विश्व में अमेरिका की चौधराहट बने रहना इसलिए बहुत जरूरी है

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नरेश सोनी । Mar 1 2019 3:18PM

विश्व में आज परिस्थितियां ऐसी निर्मित हो रही हैं कि, हमें महसूस होता है कि अमेरिका की चौधराहट इसलिये आवश्यक है कि, जब विश्व बारूद के ढेर पर खड़ा है तथा हथियार आतंक के खिलौने बन गये हैं ऐसी शक्तियों के दमन के लिये अमेरिका-रूस की आवश्यकता है।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका विश्व पटल पर शक्ति के साथ उभरा, साथ-साथ रूस भी विश्व की शक्ति बना, बाद के दशकों में दोनों देशों में सामरिक, आर्थिक क्षेत्रो में स्पर्धा रही- वर्षों तक दोनों देशों में शीत युद्ध चला। कूटनीति में दोनों देशों ने महारत हासिल की और विश्व बाजार के सबसे बड़े हथियारों के व्यापारी बने। आधुनिक परमाणु हथियारों के आविष्कार उनके निर्माण और बिक्री ने विश्व के देशों में हथियारों की प्रतियोगिता प्रारंभ करवा दी, परिणामस्वरूप विश्व आज बारूद के ढेर पर खड़ा है।

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सत्तर के दशक में दोनों देशों का तनाव चरम पर था, एक ओर विश्व युद्ध की स्थिति बनते-बनते बची थी, 1971 में भारत-पाकिस्तान का युद्ध और बांग्लादेश के उदय ने विश्व की इन दोनों शक्तियों को आमने-सामने ला दिया था। अमेरिका ने पाक के बचाव के लिये सातवां बेड़ा उतार दिया था, बदले में भारत के पक्ष में रूस ने कमर कस ली थी। रूस उस समय, अमेरिका से भी अधिक ताकतवर देश था, अमेरिका ने भांप लिया और अपना सातवां बेड़ा वापस बुला लिया।

नियति देखिये कि, आज जब इक्कीसवीं सदी में भारत-पाक का तनाव चरम पर है तथा दोनों देश आमने-सामने खड़े हैं, विश्व की दोनों शक्तियां भारत के पक्ष में खड़ी हैं, सिर्फ चीन पाक के समर्थन में खड़ा है इसमें उसकी कुटिलता है तथा स्वार्थ निहित है। विश्व में आज परिस्थितियां ऐसी निर्मित हो रही हैं कि, हमें महसूस होता है कि अमेरिका की चौधराहट इसलिये आवश्यक है कि, जब विश्व बारूद के ढेर पर खड़ा है तथा हथियार आतंक के खिलौने बन गये हैं ऐसी शक्तियों के दमन के लिये अमेरिका-रूस की आवश्यकता है हालांकि दोनों देशों ने जो बोया है वही काटना पड़ रहा है। इन्होंने हथियारों की खेती की जो अब चारों ओर लहलहा रही है। खैर!

आतंकवाद विश्व के अनेक देशों में व्याप्त है, यूरोप के देश भी इससे अछूते नहीं हैं, विभिन्न देशों में आंतरिक असंतोष के कारण स्थानीय आतंकवाद पनप रहा है, वहीं दूसरी ओर वैश्विक आतंकवाद व्याप्त है। इस समस्या का विश्व स्तर पर निदान आवश्यक है। अमेरिका ने इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन को इराक में घुसकर फांसी पर लटकाया। सद्दाम को यह सजा उसकी नादिरशाही नीति के कारण दी गयी थी। तेल के कुओं का कब्जा करने के कोई उदाहरण अमेरिका के तो नहीं मिले, लेकिन हां, अमेरिका ने सद्दाम पर परमाणु बम बनाने की आशंका जतायी थी, परमाणु हथियार बनाने के सबूत तो मिले थे लेकिन उसके पहले ही सद्दाम को समाप्त कर दिया गया। यदि सद्दाम को समाप्त नहीं किया जाता तो संभव है विश्व एक और अधिक क्रूर तानाशाही का शिकार होता। अमेरिका ने अपने मित्र राष्ट्रों के सहयोग से इराक में सैन्य कार्रवाई की थी। अमेरिका के इतिहास में जॉर्ज डब्ल्यू बुश की यह कार्रवाई दूरदर्शी साबित होगी। यह समीचीन निर्णय था।

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26/11 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर अमेरिका पर हुए हमले ने अमेरिका को चौंका दिया था, अमेरिका और इस्लामी कट्टरपंथियों की दुश्मनी ने उग्र रूप धारण कर लिया था। इराक की कार्रवाई पर अनेक इस्लामी राष्ट्र अंदरूनी तौर पर नाराज तो थे लेकिन खुलकर सामने नहीं आये थे। इराक के बाद ईरान ने सिर उठाना प्रारंभ कर दिया था, परमाणु शक्ति बनने की इच्छा उसने व्यक्त कर दी थी। ओसामा बिन लादेन एक विश्व आतंकवादी बनकर उभरा, 26/11 के हमले के बाद इधर-उधर भागता रहा। दुर्भाग्य से पाकिस्तान में उसने शरण ली। दरअसल पाकिस्तान आतंकवादियों का मुख्यालय है, कश्मीर में तीन-चार दशक पहले पाक सरकार और आईएसआई ने विश्व में आतंकवाद की शुरुआत की थी, जिसने बाद में तालिबान, ओसामा, बगदादी जैसों को जन्म दिया। अमेरिका इन सभी गतिविधियों पर नजर रखे था और उसने पाकिस्तान में घुसकर ओसामा बिन लादेन को मार दिया। बराक ओबामा के कार्यकाल का यह निर्णय भी जार्ज डब्ल्यू बुश के निर्णय से कम नहीं था। बुश से लेकर अब तक, आईएस और तालिबान अमेरिका की सूची में सबसे ऊपर है।

                

यह खबर राहत देने वाली है कि सीरिया आईएस से मुक्त हो गया है। अमेरिकी गठबंधन सेना ने सीरिया स्थित बागूज नामक स्थान का आईएस का आखिरी ठिकाना समाप्त कर दिया है। आईएस सीरिया में 20 वर्षों से कब्जा किये था, यह एक ऐसा आतंकी संगठन था, जो 1999 में बना। अमेरिका के नेतृत्त्व वाली सेना के सामने 2500 आतंकियों ने लड़ने के बजाये, लाईन में खड़े होकर आत्मसमर्पण कर दिया। इन आतंकियों ने घुटने टेकते हुए अमेरिका की गठबंधन सेना से लड़ने की बजाय, लाइन में लगकर आत्मसमर्पण किया। आईएस विश्व में आतंक का खौफनाक चेहरा था, सबसे पहले यह ‘‘इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड द लैवेन्ट’’ दूसरे नाम ‘‘इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया’’ और आखिरी नाम ‘‘इस्लामिक स्टेट’’ था। इसका प्रमुख अबु बकर बगदादी है, जो छिपता फिर रहा है। इस उग्रवादी संगठन में दस हजार सदस्य थे, बीस वर्षों में इस आतंकी संगठन में लगभग 42 हजार विदेशी भी शामिल हुए थे। इनमें 75 प्रतिशत पुरूष और 25 प्रतिशत महिलाएं एवं बच्चे थे। ब्रिटेन, जर्मनी, उज्बेकिस्तान, तुर्की, फ़्रांस, मोरक्को, जोर्डन, सऊदी अरब और रूस ऐसे देश थे जिनके इस्लामी चरम पंथी आईएस के सदस्य बने। बीस वर्षों तक इन्होंने आतंक फैला कर, विश्व में एक खौफनाक वातावरण बनाया। नागरिकों की क्रूरतम तरीके से हत्याएँ करना एवं महिलाओं के साथ बलात्कार करना इन्होंने आम हथकंडा बना रखा था। आईएस ने बीस देशों में 70 बड़े हमले किये, जिसमें लगभग 5 लाख लोग मारे गये, एक लाख लोग लापता हैं जिनकी भी हत्याएं ही संभव हैं। यह संगठन लगभग 17 देशों में सक्रिय रहा जिसमें इराक, सीरिया, अफगानिस्तान, लीबिया, फिलीपिंस, नाइजीरिया और सोमालिया आदि शामिल हैं।

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इस्लामिक स्टेट की क्रूरतम गतिविधियों के चलते अमेरिका को आगे आना पड़ा, उसके नेतृत्त्व में सत्तर से अधिक देशों ने अपनी सेनाएं भेजी अमेरिकी गठबंधन सेना में ब्रिटेन, सऊदी अरब, तुर्की, आस्ट्रेलिया, फ़्रांस, डेनमार्क, नीदरलैंड शामिल है। रूस इस गठबंधन में सम्मिलित नहीं था लेकिन उसने भी सीरिया की मदद में आईएस ठिकानों पर हमले किये। अमेरिकी गठबंधन सेना ने तीस हजार से भी अधिक हवाई हमले कर आईएस के साम्राज्य को तहस-नहस कर दिया। आईएस ने इराक और सीरिया के तेल के कुओं पर कब्जे किये थे, जो उसकी आय के मुख्य साधन थे। इसके अलावा वह अमीरों से लूटपाट भी करते थे।

अमेरिका ने पांच वर्षों में इराक और सीरिया में आईएस को खत्म करने के लिये लगभग पौने दो लाख करोड़ रु. खर्च किये। विश्व में, ऐसे आततायी संगठनों को समाप्त करने के लिये धन तथा बल की आवश्यकता होती है, जो अमेरिका ने कर दिखाया, भले ही उसके कोई स्वार्थ हो, लेकिन आज अमेरिका ही ऐसा देश है जो संयुक्त सैन्य कार्रवाई की नेतृत्त्व क्षमता रखता है और नेतृत्त्व करता है।

-नरेश सोनी

(लेखक स्वतंत्र अधिमान्य पत्रकार हैं।)

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