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बसंत पंचमी केवल उत्सव नहीं है, यह भक्ति, शक्ति और बलिदान का प्रतीक भी है
- राकेश सैन
- फरवरी 9, 2019 17:20
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बसंत पंचमी केवल उत्सव का ही नहीं बल्कि भक्ति, शक्ति और बलिदान का प्रतीक भी है जिनको शायद हमने इस दिन छतों पर बजने वाले डीजे की कानफोड़ आवाज में भुला-सा दिया है। इसी दिन माता शबरी ने अपने भगवान श्रीराम के अमृततुल्य जूठे बेरों का रसास्वाद किया।
ऋतुराज बसंत, नाम लेते ही रोम-रोम पुलकित हो उठता है। मन को शीतल करती मंद-मंद हवा, गर्म रजाई-सी धूप, पेड़ों पर दिखाई देती नई-नई कोपलें, कभी फूलों पर बैठती तो कभी आसमान में दौड़ लगाती तितलियां, भंवरों का गुंजन और भी न जाने कैसे-कैसे दृश्य जो कामदेव की मादकता को भी नई ऊंचाईयां देते जान पड़ते हैं। मानो प्रकृति सब कुछ लुटा देने को व्याकुल हो उठती है। लेकिन बसंत में विस्मृति नहीं होनी चाहिए उन अंधेरियों की जो सब कुछ उड़ा देने को व्याकुल थीं, उस चिलचिलाती धूप की जिसने चराचर जगत को झुलसने को मजबूर किया, उन घमंडी बिजलियों की जिसने समय-समय पर वज्राघात कर इसी धरती के सीने को छलनी किया, कफन की बर्फीली चादर की जिसने कभी शिराओं के रक्त को भी जमा दिया था। आज राष्ट्रजीवन में जब हम बसंत का अनुभव कर रहे हैं तो उन आत्माओं का स्मरण करना भी बनता है जिन्होंने इतिहास की षट ऋतुओं के आघात को सहा। बसंत पंचमी केवल उत्सव का ही नहीं बल्कि भक्ति, शक्ति और बलिदान का प्रतीक भी है जिनको शायद हमने इस दिन छतों पर बजने वाले डीजे की कानफोड़ आवाज में भुला-सा दिया है। इसी दिन माता शबरी ने अपने भगवान श्रीराम के अमृततुल्य जूठे बेरों का रसास्वाद किया तो पृथ्वीराज चौहान व वीर हकीकत राय ने अपने जीवन का बलिदान दे कर आज के राष्ट्रजीवन में बसंत की नींव रखी। सद्गुरु राम सिंह जी का जन्म भी इसी दिन हुआ जिन्होंने गौरक्षा के लिए बलिदान की परंपरा को नई ऊंचाई दी।
बसंत पंचमी हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दंडकारण्य भी था। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी जिसको उनके गुरु मतंग ऋषि ने वरदान दिया था कि किसी दिन भगवान खुद चल कर तेरी कुटिया पर आएंगे। जब श्रीराम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर राम जी को खिलाने लगी। दंडकारण्य का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। वसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रद्धा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है।
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वसंत पंचमी का दिन हमें पृथ्वीराज चौहान की भी याद दिलाता है। उन्होंने विदेशी हमलावर मोहम्मद गौरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया, पर जब सत्रहवीं बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद गौरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं। गौरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर गौरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया। तभी चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संदेश दिया।
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान ॥
पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की। उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंदबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह गौरी के सीने में जा धंसा। इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया। 1192 ई. में यह घटना भी वसंत पंचमी वाले दिन ही हुई थी।
वसंत पंचमी का लाहौर निवासी वीर हकीकत से भी गहरा संबंध है। एक दिन जब मुल्ला जी किसी काम से विद्यालय छोड़कर चले गये, तो सब बच्चे खेलने लगे, पर वह पढ़ता रहा। जब अन्य बच्चों ने उसे छेड़ा, तो दुर्गा मां की सौगंध दी। मुस्लिम बालकों ने दुर्गा मां की हंसी उड़ाई। हकीकत ने कहा कि यदि में तुम्हारी बीबी फातिमा के बारे में कुछ कहूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा? बस फिर क्या था, मुल्ला जी के आते ही उन शरारती छात्रों ने शिकायत कर दी कि इसने बीबी फातिमा को गाली दी है। फिर तो बात बढ़ते हुए काजी तक जा पहुंची। मुस्लिम शासन में वही निर्णय हुआ, जिसकी अपेक्षा थी। आदेश हो गया कि या तो हकीकत मुसलमान बन जाये, अन्यथा उसे मृत्युदंड दिया जायेगा। हकीकत ने यह स्वीकार नहीं किया। परिणामत: उसे तलवार के घाट उतारने का फरमान जारी हो गया।
कहते हैं उसके भोले मुख को देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गयी। हकीकत ने तलवार उसके हाथ में दी और कहा कि जब मैं बच्चा होकर अपने धर्म का पालन कर रहा हूं, तो तुम बड़े होकर अपने धर्म से क्यों विमुख हो रहे हो? इस पर जल्लाद ने दिल मजबूत कर तलवार चला दी, पर उस वीर का शीश धरती पर नहीं गिरा। वह आकाशमार्ग से सीधा स्वर्ग चला गया। यह घटना वसंत पंचमी (23 फरवरी 1734) को ही हुई थी। पाकिस्तान यद्यपि मुस्लिम देश है, पर हकीकत के आकाशगामी शीश की याद में वहां वसंत पंचमी पर पतंगें उड़ाई जाती हैं। हकीकत लाहौर का निवासी था। अत: पतंगबाजी का सर्वाधिक जोर लाहौर में रहता है।
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वसंत पंचमी हमें गुरु रामसिंह कूका की भी याद दिलाती है। उनका जन्म 1816 ई. में वसंत पंचमी पर लुधियाना के भैणी ग्राम में हुआ था। कुछ समय वे रणजीत सिंह की सेना में रहे, फिर घर आकर खेतीबाड़ी में लग गये, पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रवचन सुनने लोग आने लगे। धीरे-धीरे इनके शिष्यों का एक अलग पंथ ही बन गया, जो कूका पंथ कहलाया। गुरु रामसिंह गोरक्षा, स्वदेशी, नारी उद्धार, अंतरजातीय विवाह, सामूहिक विवाह आदि पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने भी सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था। 1872 में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उन्होंने उसे पीटा और गोवध कर उसके मुंह में गोमांस ठूंस दिया। यह सुनकर गुरु रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने उस गांव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी। अत: युद्ध का पासा पलट गया। इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गये। इनमें से 50 को 17 जनवरी 1872 को मलेरकोटला में तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया गया। शेष 18 को अगले दिन फांसी दी गयी। दो दिन बाद गुरु रामसिंह को भी पकड़कर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। 14 साल तक वहां कठोर अत्याचार सहकर 1885 ई. में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।
इस पर्व का संदेश है कि हर बसंत कठोर संघर्ष, बलिदान, भक्ति के मार्ग से होकर निकलता है। बसंत के पीले चावल खाने का अधिकार उन्हें ही है जो देश व समाज के लिए विषपान करना जानता हो। बसंत की शीतलता पर पहला अधिकार गुरु तेगबहादुर व उनके शिष्यों जैसी महानात्माओं को है जो धर्म की रक्षा के लिए कड़ाहे में उबलना और रुई में लिपट कर जलने की कला में पारंगत हैं। हमारे राष्ट्रजीवन में आया बसंत कभी वापिस न हो इसके लिए हमें हर परिस्थितियों का मुकाबला करने, हर तरह के बलिदान करने को तत्पर रहना होगा। यही इस बसंत का संदेश है।
-राकेश सैन
विमेंस डेः महिला सुरक्षा को लेकर कितने गंभीर हैं हम?
- योगेश कुमार गोयल
- मार्च 8, 2021 13:41
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प्रतिवर्ष महिला दिवस का आयोजन जिस उद्देश्य से किया जाता रहा है, उसके बावजूद जब महिलाओं के साथ लगातार सामने आती अपराधों की घटनाओं को देखते हैं तो सिर शर्म से झुक जाता है। महिलाओं के साथ आए दिन हो रही हैवानियत से हर कोई हैरान, परेशान और शर्मसार है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतारेस ने वर्तमान सदी को महिलाओं के लिए समानता सुनिश्चित करने वाली सदी बनाने का आग्रह किया था। उनका कहना था कि न्याय, समानता तथा मानवाधिकारों के लिए लड़ाई तब तक अधूरी है, जब तक महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव जारी है। महिलाओं के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने और उनके अधिकारों पर चर्चा करने के लिए प्रतिवर्ष आठ मार्च को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ मनाया जाता है। इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की थीम कोरोना काल में सेवाएं देने वाली महिलाओं और लड़कियों के योगदान को रेखांकित करने के लिए ‘महिला नेतृत्व: कोविड-19 की दुनिया में एक समान भविष्य को प्राप्त करना’ रखी गई है। हर साल पूरे उत्साह से दुनियाभर में यह दिवस मनाया जाता है, इस अवसर पर बड़े-बड़े सेमिनार, गोष्ठियां, कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं लेकिन 46 वर्षों से महिला दिवस प्रतिवर्ष मनाते रहने के बावजूद पूरी दुनिया में महिलाओं की स्थिति में वो सुधार नहीं आया है, जिसकी अपेक्षा की गई थी। समूची दुनिया में भले ही महिला प्रगति के लिए बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं पर वास्तविकता यही है कि ऐसे लाख दावों के बावजूद उनके साथ अत्याचार के मामलों में कमी नहीं आ रही और उनकी स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है।
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प्रतिवर्ष महिला दिवस का आयोजन जिस उद्देश्य से किया जाता रहा है, उसके बावजूद जब महिलाओं के साथ लगातार सामने आती अपराधों की घटनाओं को देखते हैं तो सिर शर्म से झुक जाता है। महिलाओं के साथ आए दिन हो रही हैवानियत से हर कोई हैरान, परेशान और शर्मसार है। आए दिन देश के किसी न किसी हिस्से से बेटियों से होने वाली हैवानियत के सामने आते मामले दिल को झकझोरते रहते हैं। एक तरफ हम महिला सुरक्षा को लेकर कड़े कानूनों की दुहाई देते हैं, दूसरी ओर इन कानूनों के अस्तित्व में होने के बावजूद जब हर साल महिला अपराध के हजारों मामाले दर्ज होते हैं और ऐसे बहुत से मामलों में पुलिस-प्रशासन का रवैया भी उदासीन होता है तो ऐसे में समझना कठिन नहीं है कि महिला सुरक्षा को लेकर हम वास्तव में कितने गंभीर हैं। समूची मानवता को शर्मसार करने वाली ऐसी घटनाएं कई बार सिस्टम पर भी गंभीर सवाल खड़े करती हैं। बहुत से मामले तो ऐसे होते हैं, जिनकी चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर नहीं हो पाती और उनमें से अधिकांश मामले इसी का फायदा उठाकर दबा दिए जाते हैं तथा पीडि़ताएं और उनके परिवार भय के साये में घुट-घुटकर जीने को विवश होते हैं। निर्भया कांड के बाद वर्ष 2012 में देशभर में सड़कों पर महिलाओं के आत्मसम्मान के प्रति जिस तरह की जन-भावना और युवाओं का तीखा आक्रोश देखा गया था, तब लगने लगा था कि समाज में इससे संवदेनशीलता बढ़ेगी और ऐसे कृत्यों में लिप्त असामाजिक तत्वों के हौंसले पस्त होंगे लेकिन यह सामाजिक विडम्बना ही है कि समूचे तंत्र को झकझोर देने वाले निर्भया कांड के बाद भी हालात बदतर ही हुए हैं। ऐसी कोई भी वीभत्स घटना सामने के बाद हर बार एक ही सवाल खड़ा होता है कि आखिर भारतीय समाज में कब और कैसे मिलेगी महिलाओं को सुरक्षा? कब तक महिलाएं घर से बाहर कदम रखने के बाद इसी प्रकार भय के साये में जीने को विवश रहेंगी?
कानून व्यवस्था और न्याय प्रणाली में ढ़ीलेपन का ही नतीजा है कि कुछ साल पहले निर्भया कांड के बाद पूरे देश का प्रचण्ड गुस्सा देखने के बाद भी समाज में महिलाओं के प्रति अपराधियों के हौंसले बुलंद नजर आते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं के प्रति अपराधों में वर्ष दर वर्ष बढ़ोतरी हो रही है। एनसीआरबी के अनुसार वर्ष 2015 में देश में महिला अपराध के 329243, वर्ष 2016 में 338954 तथा 2017 में 359849 मामले दर्ज किए गए। इनमें हत्या, दुष्कर्म, एसिड अटैक, क्रूरता तथा अपहरण के मामले शामिल हैं। वर्ष 2017 में देश में महिलाओं के साथ दुष्कर्म की 32559 तथा 2018 में 33356 घटनाएं दर्ज की गई। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में महिलाओं के प्रति अपराधों के मामलों में सजा की दर करीब 24 फीसदी ही रही। वर्ष 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 405861 मामले सामने आए थे, जिनमें प्रतिदिन औसतन 87 मामले बलात्कार के दर्ज किए गए। रिपोर्ट के अनुसार देशभर में वर्ष 2018 के मुकाबले 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में 7.3 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। चिंता की बात यह है कि महिला अपराधों के मामलों में साल दर साल स्थिति बदतर होती जा रही है और अपराधियों को सजा मिलने की दर बेहद कम है। यही कारण है कि अपराधियों के हौंसले बुलंद रहे हैं। ऐसे मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट की कार्रवाई भी कितनी ‘फास्ट’ है, यह पिछले कुछ वर्षों में हमने देखा ही है।
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महिला अपराधों के मामलों में अक्सर यही देखा जाता रहा है कि जब भी कोई बड़ा मामला सामने आता है तो हम पुलिस-प्रशासन को कोसने और संसद से लेकर सड़क तक कैंडल मार्च निकालने या अन्य किसी प्रकार से विरोध प्रदर्शन करने की रस्म अदायगी करके शांत हो जाते हैं। दोबारा तभी जागते हैं, जब वैसा ही कोई बड़ा मामला पुनः सुर्खियां बनता है। कहने को देशभर में महिलाओं की मदद के लिए हेल्पलाइन नंबर भी बनाए गए हैं किन्तु बहुत बार यह तथ्य भी सामने आए हैं कि इन हेल्पलाइन नंबरों पर फोन करने पर फोन रिसीव ही नहीं होता। महज कानून बना देने से ही महिलाओं के प्रति हो रहे अपराध थमने से रहे, जब तक उनका ईमानदारीपूर्वक कड़ाई से पालन न किया जाए। महिला अपराधों पर अंकुश के लिए समय की मांग यही है कि सरकारें मशीनरी को चुस्त-दुरूस्त बनाने के साथ-साथ प्रशासन की जवाबदेही सुनिश्चित करें।
- योगेश कुमार गोयल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार तथा कई पुस्तकों के रचयिता हैं।)
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- वीना आडवानी
- मार्च 8, 2021 13:37
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नारी दिवस के दिन ही नारी का सम्मान करते हुए आज बहुत सी संस्थाए जहां एक ओर अपने संस्थानों की खासियत से दुनिया को अवगत करा रही है।साथ ही नारी को सक्षम बनाने और अबला नहीं सबला, आत्मनिर्भर बनने का पाठ पढ़ाने का काम कर रही है।
आज की नारी अबला नहीं सबला है जी हां आज हर एक क्षेत्र मे जहां महिलाओं ने अपना लोहा मनवाया है। आज वो कोई दूसरा ग्रह हो या पृथ्वी ही हर ओर महिलाओं ने अपना झंडा गाढ़ा है। पुलिस क्षेत्र हो या नेवी, जल या थल सेना महिलाऐं भी अपने बुलंद हौसलों के साथ देश की सेवा मे लगी है।ये हमारे देश की पावन धरती है जिस पर अहिल्या बाई, महारानी लक्ष्मीबाई, मदर टेरेसा, किरन बेदी और भी ना जाने कितनी अनगिनत विलक्षण प्रतिभाओं ने अपना लोहा मनवाया है। कल्पना चावला जो कि बस अभी उड़ान भरना सिखने का ख्वाब देख रही थी पर वो अपने इस ख्वाब को पूरा करने की ठानते हुए आगे अग्रसर होती गयी और अपने ख्वाब को अंजाम तक पहुंचा के अपना नाम युगों-युगों तक स्वर्ण अक्षरों मे लिखवा गई। हमारे ही देश की आदरणीय प्रतिभा पाटिल जी भी जो कि एक महिला ही हैं उन्होंने खुद को राष्ट्रपति की गद्दी पे देखने का ख्वाब संजोया था और अपने ख्वाब को ईमानदारी की राह पर निक्षपक्ष न्याय करते हुए पूरा किया। आज कितनी महिलाएं देखिये व्यवसाय के क्षेत्र मे ऊंचे मुकामों को पा रही हैं अपने बलबूते और काबलियत के दम पर महिलाएं बड़ी-बड़ी कम्पनियों को बहुत ऊंचाइयों तक पहुंचा रही है। कितनी स्त्रियां अपने पति के ही व्यवसाय मे दुकान पर बैठ के साथ निभा रही हैं। घर को सुचारु रुप से चलाते हुए, अपने बच्चों की बेहतरीन परवरिश करते हुए सभी के सुख-दुख का ख्याल रखते हुए भी अपने कार्यक्षेत्र पर अपना वर्चस्व लहराना कोई मामूली बात नहीं है। हर किसी को खुश रखते हुए अपने उत्तरदायित्व की पूर्ति करते रहने का गुण मात्र महिलाओं मे ही समाया होता है। महिलाएं जो कि एक कुशल ग्रहणी के साथ-साथ बाहर के भी क्रिया कलापों का सही तरह समय-समय और हालात के अनुसार निर्वाह करती है। सच एक महिला की भूमिका निभाना कोई सरल कार्य नहीं है। ये मर्दों को जितना सरल सुगम लगता है उतना हे नहीं।
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नारी दिवस के दिन ही नारी का सम्मान करते हुए आज बहुत सी संस्थाए जहां एक ओर अपने संस्थानों की खासियत से दुनिया को अवगत करा रही है।साथ ही नारी को सक्षम बनाने और अबला नहीं सबला, आत्मनिर्भर बनने का पाठ पढ़ाने का काम कर रही है। प्रतिभाऐं नारियों की जो समाज के सम्मुख लाने की कोशिश कर रही हैं। वहीं दूसरी ओर ऐसे भी बहुत से परिवार या परिवार के मर्द, पति औरत की खासियत को दबाने का भरपूर प्रयास कर रहे हैं। ऐसा ना हो कि पति को उसकी पत्नी की काबिलियत से जाना जाने लगे यही सोच आज भी बहुत से आदमी अपनी पत्नी या घर की किसी भी महिला को आगे बढ़ने नहीं दे रहे। ये कोई काल्पनिकता नहीं जिंदगी की हकिकत है। जिसके अंतर्गत बहतु सी विलक्षण प्रतिभाऐं एक कोने मे सहमी सी दब कर रह जाती है। ऐसे मे यदि कोई सामाजिक संस्थाऐं ऐसी विलक्षण प्रतिभाओं को खोज के सामने लाती हैं तो उन संस्थाओं पर भी शिकंजा सा कस कर उन्हें दबा दिया जाता है। जिससे चाहकर भी कोई ऐसी विलक्षण प्रतिभाओं की धनी महिलाओं का सहयोग नहीं कर पाता है। आखिर क्यों आज भी हमारे सभ्य समाज मे नारी को दबाये रखने की कोशिश होती ही रहती है।
आजकल अखबारों की सुर्खियों मे जहाँ एक ओर नारी दिवस के निकट आने पर जितना जोश,उत्साह से भरा हुआ दिखाया जा रहा है। कितनी सुर्खियों मे बस नारी की महानता का पाठ कवियों, साहित्यकारों द्वारा गा-गा कर सुनाया जा रहा है। वहीं दूसरी ओर अखबार कि सुर्खियों मे ही आऐ दिन कितनी ही महिलाओं के साथ हो रहे नित अत्याचारों का उल्लेख भी पढ़ने को मिल रहा है। नित महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार मे कहीं बहू बेटियों को अपनी हवस का शिकार बनाया जा रहा हे तो कहीं दहेज़ कि बली चढ़ रही है बेटियां तो कहीं इतनी घिनौनी हरकत हो रही है सरकारी लोगों ही द्वारा जिसमें नारियों की ही अस्मत को तार-तार करते हुए उनको नंगा नाच नचाया जा रहा है। यदि इंसानों, औरतों की सुरक्षा करने वाला मुहकमा ही इंसानों की असमत को यूं तार-तार कर देगा तो कैसे कोई भी बेटी, औरत, इंसान किसी पर यकीन कर पाऐगी। आज भी लोग कोख मे ही बेटी को जन्म देने से पहले ही मरवा देते हैं क्यों कि इसका कारण या तो दहेज है, या औरतों के साथ बढ़ रहे अनैतिक अपराध लोग बेटियों को जन्म देने से पहले ही खौंफ ज़दा होते हैं कि कहीं उनके कलेजे का टुकड़ा, उनकी ही बेटी कभी कहीं किसी हादसे का शिकार ना हो जाऐ। आज हर क्षेत्र मे जहाँ नारी विकास की ओर अग्रसर हो रही आधुनिकता के साथ वहीं दूसरी ओर नित प्रतिदिन हादसों का शिकार भी हो रही।
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हमारे देश की महिलाओं की सुरक्षा का जिम्मा कब और कब तलक कोई लेगा हम महिलाओं को ही खुद को इतना अधिक मजबूत बनाना है कि हर एक हादसा ही हमारे करीब आने से पहले सौ बार सोचे,आज हम औरतों को यदि हर क्षेत्र मे मर्दों संग कांधे से कांधा मिलाते हुए चलना है तो खौंफ को त्यागते हुए बुलंद हौसलों संग निर्भय हो आगे बढ़ना ही होगा कब तलक आखिर नारी इन भेड़ियों, दरिंदों का शिकार होगी यदि हमारे समाज की पचास प्रतिशत महिलाएं भी हिम्मत दिखाऐं तो शेष पचास प्रतिशत महिलाओं मे खुद ब खुद इतनी अधिक हिम्मत बढ़ जाऐगी। खुद के लिये नारी और समाज को भी जागरूक करते हुए सभी के लिये एक आदर्श बने। यदि आप ऐसी किसी भी प्रतिभावान औरतों को जानती हैं तो उन औरतों की प्रतिभाओं को भी संग-संग आगे लाऐं। अपना लोहा मनवाना हमारा हक है क्यों कि हम औरतों के भी कुछ ख्वाब हैं कुछ जज़्बात। इन ख्वाबों को पंख लगा उड़ने मे परिवार के लोग भी अपनी अहम़ भूमिका निभाते हुए अपना सहयोग दें। अपने घर की बेटियों को सक्षम बनाऐं शिक्षा दिलवाकर। सबला बनाइये बेटियों को अबला नहीं।
- वीना आडवानी
नागपुर, महाराष्ट्र
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- ललित गर्ग
- मार्च 6, 2021 16:18
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महिलाओं के प्रति एक अलग तरह का नजरिया इन सालों में बनने लगा है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नारी के संपूर्ण विकास की संकल्पना को प्रस्तुत करते हुए अनेक योजनाएं लागू की है, जिनमें अब नारी सशक्तीकरण और सुरक्षा के अलावा और भी कई आयाम जोडे़ गए हैं।
नारी का नारी के लिये सकारात्मक दृष्टिकोण न होने का ही परिणाम है कि पुरुष उसका पीढ़ी-दर-पीढ़ी शोषण करता आ रहा हैं। इसी कारण नारी में हीनता एवं पराधीनता के संस्कार संक्रान्त होते रहे हैं। जिन नारियों में नारी समाज की दयनीय दशा के प्रति थोड़ी भी सहानुभूति नहीं है, उन नारियों का मन स्त्री का नहीं, पुरुष का मन है, ऐसा प्रतीत होता है। अन्यथा अपने पांवों पर अपने हाथों से कुल्हाड़ी कैसे चलाई जा सकती है? अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हुए नारी के मन में एक नयी, उन्नायक एवं परिष्कृत सोच पनपे, वे नारियों के बारे में सोचें, अपने परिवार, समाज एवं राष्ट्र की नारी की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझें और उसके समाधान एवं प्रतिकार के लिये कोई ठोस कदम उठायें तो नारी शोषण, उपेक्षा, उत्पीड़न एवं अन्याय का युग समाप्त हो सकता है। इसी उद्देश्य से नारी के प्रति सम्मान एवं प्रशंसा प्रकट करते हुए 8 मार्च का दिन महिला दिवस के रूप में उनके लिये निश्चित किया गया है, यह दिवस उनकी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में, उत्सव के रूप में मनाया जाता है।
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अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस से पहले और बाद में हफ्ते भर तक विचार विमर्श और गोष्ठियां होंगी जिनमें महिलाओं से जुड़े मामलों जैसे महिलाओं की स्थिति, कन्या भू्रण हत्या की बढ़ती घटनाएं, लड़कियों की तुलना में लड़कों की बढ़ती संख्या, तलाक के बढ़ते मामले, गांवों में महिला की अशिक्षा, कुपोषण एवं शोषण, महिलाओं की सुरक्षा, महिलाओं के साथ होने वाली बलात्कार की घटनाएं, अश्लील हरकतें और विशेष रूप से उनके खिलाफ होने वाले अपराध को एक बार फिर चर्चा में लाकर सार्थक वातावरण का निर्माण किया जायेगा। लेकिन इन सबके बावजूद एक टीस से मन में उठती है कि आखिर नारी कब तक भोग की वस्तु बनी रहेगी? उसका जीवन कब तक खतरों से घिरा रहेगा? बलात्कार, छेड़खानी, भ्रूण हत्या और दहेज की धधकती आग में वह कब तक भस्म होती रहेगी? कब तक उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को नौचा जाता रहेगा? विडम्बनापूर्ण तो यह है कि महिला दिवस जैसे आयोजन भी नारी को उचित सम्मान एवं गौरव दिलाने की बजाय उनका दुरुपयोग करने के माध्यम बनते जा रहे हैं।
महिलाओं के प्रति एक अलग तरह का नजरिया इन सालों में बनने लगा है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नारी के संपूर्ण विकास की संकल्पना को प्रस्तुत करते हुए अनेक योजनाएं लागू की है, जिनमें अब नारी सशक्तीकरण और सुरक्षा के अलावा और भी कई आयाम जोडे़ गए हैं। सबसे अच्छी बात इस बार यह है कि समाज की तरक्की में महिलाओं की भूमिका को आत्मसात किया जाने लगा है। आज भी आधी से अधिक महिला समाज को पुरुषवादी सोच के तहत बहुत से हकों से वंचित किया जा रहा है। वक्त बीतने के साथ सरकार को भी यह बात महसूस होने लगी है। शायद इसीलिए सरकारी योजनाओं में महिलाओं की भूमिका को अलग से चिह्नित किया जाने लगा है।
एक कहावत है कि औरत जन्मती नहीं, बना दी जाती है और कई कट्ट्टर मान्यता वाले औरत को मर्द की खेती समझते हैं। कानून का संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के अंतिम छोर पर लड़ाई हारती रही है। इसीलिये आज की औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए। पूरे पृष्ठ, जितने पुरुषों को प्राप्त हैं। पर विडम्बना है कि उसके हिस्से के पृष्ठों को धार्मिकता के नाम पर ‘धर्मग्रंथ’ एवं सामाजिकता के नाम पर ‘खाप पंचायते’ घेरे बैठे हैं। पुरुष-समाज को उन आदतों, वृत्तियों, महत्वाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्टरताओं को अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़कर वे उस ढ़लान में उतर गये जहां रफ्तार तेज है और विवेक अनियंत्रण हैं जिसका परिणाम है नारी पर हो रहे नित-नये अपराध और अत्याचार। पुरुष-समाज के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को जहर के घूंट पीने एवं बेचारगी को जीने को विवश होना पड़ता है। पुरुषवर्ग नारी को देह रूप में स्वीकार करता है, लेकिन नारी को उनके सामने मस्तिष्क बनकर अपनी क्षमताओं का परिचय देना होगा, उसे अबला नहीं, सबला बनना होगा, बोझ नहीं शक्ति बनना होगा।
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‘यत्र पूज्यंते नार्यस्तु तत्र रमन्ते देवता’- जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। किंतु आज हम देखते हैं कि नारी का हर जगह अपमान होता चला जा रहा है। उसे ‘भोग की वस्तु’ समझकर आदमी ‘अपने तरीके’ से ‘इस्तेमाल’ कर रहा है, यह बेहद चिंताजनक बात है। आज अनेक शक्लों में नारी के वजूद को धुंधलाने की घटनाएं शक्ल बदल-बदल कर काले अध्याय रच रही है। देश में गैंग रेप की वारदातों में कमी भले ही आयी हो, लेकिन उन घटनाओं का रह-रह कर सामने आना त्रासद एवं दुःखद है। आवश्यकता लोगों को इस सोच तक ले जाने की है कि जो होता आया है वह भी गलत है। महिलाओं के खिलाफ ऐसे अपराधों को रोकने के लिए कानूनों की कठोरता से अनुपालना एवं सरकारों में इच्छाशक्ति जरूरी है। कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न के विरोध में लाए गए कानूनों से नारी उत्पीड़न में कितनी कमी आयी है, इसके कोई प्रभावी परिणाम देखने में नहीं आये हैं, लेकिन सामाजिक सोच में एक स्वतः परिवर्तन का वातावरण बन रहा है, यहां शुभ संकेत है। महिलाओं के पक्ष में जाने वाले इन शुभ संकेतों के बावजूद कई भयावह सामाजिक सच्चाइयां बदलने का नाम नहीं ले रही हैं।
देश के कई राज्यों में लिंगानुपात खतरे के निशान के करीब है। देश की राजधानी में महिलाओं के हक के लिए चाहे जितने भी नारे लगाए जाएं, लेकिन खुद दिल्ली शहर से भी बुरी खबरें आनी कम नहीं हुई हैं। तमाम राज्य सरकारों को अपनी कागजी योजनाओं से खुश होने के बजाय अपनी कमियों पर ध्यान देना होगा। योजना अपने आप में कोई गलत नहीं होती, कमी उसके क्रियान्वयन में होती है। कुछ राज्यों में बेटी की शादी पर सरकार की तरफ से एक निश्चित रकम देने की स्कीम है। इससे बेटियों की शादी का बोझ भले ही कम हो, लेकिन इससे बेटियों में हीनता की भावना भी पनपती है। ऐसी योजनाओं से शिक्षा पर अभिभावकों का ध्यान कम जाएगा। जरूरत नारी का आत्म-सम्मान एवं आत्मविश्वास कायम करने की है, उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की है। नारी सोच बदलने की है। उन पर जो सामाजिक दबाव बनाया जाता है उससे निकलने के लिए उनको प्रोत्साहन देना होगा। ससुराल से निकाल दिए जाने की धमकी, पति द्वारा छोड़ दिए जाने का डर, कामकाजी महिलाओं के साथ कार्यस्थलों पर भेदभाव, दोहरा नजरियां, छोटी-छोटी गलतियों पर सेवामुक्त करने की धमकी, बड़े अधिकारियों द्वारा सैक्सअल दबाब बनाने, यहां तक कि जान से मार देने की धमकी के जरिये उन पर ऐसा दबाव बनाया जाता है। इन स्थितियों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है नारी को खुद हिम्मत जुटानी होगी, साहस का परिचय देना होगा लेकिन साथ ही समाज को भी अपने पूर्वाग्रह छोड़ने के लिए तैयार करना होगा। इन मुद्दों पर सरकारी और गैरसरकारी, विभिन्न स्तरों पर सकारात्मक नजरिया अपनाया जाये तो इससे न केवल महिलाओं का, बल्कि पूरे देश का संतुलित विकास सुनिश्चित किया जा सकेगा।
रामायण रचयिता आदि कवि महर्षि वाल्मीकि की यह पंक्ति-‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ जन-जन के मुख से उच्चारित है। प्रारंभ से ही यहाँ ‘नारीशक्ति’ की पूजा होती आई है फिर क्यों नारी अत्याचार बढ़ रहे हैं? क्यों महिला दिवस मनाते हुए नारी अस्तित्व एवं अस्मिता को सुरक्षा देने की बात की जाती है? क्यों उसे दिन-प्रतिदिन उपेक्षा एवं तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। इसके साथ-साथ भारतीय समाज में आई सामाजिक कुरीतियाँ जैसे सती प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, बहू पति विवाह और हमारी परंपरागत रूढ़िवादिता ने भी भारतीय नारी को दीन-हीन कमजोर बनाने में अहम भूमिका अदा की। बदलते परिवेश में आधुनिक महिलाओं के लिए यह आवश्यक है कि मैथिलीशरण गुप्त के इस वाक्य-“आँचल में है दूध” को सदा याद रखें। उसकी लाज को बचाएँ रखें। बल्कि एक ऐसा सेतु बने जो टूटते हुए को जोड़ सके, रुकते हुए को मोड़ सके और गिरते हुए को उठा सके।
- ललित गर्ग
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