हिन्दी तुम राष्ट्रभाषा बनने के लिए संघर्ष करती रहो, हम तुम्हारे साथ हैं

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हिन्दी तुम रहोगी। रहोगी जरूरी लेकिन तुम्हारा स्वरूप बदला होगा। तुम कभी कबीर तो कभी तुलसी या फिर घनानंद या फिर विद्यापित की कविताओं में तो रही हो। तुमने तो महादेवी वर्मा, मीराबाई, पंत, निराला यहां भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है।

हिन्दी तुम रहो न हो भाषाएं रहेंगी। भाषाओं की छटाएं रहेंगी। तुम्हारी तो विकास यात्रा भी याद है। कब कैसे कहां तुमने अपनी काया बदली है। कभी तुम हिन्दलवी पुकारी गई हो तो कभी हिन्दुस्तानी के नाम से जानी गई हो। शुद्ध और मानक हिन्दी भी तुम्हीं तो बनी हो। कुछ जगहों पर तुम्हीं तो बोली, भाषा के बीच में सांस लेती देखी जाती हो। कभी अवधी, कभी ब्रज, कभी भोजपुरी आदि के मेल से तुम्हारी काया बढ़ी ही है। लेकिन कुछ लोगों की नजर में ऐसा होना हिन्दी भाषा को गंदला होने से जोड़कर देखा गया है। अब तुम ही बताओ हिन्दी क्या हम ग़ालिब, मीर तकी मीर, फ़ैज़, कबीर, मीरा, दादूदयाल, तुलसी आदि को निकाल बाहर करें। क्योंकि इन लोगों ने हिन्दी में कहां लिखीं? देखो हिन्दी तुम्हारी चिंता सताती है। रात रात भर कई बार नींद नहीं आती। क्योंकि तुम्हें बचाने के लिए कई तरह के अभियान चले हैं। बल्कि चल रहे हैं। तुम्हारे नाम पर तो हर साल चौदह सितंबर को खूब गाना बजाना होता है। तुम्हें जिंदा रखने, तुम्हें बचाने और तुम्हारी दशा दिशा पर देश भर में बड़े बड़े आयोजन होते हैं। उनमें तुम बचो न बचो हां हम आयोजन जरूर करते हैं। हिन्दी! तुम बचो न बचो हम जरूर बचेंगे। हम बचेंगे तो हिन्दी भी बचेगी। ज़रा तुम ही बताओ हिन्दी को बचाएं या भाषा को बचाएं। भाषा परिवार की कई बहनें हमारे समाज से गायब हो चुकी हैं। कुछ तो अब हमारे भूगोल से भी खत्म हो चुकी हैं। तुम्हारे भाग्य को बांचने वाले बताते हैं कि हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है। हिन्दी अपनी ताकत बढ़ा रही है। हिन्दी की किताबें खूब पढ़ी, खरीदी जा रही हैं। इस तरह हिन्दी तुम्हें हम याद करते हैं। 

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हिन्दी तुम रहोगी। रहोगी जरूरी लेकिन तुम्हारा स्वरूप बदला होगा। तुम कभी कबीर तो कभी तुलसी या फिर घनानंद या फिर विद्यापित की कविताओं में तो रही हो। तुमने तो महादेवी वर्मा, मीराबाई, पंत, निराला यहां भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। जहां भी रही जब भी रही हो तब तब अपना स्वरूप वैसे वैसे बदला है। अच्छा है तुमने बिना राग, दुराव के जैसी कविता, जैसे काल, जैसे कवि वैसी भाषा और अभिव्यक्ति में ढाला है। शायद वही तुम्हारी ताकत थी। बल्कि हिन्दी सच कहूं तभी तुम जिंदा भी रह सकोगी। तुमने तो कई उतार चढ़ाव देखे हैं। आदि काल, रीति काल, भक्तिकाल, आधुनिक काल, उत्तर आधुनिक काल से निकलती हुई तुम्हारी विकास यात्रा छंदबद्ध, छंदमुक्त, रीति बद्ध, रीति मुक्त, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद की द्वेढ़ी पार करती हुई आज तकनीक युग में प्रवेश कर चुकी हो। हिन्दी तुम्हीं से बात कर रहा हूं। सुन रही हो न हिन्दी! सो तो नहीं गई। नींद कभी भी आ सकती है। रात बिरात कभी भी तुम दम तोड़ सकती हो।

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हमारी ही आंखों के सामने कई भाषाएं मर चुकी हैं। हम नहीं चाहते कि तुम भी हमारे बीच से सरक लो। तुम्हें बचाने के लिए लगता है कि केवल गोष्ठी, अभियानों के आयोजन से काम नहीं होगा। बल्कि तुम तब बच सकोगी जब तुम्हें बचपन से लेकर विश्वविश्द्यालय शिक्षा से जोड़ा जाएगा। तुम्हें अटल बिहारी वाजपेयी विश्वविद्यालय में जोड़ा गया लेकिन वहां की दास्तां बताउंगा तो रोने लगोगी। लेकिन रोना मत हिन्दी क्योंकि तुम रोओगी तो हमारा क्या होगा। वहां हिन्दी माध्यम से पढ़ने वाले बच्चों की संख्या अत्यंत चिंतनीय है। विभाग तो बन गए लेकिन बच्चों की कमी है। यही हालत अन्य विश्वविद्यालयों में भी है। विभाग में छात्रों की संख्या कटऑफ नीचे करने के बाद भी बच्चे नहीं मिलते। यह क्यों हुआ? क्या हिन्दी पढ़ने वालों की रूचि अब जाती रही। क्या हिन्दी पढ़ने वालों को रोजी रोटी नहीं मिलती। कुछ तो बात है जिसकी वजह से हिन्दी पढ़ने वालों में तुम्हारे प्रति उदासीनता देखी जा सकती है। 

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बाजार ने केवल तुम्हें ही प्रभावित नहीं किया बल्कि तमाम संवेदनाओं, भावों, रिश्तों और भाषाओं को खासा प्रभावित किया है। जो बाजार के अनुसार नहीं चलेगा वो मारा जाएगा। हिन्दी तुम्हें भी बदलने की कवायद शुरू हो चुकी है। तुम्हें नए रंग रूप में ढालने का प्रयास कार्य प्रगति पर है। अफसोस तो तब होता है जब तुम्हारे ही नाम पर खाने, अघाने वाले तुम्हारा माखौल उड़ाते हैं। अपने बच्चों की जबान तक अन्य भाषा में बदल देते हैं। अपने बच्चों की शिक्षा, दीक्षा, व्यापार आदि में तुम्हें भूल जाते हैं। तुम्हें महज चौदह सितंबर को याद किया करते हैं। ऐसे लोग एक वचन में नहीं बल्कि आज बहुवचन में मिलेंगे। स्कूल से लेकर कॉलेज और विश्वविद्यालय आदि में हिन्दी विभाग की नेम प्लेट मिला करती है। लेकिन वहां क्या पढ़ाया लिखाया जा रहा है इसकी कहानी सुनोगी तो आंसू नहीं रूकेंगे। 

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राष्ट्रभाषा तो बन नहीं पाई। राज भाषा की परिधि में सिमटी हिन्दी सुन रही हो न? इसी देश के विभिन्न राज्यों में तुम्हारे ही मस्तक पर कालिख पोती जा रही है। पता नहीं गांधी जी को यह सब देख कर कैसे महसूस हो रहा होगा। उन्होंने तो आजादी के ठीक बाद मीडिया के मार्फत कहा था कि दुनिया को बता दो कि गांधी को अंग्रेजी नहीं आती। लेकिन आज उसी देश में तुम्हारी तुलना अंग्रेजी से की जाती है। कहां तो बहुत कुछ जाता है। अब यहां क्या क्या बताउं। कितना बताउं। कुछ कहा नहीं जाता। फिर भी कहने की कोशिश कर रहा हूं कि जिस हिन्दुस्तानी को गांधी जी ने चुना वहीं हिन्दुस्तानी और हिन्दी आज बेवा सी लगती है। हर कोई यह एहसास कराता है कि यू नो माई हिन्दी इज पुअर। और बड़ी चुस्ती और शिद्दत से यह स्थापित करते हैं कि अंग्रेजी से ही भारत के युवाओं का कल्याण निश्चित है। जबकि उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि यदि जनसामान्य तक पहुंचना है तो उसे हिन्दी का प्रयोग करना होगा। हिन्दी तुम्हें याद दिला दूं कि गांधी जी ने भी अपनी बात रखने के लिए तुम्हें ही अपना माध्यम अपनाया। दयानंद जी ने भी जन सामान्य से जुड़ने के लिए तुम्हें ही अपनाया। यह सच भी है कि यदि किसी नेता, राजनेता आदि को भारत के जन जन तक पहुंचना है तो तुम्हें अपनाना होगा। इसमें कोई राग या पूर्वाग्रह बिल्कुल नहीं है। क्योंकि तुम्हारा अस्तित्व अकेला नहीं है। बल्कि तुममें भोजपुरी, अवधी, ब्रज, मैथिली आदि के साथ ही उर्दू, फारसी, अंग्रेजी, तुर्की आदि के न जाने कितने शब्द, वाक्य जिंदा हैं। यदि उन्हें तुम्हारी काया से निकाल बाहर किया जाए तो तुम कैसी लगोगी?

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हालांकि तुम्हारी काया को नोच, चीरफाड़ कर उक्त शब्दों, छटाओं को निकाल बाहर करने के लिए सूची भी तैयार की जा चुकी है। फर्ज करो यदि तुम में से इन शब्दों को निकाल बाहर किया जाए तो तुम कैसी दिखोगी? क्या होगा तुम्हारा स्वरूप। प्रकाश की जगह रोशनी, रेल की जगह लौह पथ गामनी आदि शब्द क्या तुम्हें सोहाएंगे? माना कि हिन्दी मानक होनी चाहिए। उसे शुद्ध भी बोला, लिखा जाना चाहिए। लेकिन फिर कल्पना करो स्कूलों में विभिन्न भाषा−भाषी बच्चों की अभिव्यक्ति का क्या होगा। वे तो बेचारे शुद्ध हिन्दी के चक्कर काटते काटते अपनी जबान भी भूल जाएंगे। 

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हिन्दी तुम्हें इस लिए भी रहना है क्योंकि तुम भारत की एक बड़ी जन समूह के बीच खासा समझी और बरती जाती हो। तुम्हारी कोमलता और सहजता आम है। यह अलग बात है कि समय समय पर तुम्हें अबूझ बना दिया जाता है। जैसे बच्चों के प्रश्न पत्रों में तुम्हारी भाषा अत्यंत कठिन और उलझाउ हो जाती है। अध्यापक क्या पूछना चाहता है यह समझ ही नहीं आता। ऐसे में बच्चों को कहा जाता है कि अंग्रेजी में लिखा है उसे मानक मानो। देखते ही देखते अंग्रेजी और गैर हिन्दी भाषी लेखकों ने तुम्हें चुना है। आज अनुवाद के मार्फत हिन्दी में कई सारे अच्छे और पठनीय साहित्य को पढ़ाया और लिखा जा रहा है। 

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हिन्दी के शिक्षा और शिक्षण पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। हिन्दी तुम्हें जिस तरह से पढ़ाया जाता है वह अब कारगर नहीं। पुरानी तरीके और शैली से यदि हिन्दी पढ़ाई जाएगी तो वह अकादमिक हिन्दी तो हो सकती है किन्तु वह बच्चों तक नहीं पहुंच पाएगी। खुद स्कूलों में जिस तरह से हिन्दी पढ़ाई जाती है उसमें रोचकता की बजाए कुछ कविताएं रटा दी जाती हैं। अनुभव तो बताते हैं कि बच्चों को हिन्दी की कविता कहानी तक याद नहीं रहतीं। वहीं अंग्रेजी की पोएम तुरंत उगल देते हैं। यहां हिन्दी के प्रति हमारे बरताव को दिखाता है। हिन्दी शिक्षण में गतिविधियों को शामिल किया जाए तो वह हिन्दी जीवंत हो उठेगी। लेकिन दिक्कत तब आती है जब नए नए शिक्षक महज रटे हुए आदर्श विधियों के जरिए हिन्दी पढ़ाते हैं। हिन्दी तुम्हें पढ़ाने में अब तकनीक का प्रयोग भी करना होगा। इसे इ हिन्दी लर्निंग सामग्री कह सकते हैं। कुछ अकादमिक संस्थाएं इ सामग्री विकसित करने में लगी हुई हैं। यदि हिन्दी की शिक्षा और शिक्षण के तरीके बदले जाएं तो संभव है तुम्हें बचाया जा सके।

-कौशलेंद्र प्रपन्न

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