उत्तर प्रदेश की बदहाल शिक्षा व्यवस्था के लिए जिम्मेदार कौन?

Who is responsible for the bad education system of Uttar Pradesh?
प्रवीन शर्मा । Apr 20 2018 12:20PM

आज का युवा अपनी आवश्यकता देखने की जगह सामने वाले पर अपने धर्म, जाति, समुदाय की हेकड़ी दिखाने को ज्यादा महत्त्व दे रहा है। बाकी जो समय बचता है, उस समय में वह सोशल मीडिया पर समय गंवा रहा है।

कुछ दिनों पहले हुई उत्तर प्रदेश बोर्ड की परीक्षाओं में जो तथ्य सामने आए हैं, वह वाकई में शर्मसार कर देने वाले हैं। या यूं कहें कि जिन तथ्यों को सरकार द्वारा जनता को एक सुंदर थाली में सजाकर पेश किया गया है, वह चौंकाने वाले हैं। दस लाख से अधिक परीक्षार्थियों ने इस वर्ष उत्तर प्रदेश बोर्ड परीक्षाएं छोड़ दी हैं और जिस प्रकार उत्तर पुस्तिकाओं को जांचा जा रहा है उसको देख बस हंसी ही आती है। प्रदेश के डिप्टी सी.एम डॉ. दिनेश शर्मा की मानें तो यह सब नकल माफियाओं पर सख्ती व मुख्यमंत्री जी के जादुई ग्यारह निर्देशों का असर है। परंतु सवाल उठता है कि आखिर क्यों इन छात्र-छत्राओं को इनकी जरूरत पड़ी? क्या कक्षा में शिक्षक उपस्थित नहीं थे? या छात्र ही अनुपस्थित रहे? कई वर्षों से ये ट्रेंड बन गया है, आप विद्यालय बिना जाए भी 70 प्रतिशत अंक प्राप्त कर सकते हैं। प्रयोगात्मक परीक्षाओं में उपस्थिति अनिवार्य नहीं है, बस रुपये भिजवा दो काम हो जाएगा। कुछ परीक्षा केंद्र तो आपकी अनुपस्थिति में भी मुख्य परीक्षा करवाने की सहूलियत दे देते हैं। शिक्षा व्यवस्था का यह ट्रेंड विद्यार्थी को अंक तो दिला सकता है, परंतु ज्ञान नहीं। जिस कारण हमारे देश व प्रदेश में डिग्री धारकों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। वर्तमान के डिग्री धारक के पास बस डिग्री है, ज्ञान नहीं। सिर्फ डिग्री से रोजगार नहीं मिलता, परन्तु हृदय को झूठी सन्तुष्टि जरूर मिल जाती है।

इस हालत के जिम्मेदार सभी हैं- सरकार, परिजन, शिक्षक, छात्र आदि। सभी एक ही कठघरे में खड़े हैं। हम सिर्फ वर्तमान या पूर्व सरकार को इस हालत का जिम्मेदार नहीं बता सकते। हमने क्या किया है यह भी देखना पड़ेगा। आखिर कार हमारी वजह से ही ऐसी हालत हुई है। हम ही तो ऐसे कॉलेज तलाशते हैं जहाँ पर पूरे वर्ष जाना ना पड़े, प्रयोगात्मक परीक्षाओं में ज्यादा से ज्यादा अंक मिल जाएं तथा मुख्य परीक्षाओं में सहायता तो मिलनी ही चाहिए। आज के कुछ शिक्षण संस्थान मुख्य परीक्षाओं में सहायता प्रदान करना तो अपना मौलिक अधिकार समझते हैं। पिछले सत्र में उत्तर प्रदेश सरकार ने नकल माफियाओं पर लगाम लगाई, जिस कारण प्रदेश सरकार कई दिवसों तक हमारे मीडिया पर छाई रही। इस सत्र के अंत में भी ऐसा ही होगा। क्योंकि प्रदेश सरकार ने अभी खाली पड़े पदों को भरने की प्रक्रिया शुरू नहीं की है और पहले से चल रही प्रक्रियाओं की रफ्तार तो ऐसी है कि ये अगले चुनाव तक ही पूर्ण हो पाएंगी। बॉयोमीट्रिक उपस्थिति सिर्फ शिक्षकों के लिए ही नहीं बल्कि विद्यार्थियों के लिए भी होनी चाहिए। शिक्षक पहले भी आते थे। देर से, कुछ समय के लिए, या कुछ दिनों के बाद भी आते थे परंतु आते थे। पर छात्र पहले भी अनुपस्थित था और आज भी अनुपस्थित ही है। यदि सरकार छात्रों की उपस्थिति पर जोर दे तो हो सकता है कि नेताओं की हिन्दू मुस्लिम डिबेट और जातिगत हिंसा करने वाला कोई मिले ही नहीं।

आज का युवा अपनी आवश्यकता देखने की जगह सामने वाले पर अपने धर्म, जाति, समुदाय की हेकड़ी दिखाने को ज्यादा महत्त्व दे रहा है। बाकी जो समय बचता है, उस समय में वह सोशल मीडिया पर समय गंवा रहा है। उत्तर प्रदेश में शिक्षा व्यवस्था वेंटीलेटर पर चल रही है। यदि सरकार इसको सुधारने की कोशिश करे तो एसोसिएशन हड़ताल पर चली जाती है और यदि सरकार कुछ नहीं करती तो जनता विरोध पर उतर आती है। असलियत तो यह है कि सरकार की कोई मंशा तो होती नहीं है कुछ अच्छा करने की और यदि भूले भटके उसको याद आ जाए तो कुछ लोग अपने व्यक्तिगत फायदे के लिए उसको करने नहीं देते। आज सिर्फ प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरे भारत में निजी तथा मिशनरी स्कूलों ने शिक्षा को एक व्यापार बना लिया है। विद्यार्थी की कलम से लेकर उसके विद्यालय आने के साधन तक निजी विद्यालय ही तय करता है। कुछ विद्यालय तो ऐसे भी हैं, जो कहते हैं कि या तो आप हॉस्टल लेंगे या कॉलेज बस इसके अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं है। आज हर चीज में इनको कमीशन चाहिए। यदि विद्यार्थी विद्यालय द्वारा बताई गई वस्तु, कॉलेज के द्वारा बताए गए स्थान से नहीं लेता है, तो शायद ही वह उपेक्षा से बच पाए।

सरकारी विद्यालयों की हालत खराब होने के कारण व्यक्ति को मजबूरन अपने बालकों का दाखिला मनमानी फीस लेने वाले विद्यालयों में कराना पड़ रहा है। परंतु सरकारी विद्यालयों की हालत तब तक नहीं सुधर सकती जब तक हम खुद अपने बालकों को उसमें नहीं भेजते क्योंकि यह धारणा तो हमारी ही है कि सरकारी स्कूल गरीब बच्चों के लिए हैं, वहां पढ़ाई नहीं होती, शिक्षक पढ़ाते नहीं हैं। तो हमें ज्यादा शुल्क देने पर रोने का कोई अधिकार नहीं है।

उत्तर प्रदेश सरकार ने मनमानी फीस वसूलने वाले निजी स्कूलों पर शिकंजा कसना जब प्रारंभ किया तो सभी स्कूल एसोसिएशन ने बन्द की घोषणा कर दी। आज कल जिसे देखो बन्द पर ही अड़ा हुआ है। यदि सरकार की मानें तो सरकार ने जनहित के लिए ये फैसला लिया है। सरकार की मंशा बस यह है कि आर.टी.ई. के तहत एडमिशन भी लिए जाएं। वहीं दूसरी ओर निजी स्कूलों का कहना है- सरकार द्वारा लगाई जा रही पाबन्दी उनके राइट ऑफ ऑक्यूपेशन का वॉइलेशन है। निजी स्कूलों का यह भी कहना है कि वे आर.टी.ई. के तहत एडमिशन देने को तैयार हैं, परन्तु सारी कंडीशन पूरी होनी चाहिए, भारत में गांव में रहने वाला व्यक्ति यदि प्रतिदिन ₹32 और शहर में रहने वाला व्यक्ति यदि ₹47 प्रतिदिन खर्च करता है तो उसको सरकार गरीब नहीं मानती। शायद सरकार के हिसाब से वह व्यक्ति गरीब नहीं होगा जो प्रतिदिन एक समय का भोजन ही कर पा रहा है तो दो दिन भूखे को ये लोग किस केटेगरी में डालेंगे पता नहीं। प्रदेश के बहुत से ऐसे विद्यालय हैं जो कि छात्र छात्राओं के लिए स्वच्छ जल का भी प्रबन्ध नहीं कर पाते हैं, इनकी सुरक्षा की बात तो छोड़ ही दो। कई विद्यालय तथा महाविद्यालय तो ऐसे हैं जहां पर कक्षाएं सुचारू रूप से चलाने के लिए कमरे भी नहीं हैं, तो जल व शौच की बात तो दूर की है। यदि ये लोग फीस बढ़ाना व लेना अपना अधिकार समझते हैं, तो क्या इन मासूम बच्चों के प्रति इनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या इन बच्चों को शुद्ध पानी पीने का कोई अधिकार नहीं है? क्या निजी स्कूलों में पढ़ा रहे शिक्षक व कर्मचारियों का अधिकार नहीं है कि उनको ‘‘श्रम एक्ट'' के नियमानुसार वेतन तथा बाकी चीजें मिलें? यदि किसी छात्र की विद्यालय परिसर में तबियत खराब हो जाती है तो विद्यालय उस छात्र के परिजनों को सूचित करना भी अपनी जिम्मेदारी नहीं समझता है। छात्र को वह बीमारी हुई क्यों? क्या उसमें विद्यालय की कोई गलती थी या नहीं ? क्या विद्यालय की जरा सी चूक की वजह से ऐसी हालत हुई? इन प्रश्नों के ऊपर कोई नहीं सोचता।

आज सभी लोग शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठा रहे हैं। प्राइमरी स्कूल, निजी स्कूल, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालय स्तर पर कहीं पर भी कोई भी कार्य सही ढंग से संचालित नहीं है। शिक्षकों की भर्ती पर कोई सोचता नहीं। बस किसी की फीस बकाया नहीं रह जाए, इसी पर सबका ध्यान है। छात्रों की संख्या तथा कोर्स में विषयों को देखते हुए यू.जी.सी. ने जो गाइडलाइन जारी की है उनको कोई नहीं देखता। हो सकता है यू.जी.सी. को इस विषय में कोई जानकारी हो ही नहीं। शायद उनको पता ही नहीं होगा कि विश्वविद्यालय में शिक्षक की अनुपस्थिति में भी कोर्स चल रहे हैं। उत्तर प्रदेश में कोई चीज ढंग से हो या ना हो परन्तु परीक्षाएं अपने समय से हो ही जाती हैं, परीक्षाओं से पहले कोई ये पूछने वाला तक नहीं होता है कि आपने बिना शिक्षकों के पढ़ाई कैसे की ?  स्टेट यूनिवर्सिटीज कहती हैं कि सरकार उनकी सहायता नहीं करती। और सरकार कहती है कि हर मुमकिन मदद की जाएगी। इन्हीं जुमलों के बीच शिक्षा भटक रही है। उसकी गाड़ी अटक रही है।

प्रवीन शर्मा

छात्र, एम.जे.पी. रूहेलखंड विश्वविद्यालय, बरेली (उ.प्र.)

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