पुस्तक मेला और मेरी पुस्तक का विमोचन (व्यंग्य)

मैं जैसे ही दिल्ली स्टेशन पर उतरा तो देखा बटुक जी के दो मिस काल हैं। मैं होटल जाने के लिए ऑटो में बैठा ही था कि बटुक जी का तीसरा काल आ गया -"पता चला है, तुम दिल्ली आए हो। अच्छा किया तुम आ गए, तुम्हारी नई किताब भी आई है न, किस विषय पर है।"
मैंने अपनी नवविकसित मानसिकता और आदत के वशीभूत होकर पुस्तक मेले में पहुँचने की सूचना, ट्रेन में बैठते ही फेसबुक पर डाल दी थी। ज्यादातर लोगों ने मेरी इस सूचना पर खास तवज्जो नहीं दी और जिनने दी भी तो यह लिखना नहीं भूले कि फलां-फलां स्टाल पर मेरी पुस्तक उपलब्ध है, उसे हाथों में लेकर स्नेह जरूर दे आना। ऐसे लोगों की इसी भलमनसाहत का मैं मुरीद हूँ कि वे सीधे सीधे न कह कर भी पुस्तक खरीदने की हिदायत दे देते हैं। मैं जैसे ही दिल्ली स्टेशन पर उतरा तो देखा बटुक जी के दो मिस काल हैं। मैं होटल जाने के लिए ऑटो में बैठा ही था कि बटुक जी का तीसरा काल आ गया -"पता चला है, तुम दिल्ली आए हो। अच्छा किया तुम आ गए, तुम्हारी नई किताब भी आई है न, किस विषय पर है।"
एक साथ इतने प्रश्न सुनकर मैं अचकचा गया, बोला-"हाँ, पुस्तक मेले के लिए आया हूँ, पर मेरी पुस्तक अभी नहीं आई है, चार माह पहले आई थी, कविता संग्रह है।"
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"तुम रहोगे छोटे शहर वाले ही, विश्व पुस्तक मेले में आए हो तो विमोचन की सोचकर आना चाहिए, यहाँ विमोचन कराने से लेखक को ग्लोबल हो जाने वाली फीलिंग आती है। खैर, बारह बजे हाल नंबर दो के गेट पर मिलना, तैयारी के साथ। समय का ध्यान रखना, बहुत व्यस्तता है इस समय। जो भी मेले में आता है विमोचन के लिए पकड़ लेता है। चार दिन में ही छयासी विमोचन करना पड़ गए।" - बटुक जी ने कहा और फोन काट दिया।
उनके कहे शब्द "छोटे शहर वाले" और ग्लोबल हो जाने वाली फीलिंग" देर तक कानों में बजते रहे। विमोचन करा कर ग्लोबल हो जाने की बात मुझे जम गई थी लेकिन अफसोस हो रहा था कि मैं इस बारे में क्यों नहीं सोच पाया। यही बात मुझे छोटे शहर का होने की हीनभावना से ग्रसित कर रही थी। इस ऊहापोह में बिना सूट पहने ही, मैं मेले में पहुँच गया। बटुक जी और उनका एक साथी मेरा इंतजार कर रहे थे। देखते ही बोले - "केवल किताबें लेकर ही आए हो, कुछ तैयारी करके नहीं आए।"
"कैसी तैयारी"- मैंने चौंकते हुए पूछा।
"भले मानुष, विमोचन होगा तो मुँह भी मीठा कराना पड़ेगा कि नहीं... पुस्तकें भी तुम रैप करके नहीं लाए"- बटुक जी थोड़ा रोषमिश्रित स्वर में बोले-"मुझे पता था कि तुम यह सब नहीं सोच पाओगे, इसलिए मैंने खुद ही तैयारी कर रखी है तुम्हारे लिए।"
बटुक जी थोड़ा रुके और कंधे पर टंगे अपने झोले से एक पोलिथीन बैग निकाल कर मुझे थमाते हुए बोले- "ये लो काजू कतली का डिब्बा और रंगीन कागज, किताबें रैप करने के लिए। उधर बैठ कर पुस्तकें रैप कर लो तथा पंद्रह सौ रुपए जो खर्च हुए हैं दे दो। तब तक मैं दो और लेखकों व फोटोग्राफर को लेकर आता हूँ, विमोचन के लिए। यहीं भारत मंडपम के फ्लैक्स के सामने विमोचन करवा देंगे। मैं रुप्पन जी को यहीं छोड़े जा रहा हूँ, इनको पैसे देकर बीस समोसे मंगवा लेना। फोटोग्राफर को दो सौ रुपए अपने हाथ से विमोचन के बाद दे देना"
मैंने सिर हिलाकर हामी भरी। बटुक जी पंद्रह सौ रुपए जेब के हवाले करते हुए तेज-तेज कदमों से हाल नंबर दो में प्रवेश कर गए और मैं वहीं किनारे पर बैठकर अपनी पुस्तकों को रैप करने लगा। रुप्पन जी समोसे लाने जा चुके थे।
- अरुण अर्णव खरे
डी 1/35 दानिश नगर
होशंगाबाद रोड, भोपाल (म.प्र.) 462026
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