हम जिए जा रहे थे, वो मरे जा रहे थे (कविता)

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कवि ने इस कविता के माध्यम से समाज के स्वार्थपन पर तंज कसा है यह बताने की कोशिश की है कि कैसे परिस्थितियों के हिसाब मनुष्य की पात्रता बदलती है और आखिर में उसके कर्मों की चर्चा होती है।

कवि ने इस कविता के माध्यम से समाज के स्वार्थपन पर तंज कसा है यह बताने की कोशिश की है कि कैसे परिस्थितियों के हिसाब मनुष्य की पात्रता बदलती है और आखिर में उसके कर्मों की चर्चा होती है।  

हम जिए जा रहे थे, वो मरे जा रहे थे। 

वो अपना काम किये जा रहे थे, हम अपना काम कर रहे थे।। 

वक़्त की आँधियों ने बदला रुख हवाओं का। 

अब वो अपना काम कर रहे थे और हम अपना काम किये जा रहे थे।।  

मैंने बतला दिया उन्हें कि मैं मर भी गया तो मिटूँगा नहीं। 

और मान लो मिट भी गया तो मरूंगा नहीं ।।

हम जिए जा रहे थे और वो मरे जा रहे थे------- 

- डॉ. शंकर सुवन सिंह

वरिष्ठ स्तम्भकार एवं कवि

असिस्टेंट प्रोफेसर

कृषि विश्वविद्यालय, प्रयागराज (यू.पी)-211007

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