कुमाऊं, जाट, राजपूत तो फिर अहीर रेजीमेंट पर आपत्ति क्यों? रेजांग ला की वो लड़ाई जब शहादत के बाद भी थामे रहे बंदूक

Ahirs
अभिनय आकाश । Mar 26 2022 6:30PM

हीर समुदाय के सदस्यों के आंदोलन ने बीते दिनों दिल्ली-गुड़गांव राजमार्ग के छह किलोमीटर लंबे मार्ग पर यातायात बाधित कर दिया। भारतीय सेना में अहीर रेजिमेंट की मांग को लेकर प्रदर्शनकारी 4 फरवरी से गुड़गांव में खेरकी दौला टोल प्लाजा के पास डेरा डाले हुए हैं।

कबीर दास जी ने कहा था कि जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान। साधु से उसकी जाति मत पूछो बल्कि उनसे ज्ञान की बातें करिये, उनसे ज्ञान लीजिए। मोल करना है तो तलवार का करो म्यान को पड़ी रहने दो। इसलिए साधू से कभी उसकी जाति नहीं पूछी जाती। लेकिन कबीर दास जी का कहा अगर हमारे देश के सभी लोग आत्मसाध करने जैसी चीजें बेमानी है। अहीर समुदाय के सदस्यों के आंदोलन ने बीते दिनों दिल्ली-गुड़गांव राजमार्ग के छह किलोमीटर लंबे मार्ग पर यातायात बाधित कर दिया। भारतीय सेना में अहीर रेजिमेंट की मांग को लेकर प्रदर्शनकारी 4 फरवरी से गुड़गांव में खेरकी दौला टोल प्लाजा के पास डेरा डाले हुए हैं। लेकिन ये नजारा बस हरियाणा का ही नहीं है मध्य प्रदेश से भी अहीर रेजीमेंट के गठन की मांग उठने लगी है। भारतीय सेना में अहीर रेजीमेंट बनाने की मांग ने अचानक जोड़ पकड़ लिया है। ऐसे में आइए जानते हैं कि आखिर ऐसा हुआ क्या कि इंडियन आर्मी में रेजीमेंट को लेकर बहस शुरू हो गई। 

अहीर रेजिमेंट की मांग की उत्पत्ति क्या है?

अहिरवाल क्षेत्र, जिसमें रेवाड़ी, महेंद्रगढ़ और गुड़गांव के दक्षिणी हरियाणा जिले शामिल हैं। 1857 की क्रांति में राव तुला राम, राव गोपाल देव व राव किशन सिंह के नेतृत्व में नसीबपुर  नारनौल के मैदान में अंग्रेजों से दो-दो हाथ करते हुए 5000  वीर अहीरों ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया । पारंपरिक रूप से बड़ी संख्या में भारतीय सेना में सैनिकों का योगदान दिया है। इस क्षेत्र में अहीर रेजीमेंट के निर्माण के लिए सबसे अधिक शोर-शराबा देखा गया है, हालांकि अहीर की बड़ी आबादी वाले अन्य राज्यों में भी इसकी मांग उठाई गई है। 1962 में रेजांग ला की लड़ाई में हरियाणा के अहीर सैनिकों की बहादुरी की कहानी के बाद समुदाय को राष्ट्रीय सुर्खियों में ला दिया था। कुमाऊं रेजीमेंट की 13वीं बटालियन के सी कंपनी के अधिकांश सैनिक चीनी हमले से लड़ते हुए मारे गए, लेकिन चुशुल के लिए दुश्मन की बढ़त को खत्म कर दिया था। समुदाय के सदस्यों ने लंबे समय से तर्क दिया है कि अहीर उनके नाम पर एक पूर्ण इन्फैंट्री रेजिमेंट के लायक हैं, न कि कुमाऊं रेजिमेंट में केवल दो बटालियन।

इसे भी पढ़ें: ढेरों कहानियों का संकलन, गांधी ने किया उद्घाटन, आखिर ये Modi Story क्या है? जिसकी हो रही हर ओर चर्चा

भारतीय सेना और कुमाऊं रेजीमेंट में अहीरों का इतिहास क्या है?

भारतीय सेना में विभिन्न रेजिमेंटों में अहीरों की भर्ती की जाती है, जिसमें निश्चित वर्ग रेजिमेंट (निश्चित संख्या में एक या अधिक जातियां) जैसे कुमाऊं, जाट, राजपूत, और मिश्रित वर्ग रेजिमेंट (सभी जातियों की) जैसे ब्रिगेड ऑफ द गार्ड्स या पैराशूट रेजिमेंट शामिल हैं। अहीरों को शुरू में 19 हैदराबाद रेजिमेंट में बड़ी संख्या में भर्ती किया गया था। इस रेजिमेंट ने पहले मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के राजपूतों और अन्य जातियों के बीच दक्कन के पठार से मुसलमानों की भर्ती की थी। 1902 में हैदराबाद के निज़ाम के साथ रेजिमेंट के संबंध बरार के अंग्रेजों के लिए एक स्थायी आधार में परिवर्तित होने के बाद टूट गए थे। 1922 में भारतीय सेना के एक और पुनर्गठन में, 19 हैदराबाद रेजिमेंट की संरचना को बदल दिया गया, और डेक्कन मुसलमानों को इससे हटा दिया गया। 1930 में, वर्ग संरचना को फिर से कुमाऊँनी, जाट, अहीर और मिश्रित वर्ग की एक-एक कंपनी में बदल दिया गया। 27 अक्टूबर 1945 को रेजिमेंट का नाम बदलने की अनुमति दी गई और यह 19 कुमाऊं हो गई। आजादी के बाद इसका नाम कुमाऊं रेजीमेंट रखा गया। रेजांग ला में प्रसिद्धि पाने वाली कुमाऊं रेजीमेंट की 13वीं बटालियन आजादी के बाद पहली बटालियन थी। इसे अक्टूबर 1948 में कुमाऊं और अहीरों के साथ समान अनुपात में स्थापित किया गया था। 1960 में, 2 कुमाऊं और 6 कुमाऊं से अहीरों के स्थानांतरण के बाद, 13 कुमाऊं, कुमाऊं रेजिमेंट में पहली शुद्ध अहीर बटालियन बन गई।

इसे भी पढ़ें: Matrubhoomi: चुनाव लड़ने वाली पहली महिला कमलादेवी, बहुत गौरवशाली है शौर्य और साहस की कहानी

रेजांग ला के युद्ध में अहीरों की क्या भूमिका थी?

1962 में रेजांग ला की जंग में हरियाणा के जांबाज अहीर सैनिकों की बहादुरी की खबर मिलने के बाद अहीर सैनिक पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आए। आज भी उन 117 अहीरों के शौर्य और बलिदान को याद किया जाता है। उस समय कुमाऊं रेजिमेंट की 13वीं बटालियन की सी कंपनी के ज्यादातर सैनिक चीनी सैनिकों से लोहा लेते हुए शहीद हो गए थे लेकिन दुश्मन को आगे नहीं बढ़ने दिया। वे तमाम कोशिशों के बाद भी रेजांगला चौकी पर कब्जा नहीं कर पाए और चुशूल में आगे बढ़ने का उनका सपना चकनाचूर हो गया। 18 नवंबर 1962 की वो तारीख जब पूर्वी लद्दाख के 17 हजार फीट की ऊंचाई पर रेजांग ला में तैनात 13 कुमाऊं के अहीरों ने उन पर चीनी हमले का विरोध किया। 120 सैनिकों वाली कंपनी उनसे मुकाबला करती है,  बहाजदुरी की ये गौरवगाथा सदा के लिए अमर हो गई। मारे गए 117 सैनिकों में से 114 अहीर थे, और केवल तीन गंभीर रूप से घायल हुए थे। मारे गए अहीर सैनिक हरियाणा के रेवाड़ी-महेंद्रगढ़ बेल्ट के थे। जब सर्दी समाप्त हो गई और मृत सैनिकों के शव बरामद किए गए, तो कई लोग अपने हथियारों को खाइयों में पकड़े हुए पाए गए। मेजर शैतान सिंह को देश के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार, परम वीर चक्र, मरणोपरांत, आठ सैनिकों को वीर चक्र से सम्मानित किया गया, और कई अन्य को सेना पदक और मेंशन-इन-डिस्पैच से सम्मानित किया गया।

मांग पर सेना की क्या प्रतिक्रिया रही है?

सेना ने किसी भी नए वर्ग या जाति आधारित रेजिमेंट की मांग को खारिज कर दिया है। इसने कहा है कि डोगरा रेजीमेंट, सिख रेजीमेंट, राजपूत रेजीमेंट और पंजाब रेजीमेंट जैसी जातियों और क्षेत्रों पर आधारित पुरानी रेजीमेंट जारी रहेंगी, अहीर रेजीमेंट, हिमाचल रेजीमेंट, कलिंग रेजीमेंट, गुजरात रेजीमेंट या किसी भी आदिवासी रेजिमेंट लाने जैसी कोई पहल का स्वागत नहीं किया जाएगा। राजपूताना राइफल्स में सेवा देने वाले पूर्व थल सेनाध्यक्ष लेफ्टिनेंट जनरल आरएस कादयान (सेवानिवृत्त) ने कहा कि मौजूदा प्रणाली के साथ छेड़छाड़ करने की कोई जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि एक दौड़ते हुए घोड़े को कोड़े क्यों मारने की जरूरत? सेना वर्तमान संरचना के साथ अच्छा कर रही है और इसलिए वर्ग या जाति के आधार पर नई रेजिमेंट जोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। 

इसे भी पढ़ें: जिन्ना को जवाब देने की नेहरू की जिद, जिसने आज तक कश्मीर में अशांति पैदा कर रखी, बाकी कसर UN जाने वाले स्टैंड ने पूरी कर दी

सेना में जाति आधारित रेजिमेंट का इतिहास

भारतीय सेना में जाति आधारित रेजिमेंट की स्थापना काफी पुरानी है। इसकी शुरुआत उस दौर में हुई जब हमारे देश पर अंग्रोजों का शासन था और 'फूट डालो राज करो' उनका एक मात्र एजेंडा था। इस दौर में भारत की शासन व्यवस्था संभालने और युद्ध जीतने के लिए अंग्रेजों ने कई अलग-अलग जातियों के आधार पर सेना में भर्ती की। अंग्रेजों ने इन जातियों को लड़ाकू और गैर-लड़ाकू वर्ग के आधार पर बांटा था। 

राजनीतिक दल के नेताओं ने भी दिखाई दिलचस्पी 

2012 में 1962 के युद्ध की 50वीं वर्षगांठ के दौरान मांग को बढ़ावा मिला, जब अहीरों की वीरता की गाथा बार-बार सुनाई गई, और 60 वीं वर्षगांठ वर्ष में नए सिरे से मांग जोर पकड़ने लगी। विभिन्न राजनीतिक दलों ने हाल के वर्षों में मांग के पीछे अपने भी स्वर बुलंद किए। कांग्रेस की राज्य इकाई के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण यादव ने यदुवंशियों के साहस और शौर्य का जिक्र करते हुए ट्वीट कर लिखा है- "वीर अहीरो ने ठाना है अहीर रेजिमेंट बनाना है, वीर थे रणधीर थे वो यदुवंशी धारा के नीर थे, कैसे पीछे हटते वो तो अहीर थे"। 'अहीर रेजिमेंट हक है हमारा'। 2019 के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में सत्ता में आने पर जाति-आधारित अहीर इन्फैंट्री रेजिमेंट बनाने का वादा किया था. साथ ही, भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बनी चमार रेजिमेंट की दोबारा बहाली की मांग भी की थी। जाति आधारित रेजिमेंट न केवल राजनीतिक एजेंडा था बल्कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने भी इस कदम का समर्थन किया था। आयोग ने तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को चमार रेजिमेंट की बहाली के लिए पत्र भी लिखा था।

-अभिनय आकाश 

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़