भारत और ब्रिटेन के बीच हुए फ्री ट्रेड एग्रीमेंट से ऐसे दूरगामी वैश्विक असर पड़ेंगे

आंकड़े बताते हैं कि भारत और ब्रिटेन के बीच पुराने व्यापारिक रिश्तों के बावजूद 2023-24 में केवल 21.34 बिलियन डॉलर का व्यापार हुआ था। जो दोनों देशों के अर्थव्यवस्था के आकार को देखते हुए यह आंकड़ा बहुत कम है।
हाल ही में भारत और ब्रिटेन के बीच हुआ मुक्त व्यापार समझौता (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट) केंद्र में सत्तारूढ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार की एक बड़ी उपलब्धि है। इसके अंतरराष्ट्रीय मायने बेहद अहम हैं, क्योंकि इसका फायदा दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं को मिलेगा। इस प्रकार भारत और ब्रिटेन के बीच हुए फ्री ट्रेड एग्रीमेंट से आने वाले वर्षों में दूरगामी वैश्विक असर भी देखने को मिलेंगे।
यह कहना गलत नहीं होगा कि अमेरिका प्रेरित भूमंडलीकरण और निजीकरण की नीतियों पर आधारित मुक्त वैश्विक अर्थव्यवस्था के दौरान, पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से कारोबारी संरक्षणवाद बढ़ा है, उसमें ऐसे व्यापार समझौतों की भूमिका और भी अहम हो जाती है। देखा जाए तो भाजपा नीत एनडीए सरकार ने 2014 में केंद्रीय सत्ता में आने के बाद भारत ने मॉरिशस, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई), ऑस्ट्रेलिया और ईएफटीए के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट किया है।
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लिहाजा, भारत-ब्रिटेन में बीच हुआ एफटीए उसी की एक अगली कड़ी है। जबकि यूरोप से हमारी बातचीत जारी है, जिसे जल्द से जल्द अंजाम तक पहुंचाया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए कि अर्थव्यवस्था (इकॉनमी) के मोर्चे पर आने वाली संभावित चुनौतियों से निपटने में ऐसी ही द्विपक्षीय व्यापारिक डील सहायक होती हैं।
आंकड़े बताते हैं कि भारत और ब्रिटेन के बीच पुराने व्यापारिक रिश्तों के बावजूद 2023-24 में केवल 21.34 बिलियन डॉलर का व्यापार हुआ था। जो दोनों देशों के अर्थव्यवस्था के आकार को देखते हुए यह आंकड़ा बहुत कम है। लिहाजा माना जा रहा है कि ट्रेड डील से सालाना व्यापार 34 बिलियन डॉलर तक बढ़ जाएगा। जबकि दोनों देश साल 2030 तक इसे 120 बिलियन डॉलर की ऊंचाई पर पहुंचाना चाहते है।
इससे साफ है कि अब दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ेगा और कारोबारी संतुलन लाने में भी आशातीत मदद मिलेगी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आधुनिक भारत के निर्माण में इंग्लैंड का बहुत बड़ा योगदान है, क्योंकि 1947 से पहले इंडिया पर उसी का शासन था। कॉमनवेल्थ देशों के सदस्य के नाते उससे भावनात्मक लगाव भी है।
देखा जाए तो इस समझौते को लेकर लंबे समय से भारत-ब्रिटेन के बीच फ्री ट्रेड डील की बातचीत चल रही थी। इसकी वजह से ही अमेरिका की टैरिफ सम्बन्धी बातचीत भी चल रही थी और हाल में ही इसमें भी तेजी आई है। इसके पीछे एक नीति है। क्योंकि डॉनल्ड ट्रंप की ट्रेड पॉलिसी ने पूरी दुनिया में आर्थिक व सैन्य अनिश्चितता बढ़ा दी है। ऐसे में इस तरह के द्विपक्षीय समझौते से दोनों देशों को इस अनिश्चितता को घटाने और व्यापार बढ़ाने में मदद मिलेगी।
भारत के मेक इन इंडिया के लिहाज से भी यह डील बेहद अहम है। इससे करीब 99 प्रतिशत निर्यात यानी यहां से ब्रिटेन जाने वाली चीजें पर टैरिफ से राहत मिलेगी। इससे वहां पर हमारा व्यापार बढ़ेगा। इसी तरह ब्रिटेन से आनी वाली चीजें भारत में सस्ती मिल सकेगी। लिहाजा इस डील से भारत के टेक्सटाइल्स, लेदर और इलेक्ट्रॉनिक्स को एक बड़ा फायदा होगा। इनसे हमारे मैन्युफैक्चरिंग उद्योग को भी बढ़ावा मिलेगा।
बता दें कि अभी ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग में भारत की हिस्सेदारी केवल 2.8 फीसदी है, जबकि चीन की 28.8 फीसदी। इसी तरह, देश की सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीडीपी) में मैन्युफैक्चरिंग का योगदान 17 प्रतिशत है और सरकार इसे 25 प्रतिशत तक बढ़ाना चाहती है। इसलिए इस तरह की डील से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय, दोनों स्तर पर प्रदर्शन में सुधार होगा।
भारत-इंग्लैंड के बीच हुए एफटीए सेवकृषि सेक्टर को भी फायदा पहुंचेगा। इसी तरह के व्यापारिक समझौते के लिए इस समय भारत की बातचीत लम्बे समय से अमेरिका से भी चल रही है। लेकिन वहां कृषि और डेयरी प्रॉडक्ट्स को लेकर रस्साकशी है। क्योंकि अमेरिका इन दोनों क्षेत्रों में खुली छूट चाहता है, जबकि अपने लोगों के हितों को देखते हुए भारत ऐसा कदापि नहीं कर सकता है। इसलिए ब्रिटेन के साथ मुक्त व्यापार होने से भारत के कृषि उद्योग को बढ़ावा मिलेगा।
इस बीच, अगर भारत की अमेरिका के साथ अच्छी व्यापार डील हो जाती है तो उससे भी विकसित भारत के संकल्प को पूरा करने की ओर हमारे कदम आगे बढ़ेंगे। हालांकि, भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति, पिछले एक दशक के आशातीत आर्थिक विकास आदि से अमेरिका चिढ़ा हुआ है। उसकी नीति रही है कि अमेरिकी कम्पनियां चीन में सस्ता माल बनाएंगी और उसे भारत में खपायेंगी। लेकिन मनमोहन सरकार की इस राष्ट्रविरोधी नीति को नरेंद्र मोदी सरकार ने पलट दी है और मेक इन इंडिया, मेक फ़ॉर द वर्ल्ड जैसी ठोस राष्ट्रवादी नीतियों को बढ़ावा दिया है।
भारत से अमेरिका की चिढ़ की एक मौलिक वजह यह भी है कि वह भारत को रूस से दूर करके चीन से लड़ाना चाहता है, भारत के पड़ोसी देशों को चीन-पाकिस्तान की मदद से इंडिया से उलझाना चाहता है, ताकि अरब देशों की तरह भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में भी उसका दबदबा बढ़े और हथियार खपे। लेकिन वसुधैव कुटुम्बकम का भाव रखने वाले भारत के साथ अमेरिका की एक नहीं चली। इसलिए वह आतंकवादी उत्पादन करने की फैक्ट्री बन चुके पाकिस्तान की शरण में फिर चला गया, जहां चीन से उसे कड़ी टक्कर मिल रही है।
चूंकि अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर अमेरिका-चीन के बीच आर्थिक व सैन्य होड़ मची हुई है, इसलिए भारत की कोशिश है कि इस पचड़े में न पड़ते हुए अपना चहुंमुखी विकास किया जाए। चूंकि इस दिशा में भारत के पुराने व भरोसेमंद देश रूस की भरपूर तकनीकी मदद भारत को मिल रही है। इसलिए अमेरिका-यूरोप भारत पर दबाव बढ़ा रहे हैं कि वह रूस से अपने रिश्ते कम करे और पश्चिमी देशों से सहयोग बढ़ाए, जो आजतक किसी के हुए ही नहीं और प्रथम-द्वितीय विश्वयुद्ध की वजह बने।
आज जिस तरह से अमेरिका-यूरोपीय देश रूस के पड़ोसी यूक्रेन की मदद कर रहे हैं, इससे उनकी गलत मंशा को समझा जा सकता है। इजरायल को अरब देशों के साथ भिड़ाए रखना, पाकिस्तान को भारत से भिड़ाए रखना, चीन को ताइवान से भिड़ाए रखना जैसी उनकी कई क्षुद्र नीतियां हैं, जिससे अंतरराष्ट्रीय मानवता भी कभी-कभार संकट में आ जाती है।
यही वजह है कि रूस का मित्र देश चीन अपनी "वन बेल्ट, वन रूट" जैसी अग्रगामी व्यापारिक नीतियों के माध्यम से अमेरिका को एशिया व यूरोप से बाहर धकेलना चाहता है। जबकि अमेरिका अपने सदाबहार मित्र यूरोपीय देशों के सहयोग से भारत को चीन के खिलाफ आगे बढ़ाना चाहता है, लेकिन भारत-रूस की आपसी सूझबूझ से अमेरिकी दाल यहां पर नहीं गल पा रही है।
यह ठीक है कि चीन, भारत के साथ दोगली चालें चलते रहता है, लेकिन भारत अपने दोस्त रूस के हितों के दृष्टिगत चीन को ज्यादा क्षति नहीं पहुंचाता, बल्कि सिर्फ आत्मरक्षा के उपाय करते रहता है। यही बात अमेरिका व उसके पिछलग्गू देशों को अखड़ती है। अपनी इसी चिढ़ के चलते अमेरिका अब भारत के खिलाफ खुलेआम चाल चलता है, जबकि भारत दुनिया की तीसरी बड़ी सैन्य शक्ति और चौथी बड़ी आर्थिक शक्ति बन चुका है।
उम्मीद है कि शीघ्र ही भारत, जमर्नी को पछाड़ कर दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाएगा और ग्लोबल साउथ के सहयोग से अमेरिका-चीन दोनों की जनविरोधी नीतियों को कड़ी चुनौती देगा।
आपको पता होना चाहिए कि अमेरिका जहां आतंकवादी पैदा करता-करवाता है, वहीं चीन नक्सली पैदा करता-करवाता है, जो इनके वैश्विक एजेंडे की पूर्ति के लिए पूरी दुनिया में उधम मचाते रहते हैं। अरब देश भी इनकी मदद करते हैं पारस्परिक प्रतिस्पर्धा में। भारत इसे बखूबी समझता है और मजबूत पलटवार भी करता रहता है। इसलिए मानवीयता को वैश्विक क्षितिज पर पुनर्स्थापित करने के लिए भी भारत को आर्थिक व सैन्य रूप से काफी मजबूत होना पड़ेगा, अन्यथा विकसित देश सबको परस्पर लड़ाकर मार डालेंगे।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक
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