Dussehra 2025: बुराई पर अच्छाई की जीत का महापर्व है दशहरा, हर राज्य की अनोखी परंपरा

दशहरा से दस दिन पूर्व ही देश के कोने−कोने में रामलीलाओं का आयोजन शुरू हो जाता है जिसमें प्रभु राम के जीवन का वर्णन दिखाया जाता है और दशहरे वाले दिन रावण का संहार किया जाता है। इस दिन बंगाल में दुर्गा विसर्जन का आयोजन किया जाता है।
आश्विन मास के शुक्ल पक्ष को दशहरा पर्व देश भर में बहुत ही धूमधाम के साथ मनाया जाता है। मां भगवती के विजया स्वरूप पर इसे विजयादशमी भी कहा जाता है। यह त्योहार वर्षा ऋतु की समाप्ति तथा शरद के आरम्भ का सूचक है। इस दिन क्षत्रिय विशेष रूप से शस्त्र पूजन करते हैं, ब्राह्मण सरस्वती पूजन और वैश्व बही पूजन करते हैं। ऐसा माना जाता है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय 'विजय' नामक काल होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है।
दशहरा से दस दिन पूर्व ही देश के कोने−कोने में रामलीलाओं का आयोजन शुरू हो जाता है जिसमें प्रभु राम के जीवन का वर्णन दिखाया जाता है और दशहरे वाले दिन रावण का संहार किया जाता है। इस दिन बंगाल में दुर्गा विसर्जन का आयोजन किया जाता है। बंगाल में पूरे नवरात्रि में दुर्गोत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन शमी वृक्ष का पूजन बेहद शुभ माना गया है साथ ही शाम के समय नीलकंठ पक्षी का दर्शन भी शुभ होता है। पुराणों में कहा गया है कि दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों− काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है।
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मान्यता है कि इस दिन भगवान श्रीराम चौदह वर्ष का वनवास काटकर तथा रावण का संहार कर अयोध्या लौटे थे। इसलिए भी इस पर्व को विजयादशमी के रूप में मनाया जाता है। पूरे देश भर में इस दिन विभिन्न जगहों पर रावण, कुम्भकरण तथा मेघनाथ के बड़े−बड़े पुतले लगाए जाते हैं और शाम को श्रीराम के वेषधारी युवक अपनी सेना के साथ पहुंच कर रावण का संहार करते हैं। यह आयोजन सभी आयु वर्ग के लिए आकर्षण का केंद्र होते हैं। उत्तर भारत में जहां भव्य मेलों के दौरान रावण का पुलना दहन कर हर्षोल्लास मनाया जाता है वहीं दक्षिण भारत में कुछ जगहों पर रावण की पूजा भी की जाती है।
विजयादशमी को दशहरा भी कहा जाता है। इस पर्व की खास बात यह है कि इसे भारत में विभिन्न जगहों पर अलग अलग ढंग से मनाया जाता है। उत्तर भारत में जहां भव्य मेलों के दौरान रावण का पुलना दहन कर हर्षोल्लास मनाया जाता है वहीं दक्षिण भारत में कुछ जगहों पर रावण की पूजा भी की जाती है। कर्नाटक में तो दशहरा राज्य उत्सव के रूप में मनाया जाता है। यहां के मैसूर का दशहरा विश्व प्रसिद्ध है। मैसूर में दशहरा उत्सव दस दिनों तक चलता है और इस दौरान लोग अपने घरों, दुकानों और शहर को विभिन्न तरीकों से सजाते हैं। मैसूर महल के सामने भी रंगारंग कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। दशहरे पर मैसूर के राजघराने की ओर से विशेष रूप से पूजा का आयोजन किया जाता है। मैसूर में हाथियों का श्रृंगार कर पूरे शहर में भव्य जुलूस भी निकाला जाता है।
हिमाचल प्रदेश के कुल्लु का दशहरा भी काफी प्रसिद्ध है। कुल्लू में दशहरे से एक सप्ताह पूर्व ही इस पर्व की तैयारी आरंभ हो जाती है। स्त्रियां और पुरुष सभी सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित होकर तुरही, बिगुल, ढोल, नगाड़े, बांसुरी आदि लेकर अपने ग्रामीण देवता का धूमधाम से जुलूस निकाल कर पूजन करते हैं। इस दौरान देवताओं की मूर्तियों को बहुत ही आकर्षक पालकी में सुंदर ढंग से सजाया जाता है। पहाड़ी लोग अपने मुख्य देवता रघुनाथ जी की भी पूजा करते हैं। यह जुलूस नगर नगर परिक्रमा करता है और फिर देवता रघुनाथजी की वंदना से दशहरे के उत्सव का आरंभ होता है।
पंजाब में दशहरे के दिन आगंतुकों का स्वागत पारंपरिक मिठाई और उपहारों से किया जाता है। यहां भी रावण दहन के आयोजन होते हैं, व मेले लगते हैं। छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर जिले का दशहरा भी काफी मशहूर है। यहां लोग राम की रावण पर विजय ना मानकर, इसे मां दंतेश्वरी की आराधना को समर्पित एक पर्व मानते हैं। दंतेश्वरी माता बस्तर अंचल के निवासियों की आराध्य देवी हैं, जो दुर्गा का ही रूप हैं। यहां के दशहरा पर्व की खास बात यह है कि यह पर्व यहां लगभग सवा दो महीने तक मनाया जाता है। इसके अलावा बंगाल, ओडिशा और असम में यह पर्व दुर्गा पूजा के रूप में ही मनाया जाता है।
कथा
एक बार माता पार्वतीजी ने भगवान शिवजी से दशहरे के त्योहार के फल के बारे में पूछा। शिवजी ने उत्तर दिया कि आश्विन शुक्ल दशमी को सायंकाल में तारा उदय होने के समय विजय नामक काल होता है जो सब इच्छाओं को पूर्ण करने वाला होता है। इस दिन यदि श्रवण नक्षत्र का योग हो तो और भी शुभ है। भगवान श्रीराम ने इसी विजय काल में लंका पर चढ़ाई करके रावण को परास्त किया था। इसी काल में शमी वृक्ष ने अर्जुन का गांडीव नामक धनुष धारण किया था।
एक बार युधिष्ठिर के पूछने पर भगवान श्रीकृष्णजी ने उन्हें बताया कि विजयादशमी के दिन राजा को स्वयं अलंकृत होकर अपने दासों और हाथी−घोड़ों को सजाना चाहिए। उस दिन अपने पुरोहित को साथ लेकर पूर्व दिशा में प्रस्थान करके दूसरे राजा की सीमा में प्रवेश करना चाहिए तथा वहां वास्तु पूजा करके अष्ट दिग्पालों तथा पार्थ देवता की वैदिक मंत्रों से पूजा करनी चाहिए। शत्रु की मूर्ति अथवा पुतला बनाकर उसकी छाती में बाण मारना चाहिए तथा पुरोहित वेद मंत्रों का उच्चारण करें। ब्राह्मणों की पूजा करके हाथी, घोड़ा, अस्त्र, शस्त्र का निरीक्षण करना चाहिए। जो राजा इस विधि से विजय प्राप्त करता है वह सदा अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करता है।
-शुभा दुबे
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