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वसंत पंचमी पर्व का धार्मिक ही नहीं बड़ा ऐतिहासिक महत्व भी है
- विजय कुमार
- फरवरी 9, 2019 19:11
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इसके साथ ही यह पर्व हमें अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं की भी याद दिलाता है। सर्वप्रथम तो यह हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े।
वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण−कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु−पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। हर दिन नयी उमंग से सूर्योदय होता है और नयी चेतना प्रदान कर अगले दिन फिर आने का आश्वासन देकर चला जाता है। यों तो माघ का यह पूरा मास ही उत्साह देने वाला है, पर वसंत पंचमी का पर्व भारतीय जनजीवन को अनेक तरह से प्रभावित करता है। प्राचीनकाल से इसे ज्ञान और कला की देवी मां सरस्वती का जन्मदिवस माना जाता है। जो शिक्षावदि् भारत और भारतीयता से प्रेम करते हैं, वे इस दिन मां शारदे की पूजा कर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं।
कलाकारों का तो कहना ही क्या ? जो महत्व सैनिकों के लिए अपने शस्त्रों और विजयादशमी का है, जो विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों और व्यास पूर्णिमा का है, जो व्यापारियों के लिए अपने तराजू, बाट, बहीखातों और दीपावली का है, वही महत्व कलाकारों के लिए वसंत पंचमी का है। चाहे वे कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सब दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं।
इसके साथ ही यह पर्व हमें अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं की भी याद दिलाता है। सर्वप्रथम तो यह हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दंडकारण्य भी था। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी। जब राम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध−बुध खो बैठी और चख−चखकर मीठे बेर राम जी को खिलाने लगी। प्रेम में पगे झूठे बेरों वाली इस घटना को रामकथा के सभी गायकों ने अपने−अपने ढंग से प्रस्तुत किया।
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दंडकारण्य का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। वसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रद्धा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है। मोरारी बापू की प्रेरणा से वहां 10 से 12 फरवरी तक शबरी कुंभ का आयोजन हो रहा है।
वसंत पंचमी का लाहौर निवासी वीर हकीकत से भी गहरा संबंध है। एक दिन जब मुल्ला जी किसी काम से विद्यालय छोड़कर चले गये, तो सब बच्चे खेलने लगे, पर वह पढ़ता रहा। जब अन्य बच्चों ने उसे छेड़ा, तो दुर्गा मां की सौगंध दी। मुस्लिम बालकों ने दुर्गा मां की हंसी उड़ाई। हकीकत ने कहा कि यदि मैं तुम्हारी बीबी फातिमा के बारे में कुछ कहूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा?
बस फिर क्या था, मुल्ला जी के आते ही उन शरारती छात्रों ने शिकायत कर दी कि इसने बीबी फातिमा को गाली दी है। फिर तो बात बढ़ते हुए काजी तक जा पहुंची। मुस्लिम शासन में वही निर्णय हुआ, जिसकी अपेक्षा थी। आदेश हो गया कि या तो हकीकत मुसलमान बन जाये, अन्यथा उसे मृत्युदंड दिया जायेगा। हकीकत ने यह स्वीकार नहीं किया। परिणामतः उसे तलवार के घाट उतारने का फरमान जारी हो गया।
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कहते हैं उसके भोले मुख को देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गयी। हकीकत ने तलवार उसके हाथ में दी और कहा कि जब मैं बच्चा होकर अपने धर्म का पालन कर रहा हूं, तो तुम बड़े होकर अपने धर्म से क्यों विमुख हो रहे हो? इस पर जल्लाद ने दिल मजबूत कर तलवार चला दी, पर उस वीर का शीश धरती पर नहीं गिरा। वह आकाशमार्ग से सीधा स्वर्ग चला गया। यह घटना वसंत पंचमी (23.2.1734) को ही हुई थी। पाकिस्तान यद्यपि मुस्लिम देश है, पर हकीकत के आकाशगामी शीश की याद में वहां वसंत पंचमी पर पतंगें उड़ाई जाती हैं। हकीकत लाहौर का निवासी था। अतः पतंगबाजी का सर्वाधिक जोर लाहौर में रहता है।
वसंत पंचमी हमें गुरु रामसिंह कूका की भी याद दिलाती है। उनका जन्म 1816 ई. में वसंत पंचमी पर लुधियाना के भैणी ग्राम में हुआ था। कुछ समय वे रणजीत सिंह की सेना में रहे, फिर घर आकर खेतीबाड़ी में लग गये, पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रवचन सुनने लोग आने लगे। धीरे−धीरे इनके शिष्यों का एक अलग पंथ ही बन गया, जो कूका पंथ कहलाया।
गुरु रामसिंह गोरक्षा, स्वदेशी, नारी उद्धार, अंतरजातीय विवाह, सामूहिक विवाह आदि पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने भी सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था। 1872 में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उन्होंने उसे पीटा और गोवध कर उसके मुंह में गोमांस ठूंस दिया। यह सुनकर गुरु रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने उस गांव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी। अतः युद्ध का पासा पलट गया।
इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गये। इनमें से 50 को सत्रह जनवरी 1872 को मलेरकोटला में तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया गया। शेष 18 को अगले दिन फांसी दी गयी। दो दिन बाद गुरू रामसिंह को भी पकड़कर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। 14 साल तक वहां कठोर अत्याचार सहकर 1885 ई. में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।
वसंत पंचमी हिन्दी साहित्य की अमर विभूति महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्मदिवस (28.02.1899) भी है। निराला जी के मन में निर्धनों के प्रति अपार प्रेम और पीड़ा थी। वे अपने पैसे और वस्त्र खुले मन से निर्धनों को दे डालते थे। इस कारण लोग उन्हें 'महाप्राण' कहते थे। एक बार नेहरूजी ने शासन की ओर से कुछ सहयोग का प्रबंध किया, पर वह राशि उन्होंने महादेवी वर्मा को भिजवाई। उन्हें भय था कि यदि वह राशि निराला जी को मिली, तो वे उसे भी निर्धनों में बांट देंगे।
जहां एक ओर वसंत ऋतु हमारे मन में उल्लास का संचार करती है, वहीं दूसरी ओर यह हमें उन वीरों का भी स्मरण कराती है, जिन्होंने देश और धर्म के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी। आइये, इन सबकी स्मृति में नमन करते हुए हम भी वसंत के उत्साह में सम्मिलति हों।
−विजय कुमार
दुनिया के किसी भी टैंक को ध्वस्त कर सकती है ‘ध्रुवास्त्र’ मिसाइल
- योगेश कुमार गोयल
- मार्च 9, 2021 11:48
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दुनिया में सबसे आधुनिक टैंक रोधी हथियारों में शामिल इस मिसाइल को सेना और वायुसेना में शामिल किया जाएगा। ध्रुवास्त्र नाम की हेलिना हथियार प्रणाली के एक संस्करण को भारतीय वायुसेना में शामिल किया जा रहा है, जिसका इस्तेमाल ध्रुव हेलिकॉप्टर के साथ किया जाएगा।
दुश्मन के टैंकों को नेस्तनाबूद करने में सबसे कारगर मानी जाने वाली स्वदेश निर्मित टैंक रोधी मिसाइल हेलिना के नवीनतम संस्करण ‘ध्रुवास्त्र’ का राजस्थान में पोखरण फायरिंग रेंज में भारतीय वायुसेना द्वारा गत दिनों सफल परीक्षण किया गया। मिसाइल की न्यूनतम और अधिकतम क्षमता का मूल्यांकन करने के लिए पांच परीक्षण किए गए और स्थिर तथा गतिशील लक्ष्यों पर मिसाइल से निशाना साधा गया, कुछ परीक्षणों में युद्धक हथियारों को भी शामिल किया गया। एक परीक्षण में उड़ते हेलीकॉप्टर से गतिशील लक्ष्य पर निशाना साधा गया। हेलीकॉप्टर ध्रुव से दागी गई देश में ही विकसित ध्रुवास्त्र मिसाइल ने अपने लक्ष्य पर सटीक प्रहार कर उसे नष्ट कर दिया। वायुसेना और डीआरडीओ की टीम पोखरण में तीन दिन से इस मिसाइल के परीक्षण की तैयारियों में जुटी थी। इन सफल परीक्षणों के बाद डीआरडीओ द्वारा भारतीय सेना के लिए ध्रुवास्त्र जैसी एंटी टैंक गाइडेड मिसाइलों को तैयार किया जाना डीआरडीओ और सेना के लिए बड़ी उपलब्धि इसलिए माना जा रहा है क्योंकि अब ऐसी आधुनिक एंटी टैंक गाइडेड मिसाइलों के लिए भारत की दूसरे देशों पर निर्भरता कम होती जाएगी।
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मौजूदा परिस्थितियों में देश को ऐसे हथियारों की जरूरत है, जो सटीक और सस्ते हों और इसके लिए जरूरी है कि देश में ही इन हथियारों का निर्माण हो। मेक इन इंडिया को बढ़ावा देने के लिए ही डीआरडीओ स्वदेशी मिसाइलें बना रहा है। रक्षा विशेषज्ञों के मुताबिक पड़ोसी दुश्मनों के खिलाफ लड़ाई में क्विक रिस्पांस वाली स्वदेशी मिसाइल ‘ध्रुवास्त्र’ गेमचेंजर साबित हो सकती है। यह मिसाइल न केवल चीन के टैंकों को चंद पलों में ही खाक में मिलाने में सक्षम है बल्कि एलएसी पर चीन के हल्के टैंकों को तो खिलौनों की भांति नेस्तनाबूद कर सकती है। स्वदेशी हेलीकॉप्टर ध्रुव तथा अन्य हल्के हेलीकॉप्टरों में फिट होने के बाद यह मिसाइल दुश्मन के टैंकों के लिए काल बन जाएगी और इस तरह जमीनी लड़ाई का रूख बदलने में अहम भूमिका निभाने के कारण यह भारतीय सेना के लिए बेहद कारगर साबित होगी।
दुनिया में सबसे आधुनिक टैंक रोधी हथियारों में शामिल इस मिसाइल को सेना और वायुसेना में शामिल किया जाएगा। ध्रुवास्त्र नाम की हेलिना हथियार प्रणाली के एक संस्करण को भारतीय वायुसेना में शामिल किया जा रहा है, जिसका इस्तेमाल ध्रुव हेलिकॉप्टर के साथ किया जाएगा। अपने लक्ष्य को बेहद सटीकता से नष्ट करने के बाद अब इसे बहुत जल्द सेना के हेलिकॉप्टरों में लगाया जा सकेगा, साथ ही इसका उपयोग एचएएल रूद्र तथा एचएएल लाइट कॉम्बैट हेलीकॉप्टर्स में भी होगा। यह मिसाइल दुनिया के किसी भी टैंक को उड़ा सकती है और रणक्षेत्र में आगे बढ़ते दुश्मन के टैंकों को बारी-बारी से ध्वस्त करने में पूर्ण रूप से सक्षम है। तीसरी पीढ़ी की ‘दागो और भूल जाओ’ तकनीक पर काम करने वाली देश में ही विकसित इस मिसाइल को ध्रुवास्त्र नाम दिया गया है। नाग पीढ़ी की इस मिसाइल को हेलिकॉप्टर से दागे जाने के कारण इसे हेलिना नाम दिया गया था।
ध्रुवास्त्र को आसमान से सीधे दागकर दुश्मन के बंकर, बख्तरबंद गाड़ियों और टैंकों को पलभर में ही नष्ट किया जा सकता है। यह मिसाइल दुनिया के सबसे आधुनिक एंटी-टैंक हथियारों में से एक है और इसे हेलीकॉप्टर से लांच किया जा सकता है। डीआरडीओ के मुताबिक ध्रुवास्त्र तीसरी पीढ़ी की ‘दागो और भूल जाओ’ किस्म की टैंक रोधी मिसाइल प्रणाली है, जिसे आधुनिक हल्के हेलीकॉप्टर पर स्थापित किया गया है। हल्के हेलीकॉप्टर पर स्थापित करने से इसकी मारक क्षमता काफी बढ़ जाएगी। स्वदेश निर्मित इस मिसाइल का नाम पहले ‘नाग’ था, जिसे अब ध्रुवास्त्र कर दिया गया है। वास्तव में यह सेना के बेड़े में पहले से शामिल नाग मिसाइल का उन्नत संस्करण है। इसका इस्तेमाल भारतीय सेना के स्वदेश निर्मित अटैक हेलीकॉप्टर ‘ध्रुव’ के साथ किया जाएगा, इसीलिए इसका नाम ‘ध्रुवास्त्र’ रखा गया है। इस मिसाइल से लैस होने के बाद ध्रुव हेलिकॉप्टर ‘ध्रुव मिसाइल अटैक हेलीकॉप्टर’ बन जाएगा। दरअसल सेना की इस नई मिसाइल का मूलमंत्र ही है ‘सिर्फ दागो और भूल जाओ’।
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ध्रुवास्त्र मिसाइल पलक झपकते ही दुश्मन के टैंकों के परखच्चे उड़ा सकती है। पूर्ण रूप से स्वदेशी ध्रुवास्त्र मिसाइल 230 मीटर प्रति सैकेंड अर्थात् 828 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से चलती है और मिसाइल की यह गति इतनी है कि पलक झपकते ही दुश्मन के भारी से भारी टैंक को बर्बाद कर सकती है। ‘फायर एंड फॉरगेट’ सिस्टम पर कार्य करने वाली यह मिसाइल भारत की पुरानी मिसाइल ‘नाग हेलीना’ का हेलीकॉप्टर संस्करण है, जिसमें कई नई तकनीकों का समावेश करते हुए इसे आज की जरूरतों के हिसाब से तैयार किया गया है। रक्षा विशेषज्ञों के मुताबिक इस मिसाइल प्रणाली में डीआरडीओ द्वारा एक से बढ़कर एक आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया गया है। मिसाइल में हीट सेंसर, इंफ्रारेड होमिंग इमेजिंग प्रणाली तथा मिलीमीटर वेव एक्टिव रडार लगा हुआ है। हीट सेंसर किसी भी टैंक की गर्मी पकड़ कर अपनी दिशा निर्धारित कर उसे तबाह कर देता है। इंफ्रारेड इमेजिंग का फायदा रात और खराब मौसम में मिलता है।
रक्षा विशेषज्ञ ध्रुवास्त्र की विशेषताओं को देखते हुए इसे ‘भारत के ब्रह्मास्त्र’ की संज्ञा भी दे रहे हैं। भारतीय सेना में इसके शामिल होने के बाद उम्मीद की जा रही है कि इससे न केवल सीमा पर दुश्मन देश की सेना के मुकाबले हमारी सेना की क्षमताओं में बढ़ोतरी होगी बल्कि मेक इन इंडिया मुहिम के तहत निर्मित ऐसे खतरनाक और अत्याधुनिक हथियारों के बलबूते भारतीय सेना का हौंसला भी काफी बढ़ेगा। 500 मीटर से 7 किलोमीटर के बीच मारक क्षमता वाली यह बेहद शक्तिशाली स्वदेशी मिसाइल दुश्मन के किसी भी टैंक को देखते ही देखते खत्म करने की ताकत रखती है। हालांकि सात किलोमीटर तक की इस क्षमता को ज्यादा बड़ा नहीं माना जाता लेकिन रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि धीरे-धीरे इस क्षमता को भी बढ़ाया जाएगा। 230 मीटर प्रति सैकेंड की रफ्तार से लक्ष्य पर निशाना साधने में सक्षम इस मिसाइल की लम्बाई 1.9 मीटर, व्यास 0.16 मीटर और वजन 45 किलोग्राम है। इसमें 8 किलोग्राम विस्फोटक लगाकर इसे बेहतरीन मारक मिसाइल बनाया जा सकता है।
ध्रुवास्त्र मिसाइल दोनों तरह से अपने टारगेट पर हमला करने के अलावा टॉप अटैक मोड में भी कार्य करने में सक्षम है। इस मिसाइल की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह दुर्गम स्थानों पर भी दुश्मनों के टैंकों के आसानी से परखच्चे उड़ा सकती है। इस टैंक रोधी मिसाइल प्रणाली में एक तीसरी पीढ़ी की एंटी टैंक गाइडेड मिसाइल ‘नाग’ के साथ मिसाइल कैरियर व्हीकल भी है। यह टैंक रोधी मिसाइल प्रणाली हर प्रकार के मौसम में दिन-रात यानी किसी भी समय अपना पराक्रम दिखाने में सक्षम है और न केवल पारम्परिक रक्षा कवच वाले युद्धक टैकों को बल्कि विस्फोटकों से बचाव के लिए कवच वाले टैंकों को भी नेस्तनाबूद कर सकती है।
-योगेश कुमार गोयल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं)
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- प्रज्ञा पाण्डेय
- मार्च 8, 2021 11:54
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पिछले साल भारत में शुरू हुई कोरोना महामारी के भय ने लोगों को घरों में बंद कर दिया। सामान्य गतिविधियों में कमी आने के कारण लोगों में अवसाद बढ़ गया। लेकिन कोरोना पहली महामारी नहीं है जिसने दुनिया में तबाही मचायी है बल्कि इससे पहले भी विश्व ने कई घातक बीमारियों का सामना किया है।
कोरोना महामारी के शुरूआती दिनों में हुए लॉकडाउन में स्त्रियों ने मुश्किलें तो उठायीं लेकिन हार नहीं मानीं। अपने परिवार को बीमारी की भयावहता, भूख की विवशता तथा अवसाद की तीव्र वेदना से निकालने के लिए जूझती रही नारी, अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर नारियों की गौरव गाथा इस विकट परिस्थिति की चर्चा बिना अधूरी है।
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पिछले साल भारत में शुरू हुई कोरोना महामारी के भय ने लोगों को घरों में बंद कर दिया। सामान्य गतिविधियों में कमी आने के कारण लोगों में अवसाद बढ़ गया। लेकिन कोरोना पहली महामारी नहीं है जिसने दुनिया में तबाही मचायी है बल्कि इससे पहले भी विश्व ने कई घातक बीमारियों का सामना किया है। इस तरह की खतरनाक बीमारियों में स्पेनिश फ्लू प्रमुख है। 1918 में आयी इस बीमारी से दुनिया भर में 5-10 करोड़ लोगों की मौत हुई थी। लेकिन 1919 में यह बीमारी खत्म हो गयी। इसके अलावा मिश्र में फैले जस्टिनियन प्लेग को इतिहास की दूसरी सबसे घातक महामारी के रूप में माना जाता है। यह बीमारी अगली दो सदी तक बार-बार आती रही इससे पांच करोड़ लोगों की मौत हुई थी।
कोरोना महामारी ने भारतीय स्त्रियों के लिए पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों पर निर्भरता को बढ़ा दिया है। महामारी का संक्रमण तो स्त्री तथा पुरुष पर समान आक्रमण कर रहा है लेकिन हमारा समाज स्त्रियों के प्रति होने वाले भेदभाद भाव के प्रति तटस्थ नहीं रहा है। कोरोना महामारी के बहाने स्त्रियों के लिए सदियों से खीचीं गए घरेलू दायरों की लक्ष्मण रेखा पर चर्चा हुई है। साथ ही स्त्रियों हेतु काम के अधिकार, उनकी लैंगिक समानता तथा आजीविका हेतु संघर्ष के विषय भी आज प्रासंगिक हैं।
कोरोना महामारी के दौरान सार्वजनिक स्थानों तथा घर के बीच में खीचीं गयी लक्ष्मण रेखा का पुरुषों ने पहली बार अनुभव किया। ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक रूप से ऐसा पहली बार हुआ जब स्त्रियों के साथ पुरुष भी घर की चारदीवारी में बंद थे। इस दौरान न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में स्त्रियों के खिलाफ असहनीय उत्पीड़न की कहानी लिखी गयी। महिलाओं को इस लक्ष्मण रेखा की आदत थी लेकिन इस बार वह घर के अंदर सुरक्षित नहीं थी। इस बार उत्पीड़न की शिकार स्त्रियां घर से बाहर नहीं जा सकती थीं। स्वास्थ्य तथा पेट भरने की कठिनाइयों ने नयी परिस्थितियों को जन्म दिया। इस बार घर में हिंसा तो थी आजीविका हेतु घर के बाहर किए जाने वाले छोटे-मोटे काम भी हाथ से जा रहे थे।
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सामान्य परिस्थितियों में स्त्रियों को आजीविका हेतु इच्छा न होते हुए भी जबरजस्ती घर से बाहर भेजा जाता था। लॉकडाउन में महिलाओं ने घर में अधिक समय व्यतीत किया। इन परिस्थितियों में वह अनावश्यक घरेलू कामों में लगी रहीं। इसके अलावा कई महिलाओं ने स्वेच्छा से खुद को काम में व्यस्त कर लिया। इसके लिए उन्होंने घर की साफ-सफाई से लेकर साल भर के लिए आचार पापड़ बनाना उचित समझा।
घर में विभिन्न परम्पराओं को छोड़ दिया जाय तो स्त्रियां सामान्यतया पितृसत्ता के विभिन्न रूपों पूंजीवाद, सामन्तवाद और गुलामी के तहत जीवन व्यतीत करती हैं। वेतन हेतु कार्य करने वाली महिलाएं चाहे वह कामकाजी हो या घरेलू अपनी गृहिणी की भूमिका को कभी त्याग नहीं पाती हैं। घरेलू क्षेत्र में विवाह तथा बच्चों को पालने के माध्यम से स्त्रियां शक्ति, प्रभुत्व, हिंसा, अवैतनिक श्रम तथा पितृसत्ता के पुनरूत्पादन का शिकार होती रही हैं। ऐसे में लॉकडाउन के दौरान घर में रहें, सुरक्षित रहें की टैग लाइन स्त्रियों के लिए तो सुखदायी नहीं ही रही। लॉकडाउन के दौरान न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में स्त्रियों के खिलाफ घरेलू हिंसा में वृद्धि देखी गयी। भारत में असंगठित क्षेत्र में महिलाओं द्वारा अपनी नौकरियों को खोना भी उऩ्हें हिंसा की ओर ले गया।
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लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के लिए वर्क फ्राम होम में भी समस्याएं कम नहीं थी। भारत में अंसगठित क्षेत्र में महिलाओं हेतु कोई वर्क फ्राम होम का तो प्रावधान नहीं था तथा संगठित क्षेत्रों में जिन्हें ऐसी सुविधा मिली वह काम के बोझ से कराह उठीं। पतियों और बच्चों का लगातार घर में रहना अनावश्यक काम के बोझ बढ़ाता चला गया। जो बच्चे पहले डे-केयर सेंटर या कामवालियों के हाथों पलते थे उनकी जिम्मेदारी भी मां की हो गयी। यही नहीं बच्चों की ऑनलाइन कक्षाओं ने उन्हें घंटों लैपटॉप के सामने बैठने को मजबूर कर दिया। महामारी के दौरान सामाजिक दूरी ने न केवल बच्चों को उनके दादा-दादी, नाना-नानी तथा पड़ोसियों से दूर किया बल्कि दोस्तों के साथ खेलने में भी परेशानी खड़ी की। ऐसी परिस्थितियों में मां के ऊपर काम का बोझ बढ़ता चला गया।
महामारी का भय, परिवार को संक्रमण से बचाने, उसका भरण-पोषण करने, अपने काम का उत्तरदायित्व तथा परिवार की जिम्मेदारियां निभाने, बच्चों की शिक्षा, उनके स्वास्थ्य की देखभाल करने में नारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी जो आगे भी जारी रहेगी।
- प्रज्ञा पाण्डेय
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- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
- मार्च 6, 2021 15:17
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वैक्सीन आने के बाद यह समझा जा रहा था कि अब कोरोना पर काबू पा लिया जाएगा पर कोरोना की लगभग एक साल की यात्रा के बाद स्थिति में वापस बदलाव आने लगा है और जिस तरह से कोरोना पॉजिटिव केसों में कमी आने लगी थी उस पर विराम लगने के साथ ही नए केस आने लगे हैं।
कोरोना की मार का असर अब शिक्षा व्यवस्था पर भी साफ दिखाई देने लगा है। वर्ल्ड बैंक की हालिया रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि दुनिया के अधिकांश देशों की सरकारों ने शिक्षा के बजट में कटौती की है। खासतौर से शिक्षा बजट में कमी निम्न व निम्न मध्यम आय वाले देशों ने की है तो उच्च व मध्यम उच्च आय वाले देशों में से कई देश भी शिक्षा बजट में कटौती करने में पीछे नहीं रहे हैं। रिपोर्ट में 65 प्रतिशत देशों द्वारा महामारी के बाद शिक्षा के बजट में कमी की बात की गई है। संभव है इसमें अतिश्योक्ति हो पर यह साफ है कि कोरोना महामारी का असर शिक्षा के क्षेत्र में साफ रूप से दिखाई दे रहा है। देखा जाए तो कोरोना के कारण सभी क्षेत्र प्रभावित हुए हैं। जहां एक ओर आज भी सब कुछ थमा-थमा-सा लग रहा हैं वहीं कोरोना की दूसरी लहर और अधिक चिंता का कारण बनती जा रही है।
इसे भी पढ़ें: हमारी जीवनशैली में मूल्यों की अहमियत क्यों घटती जा रही है ?
कोरोना वैक्सीन आने के बाद यह समझा जा रहा था कि अब कोरोना पर काबू पा लिया जाएगा पर कोरोना की लगभग एक साल की यात्रा के बाद स्थिति में वापस बदलाव आने लगा है और जिस तरह से कोरोना पॉजिटिव केसों में कमी आने लगी थी उस पर विराम लगने के साथ ही नए केस आने लगे हैं। हालांकि समग्र प्रयासों से दुनिया के देशों में उद्योग धंधे पटरी पर आने लगे हैं, अर्थव्यवस्था में सुधार भी दिखाई देने लगा है पर अभी भी कुछ गतिविधियां ऐसी हैं जो कोरोना के कारण अधिक ही प्रभावित हो रही हैं। इसमें शिक्षा व्यवस्था प्रमुख है। भारत सहित कई देशों में स्कुल खुलने लगे हैं तो उनमें बड़ी कक्षा के बच्चों ने आना भी शुरू किया है पर अभी तक पूरी तरह से शिक्षा व्यवस्था के पटरी पर आने का काम दूर की कौड़ी दिख रही है।
लगभग एक साल से शिक्षा व्यवस्था ठप्प-सी हो गई है। प्राइमरी से उच्च शिक्षा व्यवस्था तक को पटरी पर लाना सरकारों के सामने बड़ी चुनौती है। क्योंकि कोरोना के दौर में ऑनलाइन शिक्षा के भले ही कितने ही दावे किए गए हों पर उन्हें किसी भी स्थिति में कारगर नहीं माना जा सकता। इसका एक बड़ा कारण दुनिया के अधिकांश देशों में सभी नागरिकों के पास ऑनलाइन शिक्षा की सुविधा नहीं है। इंटरनेट सुविधा और फिर इसके लिए आवश्यक संसाधनों की उपलब्धता लगभग नहीं के बराबर है। इसके साथ ही स्कूल कॉलेज खोलना किसी चुनौती से कम नहीं है। कोरोना प्रोटोकाल की पालना अपने आप में चुनौती है, ऐसे में आवश्यकता तो शिक्षा बजट को बढ़ाने की है पर उसके स्थान पर शिक्षा बजट में कटौती शिक्षा के क्षेत्र में देश दुनिया को पीछे ले जाना ही है। आवश्यकता तो यह थी कि कोरोना प्रोटोकाल की पालना सुनिश्चित कराने पर जोर देते हुए शिक्षण संस्थाओं को खोलने की बात की जाती। इसके लिए कक्षाओं में एक सीमा से अधिक विद्यार्थियों के बैठने की व्यवस्था ना होने, थर्मल स्कैनिंग की व्यवस्था, सैनेटाइजरों की उपलब्धता और अन्य सावधानियां सुनिश्चित करने की व्यवस्था अतिरिक्त बजट देकर की जानी चाहिए थी।
इसी तरह से अन्य आधारभूत सुविधाओं के विस्तार पर जोर दिया जाना चाहिए था क्योंकि ऑनलाइन क्लासों के कारण बच्चों में सुनाई देने में परेशानी जैसे साइड इफेक्ट सामने आने लगे हैं। ऑनलाइन पढ़ाई की गुणवत्ता और उसके परिणाम भी अधिक उत्साहवर्द्धक नहीं हैं। अपितु बच्चों में मोबाइल व लैपटॉप के दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। कोरोना के कारण येन-केन प्रकारेण बच्चों को प्रमोट करने के विकल्प से कुछ हासिल नहीं होने वाला है। इसके लिए औपचारिक शिक्षा की व्यवस्था करनी ही होगी। दुनिया के देशों की सरकारों को इस दिशा में गंभीर विचार करना ही होगा। गैरसरकारी संस्थाओं को भी इसके लिए आगे आना होगा क्योंकि यह भावी पीढ़ी के भविष्य का सवाल है तो दूसरी और स्वास्थ्य मानकों की पालना भी जरूरी हो जाता है।
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केवल और केवल फीस लेने या नहीं लेने से इस समस्या का समाधान नहीं होने वाला है। इसमें कोई दो राय नहीं कि निम्न व निम्न मध्यम आय वाले देशों या यों कहें कि अविकसित, अल्प विकसित, विकासशील देश ही नहीं अपितु विकसित देशों के सामने भी कोरोना नई चुनौती लेकर आया है। सभी देशों में बच्चों की शिक्षा प्रभावित हुई है। परिजनों की अभी भी बच्चों को स्कूल भेजने की हिम्मत नहीं हो रही है। आधारभूत सुविधाएं व संसाधन होने के बावजूद विकसित देशों में भी शिक्षा को पटरी पर नहीं लाया जा सका है। कोरोना प्रोटोकाल के अनुसार मास्क, सैनेटाइजर, थर्मल स्केनिंग और दूरी वाली ऐसी स्थितियां हैं जिसके लिए अतिरिक्त बजट प्रावधान की आवश्यकता है। यह सभी आधारभूत व्यवस्थाएं व संसाधन उपलब्ध कराना मुश्किल भरा काम है तो दूसरी और शिक्षण संस्थाओं द्वारा यह अपने संसाधनों से जुटाना आसान नहीं है। अभिभावकों से इसी राशि को वसूलना भी कोरोना महामारी से टूटे हुए लोगों पर अतिरिक्त दबाव बनाने के समान ही होगा। आम आदमी वैसे ही मुश्किलों के दौर से गुजर रहे हैं। नौकरियों के अवसर कम हुए हैं तो वेतन कटौती का दंश भुगत चुके हैं। अनेक लोग बेरोजगार हो गए हैं। ऐसे में शिक्षा को बचाना बड़ा दायित्व हो जाता है। इसके लिए दुनिया के देशों की सरकारों को कहीं ना कहीं से व्यवस्थाएं करनी ही होंगी। संयुक्त राष्ट्र संघ को भी इसके लिए आगे आना होगा। शिक्षा को बचाना हमारा सबका दायित्व हो जाता है।
-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
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