तमाम सरकारी दावों के बावजूद किसानों की दशा में बड़ा सुधार नहीं दिखता

national-farmers-day-in-india

भारत में किसानों की आत्महत्याएं कितना संगीन मामला बन चुकी हैं, यह सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट को दिए गए आंकड़ों से साफ होता है। सरकार ने बताया है कि हर साल 12 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं। मोदी सरकार ने भी किसानों से कई वादे किये लेकिन वह पूरे नहीं हुए।

उत्तम खेती मध्यम बान। निषिद चाकरी भीख निदान। 21वीं सदी के किसान के लिए ये पंक्तियां व्यंग्य की तरह हैं। कहने को भारत एक कृषि प्रधान देश है। किंतु आज भी कृषि के क्षेत्र में किसानों को बहुत-सी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। भारत में किसानों की हालत बहुत खराब है। सिंचाई की सही व्यवस्था न होने की वजह से फसल अच्छी नहीं हो पाती और किसान अपनी पैदावार से उतनी कमाई नहीं कर पाते कि अपने परिवार का अच्छे से भरण पोषण कर पाएं। ऐसे में यदि किसान अपनी जमीन पर कर्ज लेकर खेती करते हैं तो वे अपना कर्ज भी नहीं चुका पाते। बहुत से किसान तो आत्महत्या तक कर लेते हैं। भारत में किसानों की आत्महत्याएं कितना संगीन मामला बन चुकी हैं, यह सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट को दिए गए आंकड़ों से साफ होता है। सरकार ने बताया है कि हर साल 12 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं। सरकार के अनुसार 2015 में कृषि क्षेत्र से जुड़े कुल 12,602 लोगों ने आत्महत्या की। इनमें 8,007 किसान-उत्पादक थे, जबकि 4,595 लोग कृषि संबंधी श्रमिक के तौर पर काम कर रहे थे। 2015 में भारत में कुल 1,33,623 आत्महत्याओं में से अपनी जान लेने वाले 9.4 प्रतिशत किसान थे।

स्वतंत्र भारत से पूर्व और स्वतंत्र भारत के पश्चात एक लंबी अवधि बीतने के बाद भी भारतीय किसानों की दशा में सिर्फ 19-20 का ही अंतर दिखाई देता है। जिन अच्छे किसानों की बात की जाती है, उनकी गिनती उंगलियों पर की जा सकती है। बढ़ती आबादी, औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण कृषि योग्य क्षेत्रफल में निरंतर गिरावट आई है। कृषि प्रधान राष्ट्र भारत में लगभग सभी राजनीतिक दलों का कृषि के विकास और किसान के कल्याण के प्रति ढुलमुल रवैया ही रहा है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने किसानों को भारत की आत्मा कहा था। बावजूद इसके किसानों की समस्याओं पर ओछी राजनीति करने वाले ज्यादा और उनकी समस्याओं की तरफ ध्यान देने वाले कम हैं। चुनावी मौसम में विभिन्न राजनीतिक दलों की जुबान से किसानों के लिए हितकारी बातें अन्य मुद्दों के समक्ष ओझल हो जाती हैं। जिस तरह से तमाम राजनीतिक दलों से लेकर मीडिया मंचों पर किसानों की दुर्दशा का व्याख्यान होता है, उसमें समाधान की शायद ही कोई चर्चा होती है। इससे यही लगता है कि यह समस्या वर्तमान समय में सबसे अधिक बिकाऊ विषय बनकर रह गयी है। आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 15,168 किसानों की मौत का कारण फसल संबंधित बैंकों का कर्ज न चुकता कर पाने के दबाव में आत्महत्या करना है। यही नहीं, हमारे देश के लाखों किसान बढ़ती महंगाई को लेकर भी परेशान हैं, क्योंकि इसका सीधा नुकसान किसानों की स्थिति पर पड़ता है।

इसे भी पढ़ें: हिंसा की खबरों के बीच कई बड़े फैसलों पर किसी का ध्यान ही नहीं गया

वर्तमान में कृषि में आधारभूत ढांचे में निवेश की मेरे हिसाब से कोई आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है सिर्फ प्रोसेसिंग फूड प्रोडक्शन और उनके मार्केटिंग प्रबंधन की जिससे किसान के आर्थिक हालात को काफी हद तक सुधारा जा सकता है। क्योंकि जब तक किसानों को रबी और खरीफ के मॉडल से बाहर नहीं निकाला जाएगा, तब तक किसान का बच पाना असंभव है। किसानों के जो लघु ऋण दिए गए हैं इनको दीर्घकालीन में परिवर्तित किए जाने की आवश्यकता है तथा मार्केटिंग और फूड प्रोडक्शन पर स्वीकृत किए जाने की अनुशंसा वर्तमान समय में की जानी चाहिए। लघु सीमांत कृषकों को और अधिक आर्थिक सहायता की आवश्यकता है जिससे खेती को मैकेनाइजेशन किया जा सके, ताकि गुणवत्ता में सुधार हो। वर्तमान उत्पादन गुणवत्ता योग्य नहीं है तथा अंतरराष्ट्रीय मार्केट में हम कहीं भी नहीं दिखते। जो कृषि संज्ञा संस्थाएं बनी हुई है उन सब को तुरंत प्रभाव से बंद कर उनकी जगह एक सार्वभौमिक संस्थान का निर्माण किया जाना चाहिए, ताकि उनका नियंत्रण किया जा सके। बहुत सारे कृषि संस्थाओं का कृषि विकास में कोई योगदान नहीं है जबकि उनका बजट सालाना स्वीकृत होता है और उस बजट से कृषि अधिकारी उत्तर के विदेशों में सर्च पार्टी में व्यस्त हैं, इस पर अंकुश लगाए जाने की आवश्यकता है। 

हमें समझना होगा कि किसानों की कर्ज माफी से उनकी यह समस्या हल नहीं होगी। क्योंकि कर्ज माफी तो सिर्फ एक राजनैतिक चाल है। कर्ज माफी का प्रलोभन देकर राजनैतिक दल सिर्फ अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं। अगर सच में किसानों की समस्या हल करनी है तो उनके लिए सिंचाई की व्यवस्था और उनकी फसल का सही मूल्य मिलना चाहिए। किसानों के लिए ऐसी व्यवस्था हो की उन्हें कर्ज लेना ही न पड़े। किसानों के आर्थिक पक्ष को मजबूत करने के लिए उन्हें जागरूक करना चाहिए कि वे अपनी हैसियत से ज्यादा सरकारों के भरोसे कर्ज न लें। इसके साथ ही जिन फसलों, फलों या सब्जियों की बाजार में ज्यादा मांग है, उनकी खेती को ही अपनाएं। अंत में यह भी कहना उचित है कि किसानों की खराब हालत के लिए कहीं न कहीं व्यवस्था में पसरा भ्रष्टाचार भी जिम्मेदार है।

-देवेन्द्रराज सुथार

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़