रंजन गोगोई के शपथ लेने के दौरान शर्म-शर्म के नारे लगाना शर्मनाक

ranjan gogoi
ललित गर्ग । Mar 21 2020 4:03PM

कांग्रेस की ओर से गोगोई का विरोध राष्ट्रपति का विरोध ही समझा जायेगा, लोकतंत्र की मर्यादाओं एवं कार्यप्रणाली का ही विरोध कहा जायेगा। विरोध के स्वर तो अन्यत्र भी सुनाई दे रहे हैं, ऐसे स्वर जहां उभरते हैं, वहां सोच की मौलिक दिशाएं उद्घाटित नहीं होतीं।

भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को सेवा-निवृत्ति के चार माह के भीतर राज्यसभा में नामजद कर देने की घटना ने एक नया इतिहास रचा है, नये पदचिह्न स्थापित किये गये हैं, इससे लोकतंत्र को नई ऊर्जा एवं नया परिवेश मिला है। राष्ट्रपति द्वारा नामजद किए जाने वाले 12 लोगों में से वे एक हैं। ऐसा नहीं है कि गोगोई के पहले कोई न्यायाधीश या सर्वोच्च न्यायाधीश सांसद नहीं बने हैं, वे बने हैं लेकिन गोगोई ऐसे पहले सर्वोच्च न्यायाधीश हैं, जो राष्ट्रपति की नामजदगी से राज्यसभा के सदस्य बने हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद न्यायपालिका का सर्वोच्च पद है, अब गोगोई राज्यसभा के सदस्य बनकर राष्ट्र के निर्माण में योगदान देंगे।

भारत के लोकतंत्र में राज्यसभा की महत्वपूर्ण भूमिका है, संसद के इस उच्च सदन राज्यसभा में 12 सदस्यों का नामांकन राष्ट्रपति महोदय समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी विशिष्ट योग्यता व योगदान को ध्यान में रख कर करते हैं। एक तरह से वे राष्ट्र एवं समाज के नवरत्न होते हैं, जिनका चयन संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति अपने स्व विवेक से करते हैं और उनके इस निर्णय को संवैधानिक सभाएं शिरोधार्य करती हैं और कार्य को अधिक दक्ष व परिणाममूलक बनाने का प्रयास करती हैं जिससे देश के समग्र विकास में समयानुसार परिपक्वता आ सके। इनमें वैज्ञानिक से लेकर साहित्य, खेल, मनोरंजन, चिकित्सा, न्याय व सांस्कृतिक जगत से जुड़ी प्रतिभाएं तक शामिल होती हैं। बेशक राष्ट्रपति ने यह नामांकन ‘अपनी’ सरकार की सलाह पर ही किया है फिर भी इसमें उनकी मौलिक सोच एवं परिपक्वता का ही परिचय मिलता है। 

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रंजन गोगोई के राज्यसभा में शपथ लेने के लिए पहुंचने पर जिस तरह कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी सदस्यों ने ‘शर्म-शर्म’ के नारे के साथ विरोध किया उसे स्वयं में ‘शर्मनाक’ कहा जा सकता है। गोगोई द्वारा मुख्य न्यायाधीश पद से दिये गये फैसलों से कांग्रेस के नेताओं के मतभेद हो सकते हैं परन्तु राष्ट्रपति के फैसले से उनका मतभेद कैसे हो सकता है जिसे उन्होंने अपने संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए किया है ? अतः परोक्ष रूप से कांग्रेस की ओर से गोगोई का विरोध राष्ट्रपति का विरोध ही समझा जायेगा, लोकतंत्र की मर्यादाओं एवं कार्यप्रणाली का ही विरोध कहा जायेगा। विरोध के स्वर तो अन्यत्र भी सुनाई दे रहे हैं, ऐसे स्वर जहां उभरते हैं, वहां सोच की मौलिक दिशाएं उद्घाटित नहीं होतीं। वहां राजनीतिक दलों में जड़ता, नैराश्य ही दिखाई देता है। वे स्वार्थी एवं संकीर्ण धारणाओं के आधार पर अपने को सिद्ध करते हैं। ऐसे राजनीतिक लोग असंतुष्ट कामनाओं एवं दमित आकांक्षाओं के कारण राष्ट्रहितों को भूल कर स्वयं के स्वार्थों पर केन्द्रित हो जाते हैं। उनका आत्मविश्वास एवं मनोबल ढीला पड़ जाता है। आज लोकतंत्र को विरोध का शस्त्र नहीं, बल्कि नवनिर्माण का रचनात्मक-सृजनात्मक संकल्प चाहिए।

जबकि राष्ट्रपति एवं मोदी सरकार परिस्थितियों के विरोध में खड़े रहने की ताकत रखते हैं, उनके लिये हर स्थिति एक सबक होती है लोकतंत्र को एक नया अर्थ देने की। उनके सामने रास्ते के पत्थर भी मन्दिर की सीढ़ियां बन जाते हैं। हमारा लोकतंत्र ऐसे ही साहसी एवं मौलिक सोच वाले व्यक्तियों की खोज में रहा है जो न परम्परावादी बन कर जीये हैं और न ही बिना सोचे-समझे नई मान्यताओं को थोपा है।

देश के मुख्य न्यायाधीश पद की शोभा बढ़ाने वाले रंजन गोगोई अब राज्यसभा की शोभा बनेंगे, यह तो लोकतंत्र के इतिहास की विरल घटना है, जिसका स्वागत होना चाहिए। उनके चयन पर प्रश्न खडे़ करने वालों को सोचना होगा कि पिछली मनमोहन सरकार के दौर में फिल्म अभिनेत्री रेखा की नामजदगी क्या सोच कर की गई थी ? जब पं. जवाहर लाल नेहरू ने 1952 में आइनस्टाइन के सहयोगी रहे प्रख्यात भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्र नाथ बोस के साथ फिल्म अभिनेता पृथ्वीराज कपूर और हिन्दी के मूर्धन्य कवि मैथिली शरण गुप्त को भी राज्यसभा में नामांकित कराया था तो पूरे भारत को लगा था कि संसद में नवरत्नों की बहार आ गई है, राष्ट्रपति के द्वारा 12 ऐसे ही नवरत्नों के चयन की परम्परा डाली गयी थी ताकि उच्च-सदन में ऐसी प्रतिभाएं किन्हीं कारण वोट की राजनीति से वहां तक नहीं पहुंच पाएं तो राष्ट्रपति उन्हें वहां पहुंचायें और देश उससे लाभान्वित हो। कालान्तर में इस तरह की आदर्श परम्परा का पतन दौर ही देखने को मिला। अब यदि इस धुंधली होती परम्परा को नवजीवन मिल रहा है तो इतना विरोध क्यों ? योग्यता एवं प्रतिभा को नकारने की नीयत लोकतन्त्र में कदापि स्वीकार नहीं की जा सकती। अतः गोगोई के शपथ ग्रहण के दौरान शर्म-शर्म के नारे लगाने वालों ने राज्यसभा की गरिमा को आहत किया है। राजनीतिक स्वार्थों की भागदौड़ में वे इतने संवेदनहीन कैसे हो गये ?

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गोगोई की प्रधान न्यायाधीश पद पर नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के नियमों के अनुसार की गई थी और इस पद पर बैठने के बाद उन्होंने जो निर्णय लिये उससे भारत मजबूत ही हुआ, वर्षों से चली आ रही लम्बित समस्याएं निर्णय की स्थिति में पहुंची, इसके लिये उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। राज्यसभा में पहुंचकर वे अपनी क्षमताओं एवं योग्यताओ से भारत को मजबूती देंगे, इसमें किसी तरह का शंका नहीं है। उनके द्वारा किया गया न्याय भी ‘न्याय’ ही माना जायेगा। भले ही उनके अवकाश प्राप्त करने पर जिस तरह एक विशेष वर्ग उन्हें कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहा है उसी से सिद्ध होता है कि इन लोगों की दृष्टि केवल एक पक्ष को ही सोचती है, अपने स्वार्थ पर ही केन्द्रित है। रामजन्म भूमि विवाद पर दिये गये फैसले को लेकर गोगोई की आलोचना करने में यह वर्ग पीछे नहीं रहता। जबकि इस विवाद को हमेशा के लिए जड़ से समाप्त कर गोगोई ने जिस दूरदृष्टि, विवेक एवं राष्ट्रीयता का परिचय देते हुए न्याय किया वह एक ऐतिहासिक निर्णय रहा और सदियों तक यह एक मिसाल के रूप में स्मरणीय रहेगा। इस फैसले से सभी वर्ग संतुष्ट थे और एक सकारात्मक वातावरण देश में बना।

गोगोई का मुख्य न्यायाधीश का कार्यकाल हर दृष्टि से ऐतिहासिक एवं यादगार रहा। उन्होंने जितने भी फैसले दिए हैं, जैसे राम मंदिर, सबरीमला, राफेल सौदा, सीबीआई और असम की जनगणना आदि, वे सब ज्वलंत मुद्दे थे, उलझन भरे थे, समाधान ही राह ताक रहे थे, यह गोगोई की विशेषता, क्षमता एवं प्रतिभा ही कहीं जायेगी कि उन्होंने अपनी सूझबूझ से इन पर ऐतिहासिक निर्णय देकर अनिर्णय के धुंधलकों को छांटा एवं भारत को सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया। ऐसे व्यक्ति के पास साहस के कदम और विवेक की आंख होती है। साहस चलता है और विवेक देखता है। उसकी चिन्तन एवं कर्म यात्रा रूढ़ियों एवं जड़ता से प्रारंभ नहीं होती। वह अपने प्रत्येक निर्णय एवं कर्म को उचित-अनुचित के पैमाने से तोलकर आगे बढ़ता है। उसकी आंखों में उन्नत भारत के भविष्य के सपने तैरते हैं, क्योंकि वह अपने समय से बहुत आगे की सोचता है और देखता है। भले ही उसकी बात को और उसके निर्णय को संकीर्ण एवं स्वार्थी सोच के लोग सहज स्वीकृति नहीं देते, कई वैचारिक एवं राजनीतिक संघर्ष जनमते हैं, पर धैर्य ऐसे व्यक्ति का कभी टूटता नहीं, सत्य विजयी बनता है। भले ही उनकी इस प्रभावी भूमिका के पारितोषिक के रूप में सरकार ने उन्हें राज्यसभा में लाने का निर्णय किया है तो इसमें गलत क्या है ? और गोगोई ने इसे सहज स्वीकृति दी है तो उसके निहितार्थ भविष्य के गर्भ में हैं, जिनके प्रकट होने पर रोशनी ही होनी है, धुंधलका नहीं। इसलिए गोगोई का राज्यसभा में गर्मजोशी के साथ स्वागत होना चाहिए था मगर ऐसा नहीं हो सका, यह विरोध करने वालों के विवेक पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न है। हमारे लोकतंत्र के लिये यह स्वर्णिम काल है कि हम लक्ष्यबद्ध होकर अपनी मौलिकता एवं राष्ट्र-निर्माण के संकल्प को उभरने का अवसर दे रहे हैं ताकि हमारी आंतरिक उपलब्धियों के नजदीक पहुंचा जा सके।

-ललित गर्ग

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