऑफ इंडिया का पंजाब नेशनल बैंक में विलय हो चुका था। निजी बैंक रत्नाकर बैंक और श्री कृष्णा बैंक का केनरा बैंक में विलय हुआ था। आईएनजी वैश्य बैंक का कोटक महिंद्रा बैंक में विलय हुआ था। हमारे देश में बैंकों के विलय का पुराना रिकॉर्ड ठीक नहीं रहा है। न्यू बैंक ऑफ इंडिया और पंजाब नेशनल बैंक का विलय, ग्लोबल ट्रस्ट बैंक और ओरियंटल बैंक ऑफ कॉमर्स का विलय, भारतीय स्टेट बैंक के सहयोगी बैंकों का विलय हमारे सामने उदाहरण है।

भारतीय जीवन बीमा निगम द्वारा आईडीबीआई बैंक का अधिग्रहण किया गया है। सरकार ने 1 अप्रैल, 2019 को विजया बैंक और देना बैंक का बैंक ऑफ बड़ौदा में विलय कर दिया है। इन बैंकों में फंसे हुए कर्ज़ की समस्या अन्य बैंकों के समान और अधिक बढ़ती गई। अब सरकार मेगा कंसॉलिडेशन प्लान के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के 10 बैंकों का विलय करके चार बड़े बैंक बना रही है। इस मेगा प्लान के तहत सरकार पंजाब नेशनल बैंक, ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स तथा यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया का आपस में विलय, केनरा बैंक और सिंडिकेट बैंक का विलय, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया में आंध्रा बैंक तथा कॉर्पोरेशन बैंक का विलय और इंडियन बैंक में इलाहाबाद बैंक का विलय कर रही है। इस बड़े मर्जर प्लान के क्रियान्वयन के पश्चात देश में 27 की गजह सिर्फ 12 सार्वजनिक बैंक रह जायेंगे। सरकार का कहना है कि बैंकों के विलय के पश्चात सरकारी बैंक मजबूत होंगे और वे अधिक राशि के ऋण देने के लिए सक्षम हो जायेंगे, जिससे सुस्त होती अर्थव्यवस्था को रफ़्तार मिलेगी और 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य हासिल हो जाएगा।

लेकिन यह याद रखना चाहिए कि विलय से बैंकों के जोखिम और अधिक बढ़ जाते हैं। 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य तो हासिल हो जाएगा लेकिन भविष्य में बैंकों के एनपीए इतने बढ़ जायेंगे कि बैंकों को इस एनपीए नामक बीमारी से निजात पाना मुश्किल हो जाएगा। बैंकों के विलय से बैंक अधिक ऋण देने के लिए सक्षम हो जायेंगे। अधिक ऋण के वितरण से बैंकों की बैलेंस शीट बिना एनपीए कम किये सुधर जायेगी क्योंकि कुल ऋण राशि बढ़ने से सकल एनपीए का प्रतिशत कुल ऋण राशि की तुलना में कम हो जाएगा। सरकार कब तक इन सार्वजनिक बैंकों में पूँजी डालती रहेगी? राष्ट्रीयकृत बैंकों के विलय से कॉर्पोरेट घरानों और पूंजीपतियों की लूट का रास्ता और आसान होता जा रहा हैं।

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वित्तीय संस्थाओं, बैंकों का विलय तो बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के अनुसार ही होना चाहिए न की सरकार के हस्तक्षेप से। भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने बैंकों के गठजोड़ और विलीनीकरण करने से पहले मर्जर होने वाली बैंकों की बैलेंसशीट को स्वच्छ (एनपीए मुक्त) करने की सलाह दी थी। बैंकों का विलय एक पेचीदा मुद्दा है। बैंकों का विलय करने से फंसे कर्ज की वसूली नहीं हो पायेगी और बैंक प्रबंधन का पूरा ध्यान विलय के मुद्दे पर चला जाएगा। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में 5 सहयोगी बैंकों के विलय से कोई चमत्कार नहीं हुआ बल्कि 200 साल में पहली बार स्टेट बैंक को घाटा हुआ था। सरकार को इसमें जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। विलय की प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए और इस प्रक्रिया में सभी हितधारकों को शामिल किया जाना चाहिए। यदि बड़ा बैंक, छोटे बैंकों का अधिग्रहण करता है तो बड़े बैंक को छोटे बैंकों पर हावी नहीं होना चाहिए।

बैंकों के विलय से सिर्फ बैंकों की परिचालन लागत घटती है। बिना विलय के ही प्रौद्योगिकी और मानव संसाधनों में सही निवेश करके ही बैंकों की परिचालन क्षमता में सुधार किया जा सकता हैं। प्रौद्योगिकी बैंकों के एनपीए के इलाज करने में और इस बीमारी की रोकथाम करने में एक सहायक की भूमिका निभाती है, इससे अधिक नहीं। इसलिए बैंकों को मानव संसाधन में अधिक निवेश करने की जरूरत है। कर्मचारियों की दक्षता में निवेश कम होने से ऑटोमेशन निर्रथक साबित होता है। एनपीए के जाल से और घाटे से उबरने का एकमात्र रास्ता है कि सरकारी बैंकों में मानव संसाधन विकास पर अधिक निवेश किया जाए। विकसित देशों में मानव संसाधन पर ही अधिक निवेश किया जाता है। इसके अंतर्गत नये स्टाफ की भर्ती की जानी चाहिए क्योंकि वर्तमान में बैंकर्स अधिक काम के बोझ से लदे हुए हैं। बैंकों में कंप्यूटर, वित्त, वित्त विश्लेषक, क़ानूनी, औद्योगिक विशेषज्ञ की नियुक्तियां होनी आवश्यक हैं। बैंक प्रशिक्षण का उद्देश्य स्टाफ और बैंक की कार्यक्षमता एवं प्रभावशीलता को उन्नत बनाना होना चाहिए। बैंक कर्मचारियों और अधिकारियों को यथार्थ प्रशिक्षण दिए जाने की जरूरत है। उस प्रशिक्षण के अनुसार ही उनकी नियुक्ति की जानी चाहिए। बैंकों के हर स्तर पर प्रभावी संवाद प्रवाह को प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है। निरंतर बदलते हुए परिवेश में बैंकों, वित्तीय संस्थाओं को व्यवसाय करते समय ऐसे वित्तीय निर्णय लेने चाहिए जिससे बैंकों, वित्तीय संस्थाओं की संपत्तियों, आस्तियों में निरंतर वृद्धि होती रहे लेकिन वृद्धि होना तो दूर, बैंकों, वित्तीय संस्थाओं को अपना अस्तित्व बनाये रखना भी कठिन हो गया है। सार्वजनिक बैंक वाणिज्यिक बैंकों की तरह व्यवसाय क्यों नहीं करते हैं? 

क्या बैंकों का मर्जर ही रामबाण इलाज है? सार्वजनिक बैंकों का विलय करना समस्या का समाधान नहीं है, यह तो वैसा ही हुआ कि हम हाथ में लगी चोट का बेहतर इलाज करने के बजाय हाथ को ही कटवा डालने का विकल्प चुनना चाहते हैं। क्योंकि किसी भी सूरत में काम करने वाला स्टाफ तो वही रहेगा जो आज है। विलय से वास्तविक समस्या छिप जायेगी। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद भी निजी क्षेत्र के बैंक दीवालिया हुए थे और उनका सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में विलय किया गया था। सरकारी बैंकों की समस्या प्रशासन और नियामक ढाँचे में व्याप्त विसंगतियों के कारण है। सार्वजनिक बैंकों के मर्जर की बजाए दीर्घकालीन ढांचागत सुधार किये जाने की जरूरत है। सार्वजनिक बैंकों की समस्या केवल प्रभावी व कठोर विनियमन की कमी की है। आज बैंकिंग उद्योग को निजीकरण और विलय की नहीं बल्कि सार्वजनिक बैंकों के कामकाज की पारदर्शिता, प्रभावी विनिमयन और सुपरविजन की ज़रूरत है, जिससे बैंकों के बढ़ते एनपीए पर नियंत्रण हो सके और उनकी वसूली हो सके। 

-दीपक गिरकर

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