प्रादेशिक भाषा से प्रेम ठीक है पर राष्ट्रीय भाषा हिन्दी का अपमान तो मत करिये

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ललित गर्ग । Sep 11 2019 1:21PM

भाषायी संकीर्णता न राष्ट्रीय एकता के हित में है और न ही प्रान्त के हित में। प्रान्तीय भाषा के प्रेम को इतना उभार देना, जिससे राष्ट्रीय भाषा के साथ टकराहट पैदा हो जाये, यह देश के लिये उचित कैसे हो सकता है?

गत दिनों बंगलूरू के गणेशबाग में एक जैन आचार्य के चातुर्मास के लिए लगाए गए हिंदी बैनर को कथित तौर पर फाड़ देने एवं तोड़फोड़ करने की हिंसक घटना न केवल विडम्बनापूर्ण बल्कि एक राष्ट्र-विरोधी त्रासदी है। इन दिनों दक्षिण भारत में हिन्दी भाषा का विरोध करते हुए संघर्ष एवं आन्दोलन की स्थितियां देखने को मिल रही हैं। इस आन्दोलन के उग्र होने का कारण हाल ही में प्रस्तुत राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में दक्षिण के गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिन्दी थोपने का आरोप है। हालांकि इससे पहले कि यह मुद्दा 1960 के दशक की भांति हिन्दी विरोधी आंदोलन की तरह राजनीतिक आंदोलन का रूप लेता, केंद्र सरकार ने विवादित प्रावधान को खत्म कर दिया और आश्वासन दिया कि हिन्दी किसी पर थोपी नहीं जाएगी। प्रश्न हिन्दी को थोपने या न थोपने का नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय एकता एवं अस्मिता की रक्षा का है। प्रश्न भाषा के नाम पर एक शांतिप्रिय अहिंसक समुदाय पर हिंसा करने का भी है।

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मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने हिंसक एवं अनियंत्रित होती स्थिति पर काबू पाने में अपनी सूझबूझ का परिचय दिया है, भले ही इसके लिये उन्हें एक बयान जारी कर कहना पड़ा हो कि उनकी सरकार कन्नड़ और कन्नड़भाषियों के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है और इस मामले पर कोई समझौता नहीं हो सकता। लेकिन प्रश्न है कि हिन्दी को इन जटिल स्थितियों में कैसे राष्ट्रीय गौरव प्राप्त होगा। अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम हो सकता है, उसकी सुरक्षा एवं वर्चस्व का प्रयत्न भी असंगत नहीं है, लेकिन भाषायी संकीर्णता न राष्ट्रीय एकता के हित में है और न ही प्रान्त के हित में। प्रान्तीय भाषा के प्रेम को इतना उभार देना, जिससे राष्ट्रीय भाषा के साथ टकराहट पैदा हो जाये, यह देश के लिये उचित कैसे हो सकता है?

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हिन्दी के विरोध के लिये जैन समुदाय को हथियार बनाना अराजकता एवं असामाजिकता का द्योतक है। चातुर्मास के दौरान केवल हिन्दी भाषा में लगे हुए सारे बैनर फाड़कर इन असामाजिक तत्वों ने केवल जैन समाज का ही नहीं बल्कि भारत की राष्ट्रीय भाषा हिन्दी का अपमान किया है, राष्ट्रीय एकता एवं अस्मिता का अपमान किया है। सोशल मीडिया पर एक वीडियो में दिखाया गया कि कन्नड़ समर्थक कार्यकर्ता हिन्दी के होर्डिंग्स फाड़ रहे थे, नारे लगा रहे थे, नारे लगाते हुए कार्यकर्ता सीढ़ी पर चढ़ गए और चाकू से होर्डिंग को काटकर गिरा दिया। बंगलूरू दक्षिण के सांसद तेजस्वी सूर्या ने इन उपद्रवी तत्वों द्वारा जैन आचार्य के चातुर्मास स्थल पर लगे हिन्दी बैनर को लेकर जैन बंधुओं पर हमले की घटना पर बेहद दुख व्यक्त किया।

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ऑल इंडिया जैन माइनरिटी फेडरेशन के कर्नाटक के अध्यक्ष ने कहा कि कर्नाटक के विकास में योगदान करने वाले शांतिप्रिय जैनों पर हमला चिन्ताजनक है। ऐसे तत्वों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जरूरत है। जैन फेडरेशन के सदस्य प्रमेश जैन के अनुसार, एक महीने के भीतर यह इस तरह की चौथी घटना थी। उन्होंने आरोप लगाया कि बंगलूरू में इन दिनों में कन्नड़ समर्थक कार्यकर्ताओं ने कई जैन मंदिरों और प्रार्थना स्थलों के बाहर लगे होर्डिंगों को तोड़ दिया। इस मामले में छह लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है। लेकिन यह मामला यहीं खत्म नहीं हुआ, बल्कि गिरफ्तारी के बाद और बढ़ गया, क्योंकि कन्नड़ अस्मिता के नाम तथाकथित राजनीतिक शक्तियां सक्रिय हो गयीं।

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तमिलनाडु के राजनीतिक दल, खासकर प्रमुख विपक्षी दल द्रमुक ने केंद्र की भाजपा की अगुआई वाली सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि इसका उद्देश्य तमिलनाडु को धोखा देना है। कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने हिन्दी बैनर के साथ तोड़फोड़ करने वाले गिरफ्तार कार्यकर्ताओं को रिहा करने की मांग करते हुए कहा कि ‘राज्य सरकार को कन्नड़ों की भूमि, पानी और भाषा के संरक्षण के लिए चलाए जा रहे आंदोलन का सम्मान करना चाहिए और उनका दमन नहीं करना चाहिए। उनकी मांगें, जो वैध हैं, पूरी होनी चाहिए।’ जबकि इस सन्दर्भ में हुई पुलिस कार्रवाई एवं गिरफ्तारियां कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिये जरूरी थीं।

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एक प्रश्न आजादी के बाद से ही बार-बार खड़ा होता रहा है कि आखिर, दक्षिण भारत में हिन्दी को लेकर इतनी घृणा क्यों है? तमिलनाडु और कर्नाटक के कुछ नेता हिन्दी के खिलाफ क्यों हैं? क्यों भाषा के नाम पर राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेकना जरूरी है। सन् 1967 में पंडित नेहरू ने अहिंदी भाषी क्षेत्रों के लिये त्रिभाषा फार्मूला प्रस्तुत किया तो उत्तर भारत में ‘अंग्रेजी हटाओ’ आन्दोलन के नाम पर हिंसक वारदातें हुईं और दक्षिण भारत में ‘हिन्दी हटाओ’ का तीव्र आन्दोलन चला। उसी समय जैन धर्म के महान् आचार्य श्री तुलसी ने दक्षिण भारत की यात्रा की एवं भाषायी संघर्ष को शांत करने में भूमिका निभाई। आज फिर हिन्दी भाषा के विरोध की स्थितियों के बीच उदार दृष्टि से चिन्तन किये जाने की अपेक्षा सामने आई है। क्योंकि यदि देश की एक सर्वमान्य भाषा होती है तो हर प्रांत के व्यक्ति का दूसरे प्रांत के व्यक्ति के साथ सम्पर्क जुड़ सकता है, विकास के रास्ते खुल सकते हैं। देश की एकता एवं संप्रभु अखण्डता के लिये राष्ट्र में एक भाषा का होना अत्यन्त आवश्यक है।

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अतीत के विपरीत लोग अब हिंदी विरोधी आंदोलनकारियों के इरादों और तमिल-कन्नड़ की सुरक्षा के नाम पर की जा रही राजनीति को समझते हैं। दरअसल बाजार और रोजगार की बड़ी संभावनाओं के बीच हिन्दी विरोध की राजनीति को अब उतना महत्व नहीं मिलता, क्योंकि लोग हिन्दी की ताकत को समझते हैं। पहले की तरह उन्हें हिन्दी विरोध के नाम पर बरगलाया नहीं जा सकता। जब देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी विश्व में हिन्दी को प्रतिष्ठापित करने के लिये प्रयत्नशील है तो भारत में हिन्दी के विरोध की स्थितियां विरोधाभासी हैं, राजनीति से प्रेरित हैं।

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हिन्दी राष्ट्रीयता की प्रतीक भाषा है, उसको राजभाषा बनाने एवं राष्ट्रीयता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठापित करना मोदी सरकार की प्राथमिकता होना ही चाहिए। हिन्दी को दबाने की नहीं, ऊपर उठाने की आवश्यकता है। राजनीतिक स्वार्थों के कारण आज भी हिन्दी भाषा को वह स्थान प्राप्त नहीं है, जो होना चाहिए। राष्ट्र भाषा सम्पूर्ण देश में सांस्कृतिक और भावात्मक एकता स्थापित करने का प्रमुख साधन है। महात्मा गांधी ने सही कहा था कि राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।’ यह कैसी विडम्बना है कि जिस भाषा को कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे भारत में समझा जाता हो, उस भाषा के प्रति दक्षिण भारत में घोर उपेक्षा व अवज्ञा के भाव, हमारे राष्ट्रीय हितों में किस प्रकार सहायक होंगे। हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी दक्षिण भारत में इसकी इतनी उपेक्षा क्यों? इस उपेक्षा को येदियुरप्पा सरकार कुछ ठोस संकल्पों एवं अनूठे प्रयोगों से ही दूर कर सकेगी। इसी से देश का गौरव बढ़ेगा, ऐसा हुआ तो एक स्वर्णिम इतिहास का सृजन कहा जायेगा।

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हिन्दी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्र का प्रतीक है, उसकी उपेक्षा एक ऐसा प्रदूषण है, एक ऐसा अंधेरा है जिससे छांटने के लिये ईमानदार प्रयत्न करने होंगे। क्योंकि हिन्दी ही भारत को सामाजिक-राजनीतिक-भौगोलिक और भाषायिक दृष्टि से जोड़ने वाली भाषा है। कुछ राजनीतिज्ञ अपना उल्लू सीधा करने के लिये भाषायी विवाद खड़े कर रहे हैं, यह देश के साथ मजाक है। जब तक राष्ट्र के लिये निजी-स्वार्थ को विसर्जित करने की भावना पुष्ट नहीं होगी, राष्ट्रीय एकता एवं सशक्त भारत का नारा सार्थक नहीं होगा। हिन्दी को सम्मान एवं सुदृढ़ता दिलाने के लिये मोदी सरकार एवं दक्षिण भारत के प्रांतों की सरकारों को संकल्पित होना ही होगा। 

-ललित गर्ग

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