हिंसा की खबरों के बीच कई बड़े फैसलों पर किसी का ध्यान ही नहीं गया

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अजय कुमार । Dec 23 2019 11:31AM

जिस दिन लखनऊ हिंसा की आग में जल रहा था, उस समय विधानसभा का सत्र भी चल रहा था, जहां जनहित से जुड़े तमाम कानून भी पास हुए, मगर किसी को इसका पता नहीं चल पाया। मीडिया का अधिकतर वर्ग सिर्फ हिंसा की तसवीरें ही प्रसारित करने में लगा रहा।

उत्तर प्रदेश में एनआरसी (जिसका अभी खाका भी तैयार नहीं हुआ है) और कैब के नाम पर बेवजह की हिंसा से प्रदेश का माहौल तो खराब हुआ ही है, इसके साथ−साथ जानमाल का भी काफी नुकसान हुआ है। इस हिंसा के बीच जनता से जुड़ी तमाम खबरें जैसे शिक्षक भर्ती परीक्षा टीईटी हो या फिर तमाम स्कूल−कालेजों में हो रही परीक्षाओं का रद्द होना मुद्दा नहीं बन पाया। जिस दिन लखनऊ हिंसा की आग में जल रहा था, उस समय विधानसभा का सत्र भी चल रहा था, जहां जनहित से जुड़े तमाम कानून भी पास हुए, मगर किसी को इसका पता नहीं चल पाया। कैब को लेकर विधानसभा में विपक्ष के हंगामे के बीच योगी सरकार ने वर्ष 2019−20 के लिए 4,210.85 करोड़ रुपये के अनुपूरक बजट को पारित करा लिया। साथ ही दोनों सदनों में पांच और विधायकों को भी मंजूरी मिल गई, जिसमें उत्तर प्रदेश दंड विधि (अपराधों का शमन और विचरणों का उपशमन) संशोधन विधेयक 2019, उत्तर प्रदेश शिक्षा सेवा चयन आयोग विधेयक 2019, उत्तर प्रदेश दुकान और वाणिज्य अधिष्ठान (संशोधन) विधेयक−2019, उत्तर प्रदेश मंत्री (वेतन, भत्ता और प्रकीर्ण उपबंध) संशोधन विधेयक 2019, उत्तर प्रदेश राज्य विश्वविद्यालय (तृतीय संशोधन) विधेयक 2019 के अलावा अलीगढ़ में राजा महेंद्र प्रताप सिंह राज्य विश्वविद्यालय अलीगढ़ की स्थापना के लिए विधेयक 2019 शामिल था।

                

इस हिंसा में अदालत के कई महत्वपूर्ण फैसले भी दब कर रह गए, जिनके आने की लम्बे समय से प्रतीक्षा की जा रही थी। बात चाहे उन्नाव रेप केस में पूर्व भाजपा नेता और विधायक कुलदीप सेंगर को मरते दम तक जेल में रहने की सजा और 25 लाख रुपये के जुर्माने की हो अथवा कचहरी सीरियल बलास्ट केस में दो लोगों को उम्रकैद की, अखबार के पन्नों से लेकर इलेक्ट्रानिक न्यूज चैनल तक पर यह खबरें वह जगह नहीं बना पाईं जिसकी वह हकदार थीं। याद कीजिए उन्नाव रेप केस में जब भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर का नाम सामने आया था तो इसके खिलाफ लोगों में कितना गुस्सा देखने को मिला था, इलेक्ट्रानिक न्यूज चैनलों में लम्बी−लम्बी बहस चली थीं तो प्रिंट मीडिया में खबरों के साथ सम्पादकीय तक पढ़ने को मिले थे। इसी प्रकार 2007 में कचहरी सीरियल बलास्ट को लेकर भी हो−हल्ला मचा था, लेकिन जब इस पर फैसला आया तो न कहीं कोई चर्चा हुई, न कोई प्रतिक्रिया सामने आई। क्योंकि पूरा देश कैब को लेकर हो रही हिंसा की चपेट में था। प्रिंट मीडिया की बात छोड़ दी जाए तो इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए हिंसा की खबरें हमेशा बूस्टर का काम करती हैं। एक घटना के दृश्य स्क्रीन पर बार−बार दिखा कर उतेजना पैदा की जाती है।

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ऐसे में उन्नाव की पीड़िता को मिले इंसाफ पर चर्चा जरूरी है। तीस हजारी अदालत ने उत्तर प्रदेश के विधायक कुलदीप सेंगर को आजीवन कारावास की जो सजा सुनाई है, वह कई मायनों में महत्वपूर्ण है। एक तो फैसला बहुत लम्बा नहीं खिंचा दूसरे दुष्कर्म पीड़िता के लिए आर्थिक मदद का रास्ता भी कोर्ट ने साफ कर दिया है। ज्यादातर चर्चाओं में यही कहा जाता रहा है कि न्यायपालिका सजा देने में देरी करती है, जिसकी वजह से ऐसे अपराधियों में डर खत्म हो जाता है, लेकिन शायद यह हाई प्रोफाइल मामला उन लोगों के लिए एक नजीर बनेगा, जो काननू को अपनी जेब में रखने को गुमान करते हैं। सीबीआई ने इस साल जुलाई में कुलदीप सेंगर के खिलाफ अदालत में आरोप पत्र दायर किया था। अदालत ने छह महीने में ही सजा सुना दी। परंतु पूरे मामले में उत्तर प्रदेश पुलिस की भूमिका काफी निराशाजनक रही। बेशक, कुलदीप सेंगर के सामने अभी ऊपरी अदालतों में जाने का विकल्प है, लेकिन जिस तरह की तेजी दिल्ली की अदालत ने दिखाई है, उम्मीद है वही तेजी ऊपरी अदालतों में भी देखने को मिलेगी और यह सजा एक नजीर बनेगी। लेकिन हम जब छह महीने में अदालत द्वारा सजा की बात कर रहे हैं, तो हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि सेंगर ने दुष्कर्म की यह वारदात जून 2017 में की थी। मामला सीबीआई को नहीं सौंपा जाता तो संभवतः अंतिम चार्जशीट दायर होने में दो साल से ज्यादा का समय लग जाता। यूपी पुलिस ने तो लंबे समय तक दुष्कर्म की एफआईआर तक दर्ज नहीं ही की थी, पीड़िता को सबक सिखाने के लिए उसके पिता को झूठे आरोपों में न सिर्फ जेल में डाल दिया गया, बल्कि उन्हें प्रताड़ित भी किया गया।

मामले की रपट तभी लिखी गई, जब पीड़िता ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री निवास के आगे आत्मदाह का प्रयास किया, लेकिन सच्चाई यह भी रही कि इसके अगले ही दिन पुलिस हिरासत में उसके पिता का संदिग्ध परिस्थितियों में निधन हो गया था। पीड़िता की पूरी लड़ाई आसान नहीं थी, क्योंकि प्रदेश के कई आला अधिकारियों ने विधायक के खिलाफ कार्रवाई से इनकार कर दिया था। जिस महीने दिल्ली में चार्जशीट दायर हुई, उसी महीने पीड़िता के साथ सड़क दुर्घटना हो गई, जिसके बारे में पीड़िता, उसके परिवार और करीबी लोगों द्वारा यही कहा गया कि यह सड़क दुर्घटना नहीं थीं, उसे मारने की कोशिश की गई थी। उक्त सड़क हादसे में दुर्घटना में पीड़िता के दो रिश्तेदार मारे गए और पीड़िता व उसके वकील घायल हुए। अच्छी बात यह है कि अदालत ने इसे समझा और सीबीआई को निर्देश दिया है कि वह हर तीन महीने में पीड़िता पर खतरे और उसकी सुरक्षा की समीक्षा करेगी।

उन्नाव की इस दुष्कर्म पीड़िता का मामला बताता है कि एक आम आदमी का उत्पीड़न जब कोई हाई प्रोफाइल नेता या व्यक्ति करता है तो लड़ाई कितनी मुश्किल हो जाती है। कुलदीप सेंगर सत्ताधारी पार्टी से जुड़े थे, इसलिए पूरी व्यवस्था का रवैया पीड़िता से असहयोग का था। जब बहुत ज्यादा हंगामा हो गया, तभी भाजपा ने उन्हें पार्टी से निलंबित किया। पिछले आम चुनाव के समय उन्नाव से भाजपा के प्रत्याशी और अब सांसद साक्षी महाराजा ने तो उस समय सभी हदें पा कर दीं जब वह कुलदीप से मिलने जेल तक गए थे। ऐसे कई मौके आए जब कुलदीप सेंगर अपनी हनक और धमक दिखाते रहे, लेकिन अंत भला तो सब भला की तर्ज पर वह जेल की सलाखों के पीछे पहुंच ही गए, अब उन्हें ताउम्र जेल में ही रहना होगा।

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कुलदीप सेंगर को ताउम्र कैद की तरह एक और फैसला फैजाबाद कोर्ट से आया। 13 साल पहले लखनऊ, वाराणसी और फैजाबाद के कचहरी परिसर में एक ही दिन करीब−करीब एक ही समय पर हुए सीरियल बम ब्लास्ट मामले में वहां (फैजाबाद) की एक अदालत ने फैजाबाद कचहरी में बम ब्लास्ट के दो दोषियों मोहम्मद अख्तर उर्फ तारिक व तारिक काजमी को आजीवन कारावास के साथ 50−50 हजार रुपये जुर्माना की सजा सुनाई। वहीं अयोध्या मंडल कारागार में निरुद्ध तीसरे अभियुक्त सज्जादउर्रहमान को साक्ष्य के अभाव में संदेश का लाभ देकर बरी कर दिया गया। इन धमाकों में एक अधिवक्ता समेत चार लोगों की मौत हो गई थी। यह फैसला विशेष न्यायाधीश अशोक कुमार ने 20 दिसंबर 2019 को कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच सुनाया। इस दौरान बाराबंकी जेल से अभियुक्त आजमगढ़ निवासी 'तारिक काजमी व अयोध्या मंडल जेल में निरुद्ध सज्जादुरर्हमान को कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच मंडल कारागार के विशेष कोर्ट में पेश किया गया। इसके अलावा लखनऊ जेल में निरुद्ध एक अभियुक्त कश्मीर निवासी मोहम्मद अख्तर उर्फ तारिक को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए मंडल कारागार में पेश किया गया। इससे पहले चौथे अभियुक्त मो. खालिद मुजाहिद की मौत बाराबंकी में 13 मई 2014 में उस समय हो गई थी जब उसे मंडल कारागार फैजाबाद से पेशी के बाद लखनऊ जेल वापस ले जाया जा रहा था।

गौरतलब है कि फैजाबाद कचहरी सीरियल ब्लास्ट की घटना 23 नवम्बर 2007 को हुई थी। यह घटना दो अधिवक्ता शेडों में हुई थी जिसमें पहला बम विस्फोट अधिवक्ता शेड संख्या चार व दूसरा शेड संख्या 20 में हुआ था। पहले धमाके में वयोवृद्ध अधिवक्ता राधिका प्रसाद मिश्र, स्टाम्प वेंडर जगदम्बा पाण्डेय, मुंशी फागू व वादकारी केशरी प्रसाद की मौत हो गई थी। साथ ही घटना में महिला अधिवक्ता रेखा मेहरोत्रा समेत दो दर्जन लोग घायल हुए थे। इस मामले में बार एसोसिएशन के तत्कालीन मंत्री मंसूर इलाही की तहरीर पर नगर कोतवाली फैजाबाद में अज्ञात अभियुक्तों के खिलाफ विभिन्न गंभीर धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया था।

बताते चलें कि फैजाबाद के साथ लखनऊ सिविल कोर्ट परिसर में हुए बम ब्लास्ट के अभियुक्त तारिक काजमी व मोहम्मद अख्तर उर्फ तारिक को लखनऊ की विशेष जज बबिता रानी 27 अगस्त 2018 को उम्रकैद की सजा सुना चुकी हैं। उन्होंने अभियुक्तों पर जुर्माना भी लगाया था। इस मामले के एक अभियुक्त खालिद मुजाहिद की मौत हो चुकी है। जबकि, एक अभियुक्त सज्जादुर्ररहमान डिस्चार्ज हो चुका है। सरकारी वकील एमके सिंह के मुताबिक अभियुक्तों के खिलाफ देशद्रोह, आपराधिक साजिश, हत्या का प्रयास व विस्फोटक पदार्थ अधिनियम तथा विधि विरुद्ध क्रियाकलाप निवारण अधिनियम के तहत आरोप पत्र दाखिल हुआ था। विशेष अदालत ने अभियुक्तों को इन सभी आरोपों में दोषी करार देते हुए सजा सुनाई। 

बात वाराणसी की कि जाए जहां लखनऊ, फैजाबाद के साथ बम ब्लास्ट हुआ था, वहां (वाराणसी) इंसाफ की रफ्तार काफी सुस्त है। यहां कचहरी सीरियल ब्लास्ट में 9 लोगों की मौत चार दर्जन घायल हुए थे, लेकिन वाराणसी में अब तक इस मुकदमे में किसी आरोपित की रिमांड नहीं बनी है। सीजेएम कोर्ट में घटना के संबंध में मात्र तहरीर व एफआईआर मौजूद है। घायल अधिवक्ताओं से कोई बयान नहीं लिया गया न ही किसी ने घटनास्थल का निरीक्षण किया।

अंत में यही कहा जाएगा कि नागरिकता संशोधन बिल के विरोध के नाम पर मोदी−योगी सरकार को अपनी ताकत दिखाने के चक्कर में एक वर्ग विशेष के लोगों ने जिस तरह उत्पात, आगजनी, पत्थरबाजी करके प्रदेश को अराजकता के माहौल में झोंक दिया, उसकी इन उपद्रवियों को जितनी भी सजा मिले वह कम है। पुलिस के साथ मारपीट, उन पर पत्थरबाजी करने को किसी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता है। इससे उपद्रवियों को कुछ हासिल तो नहीं हुआ, लेकिन हिंसा की जांच का दायरा ज्यों ज्यों आगे बढ़ेगा, इन उपद्रवियों के लिए त्यों त्यों मुश्किलें भी बढ़ती जाएंगी। अभी गिरफ्तार होने वाले उपद्रवियों की संख्या सैकड़ों में है तो यह हजारों में भी पहुंच सकती है।

-अजय कुमार

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