क्रूर मुस्कान (व्यंग्य)

neta
Prabhasakshi

चारों तरफ उत्सव, मुर्गियां दाने बिखेर रही थीं, बकरियां घंटियां बजातीं, चिड़ियां ऊपर से पत्ते बरसातीं, लोमड़ी सबको देखकर हंस रही थी, जबकि पुराना बैल दूर पहाड़ी पर बैठा यह तमाशा देख रहा था, उसकी आंखों में भविष्य की छाया थी।

कभी सोचा है कि लोकतंत्र भी एक चालाक शिकारी की तरह मुस्कुराता है, जहां वोट की लहर पर सवार होकर कोई भी सत्ता की कुर्सी हथिया लेता है, ठीक वैसे ही जैसे उस हरे-भरे खेत में चुनाव खत्म हुए थे, जहां सालों से बूढ़ा बैल मुखिया बना हुआ था, हमेशा जानवरों की मेहनत का ख्याल रखता, घास की फसलें बराबर बांटता, मुर्गियों को दाने, बकरियों को छाया, और यहां तक कि छोटे-छोटे चूजों को कीड़ों से बचाता, लेकिन धीरे-धीरे खेत के शांतिप्रिय जानवरों में असंतोष फैलने लगा, क्योंकि पेट भरा तो मन में सवाल उगने लगे, 'यह बैल तो पुराना हो गया, कभी हमारी बाड़ी में आता क्यों नहीं, हमेशा खेत के किनारे पर खड़ा रहता है, क्या नई हवा नहीं चाहिए', और इसी असंतोष की हवा को भांप लिया चालाक लोमड़ी ने, जो पहले से खेत की सीमा पर मंडराती रहती थी, उसने अपने चेलों को भेजा, कानाफूसी फैलाई कि बैल तो सिर्फ अपनी गठरी भरता है, शाकाहारी जानवरों को दबाता है, फिर चुनावी मौसम में लोमड़ी खुद खेत में दाखिल हुई।

एक नन्हे चूजे को गोद में उठाकर कैमरे के सामने मुस्कुराई, 'देखो, मैं तुम्हारी तरह हूं, तुम्हारे बच्चों की परवाह करती हूं', और अगले दिन वह फोटो हर बाड़े, हर घोंसले में बंट गई, साथ में घोषणा-पत्र चिपकाया, जिसमें वादे थे जैसे दाने की नई खेती, कीड़ों पर पूरा हक, बाड़ियों का विस्तार, और यहां तक कि मुर्गियों को अंडे देने के लिए छुट्टी, यह सब देखकर खेत के जानवर प्रभावित हो गए, पुराना बैल अपनी जगह से हिला नहीं, उसे लगा सदियों की सेवा ही काफी है, उसके डमी उम्मीदवार भी बस दिखावे के थे, ताकि लोकतंत्र की रौनक बनी रहे, लेकिन मतदान के दिन लोमड़ी की चाल चल गई, परिणाम आए तो बैल की हार हो गई, लोमड़ी जबरदस्त बहुमत से मुखिया चुनी गई, अगले दिन विजय जुलूस निकला, लोमड़ी की गोद में वही नन्हा चूजा सहमा बैठा था।

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चारों तरफ उत्सव, मुर्गियां दाने बिखेर रही थीं, बकरियां घंटियां बजातीं, चिड़ियां ऊपर से पत्ते बरसातीं, लोमड़ी सबको देखकर हंस रही थी, जबकि पुराना बैल दूर पहाड़ी पर बैठा यह तमाशा देख रहा था, उसकी आंखों में भविष्य की छाया थी, वह जानता था कि यह खुशी की आड़ में आने वाला तूफान है, लेकिन अब वह लाचार था, रात गहराई, खेत में सन्नाटा छा गया, लोमड़ी की बाड़ी में अभी जश्न चल रहा था, मुर्गियां नए दाने के ढेर देखकर उछल रही थीं, लेकिन वह नन्हा चूजा अब तक घर नहीं लौटा था, अचानक लोमड़ी की हंसी के बीच उसकी एक छोटी सी चीख गूंजी, जैसे कोई मासूम सपना टूट रहा हो, और फिर सब शांत, खेत की हवा में वह चीख लहरा गई, लेकिन कोई नहीं बोला, क्योंकि लोकतंत्र की मुस्कान ऐसी ही होती है, वादों से भरी लेकिन दिल तोड़ने वाली, और जैसे-जैसे सुबह हुई, चूजे की मां उसके खाली घोंसले के पास बैठी सिसक रही थी, बैल दूर से देखता रहा, उसकी आंखें नम थीं, क्योंकि वह जानता था कि यह सिर्फ एक चूजे की मौत नहीं, पूरे खेत की मासूमियत का अंत है, जहां वोट की कीमत एक छोटी सी जान बन जाती है।

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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