अमित शाह के बाद मोदी ने भी बढ़ाई नीतीश कुमार की टेंशन, CM Face को लेकर PM ने नहीं दिया कोई स्पष्ट संकेत

Modi Nitish
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प्रधानमंत्री ने अपनी जनसभा में पुराना मंत्र दोहराया— “बिहार को जंगलराज से बचाना है, सुशासन को लौटाना है।” उन्होंने लालू प्रसाद की पार्टी आरजेडी पर करारा प्रहार करते हुए कहा कि “जब रोशनी इतनी है तो क्या हमें ‘लालटेन’ की ज़रूरत है?”

समस्तीपुर की धरती से आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जैसे ही चुनावी बिगुल फूंका, बिहार की सियासत में फिर हलचल मच गई। मंच पर उनके साथ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मौजूद थे— यह दृश्य अपने आप में प्रतीक था कि बीजेपी और जेडीयू, तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद, एक बार फिर “सत्ता वापसी” के मिशन पर एकजुट हैं। लेकिन इस एकजुटता की आड़ में छिपा राजनीतिक यथार्थ यह भी है कि इस बार का चुनाव नीतीश कुमार के लिए उतना सहज नहीं है जितना कभी हुआ करता था।

प्रधानमंत्री ने अपनी जनसभा में पुराना मंत्र दोहराया— “बिहार को जंगलराज से बचाना है, सुशासन को लौटाना है।” उन्होंने लालू प्रसाद की पार्टी आरजेडी पर करारा प्रहार करते हुए कहा कि “जब रोशनी इतनी है तो क्या हमें ‘लालटेन’ की ज़रूरत है?” यह व्यंग्य भरा वाक्य बिहार की जनता की स्मृति में पुराने दिनों की याद दिलाने के लिए था, जब भ्रष्टाचार, अपराध और जातीय राजनीति ने राज्य को पीछे धकेल दिया था। मोदी का यह भाषण केवल चुनावी वादों का सिलसिला नहीं था, बल्कि एक भावनात्मक अपील थी— ‘जंगलराज’ की वापसी के भय को दोहराते हुए जनता से “सुशासन” के लिए वोट मांगना।

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नीतीश कुमार को मंच से “एनडीए का नेता” बताते हुए मोदी ने साफ कहा, “इस बार नीतीश जी के नेतृत्व में एनडीए अब तक का सबसे बड़ा जनादेश हासिल करेगा।” यह बयान नीतीश के पक्ष में समर्थन का संकेत जरूर देता है, लेकिन राजनीतिक पंडित जानते हैं कि बीजेपी नेतृत्व इस बार रणनीति के तहत अपने पत्ते पूरे नहीं खोल रहा।

दरअसल, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जब कहा कि “फिलहाल हम नीतीश जी के नेतृत्व में लड़ रहे हैं, लेकिन चुनाव बाद सहयोगी मिलकर तय करेंगे कि नेता कौन होगा”, तो यह वाक्य बिहार की राजनीति में नई बेचैनी ले आया। यह पहला मौका है जब 2005 के बाद नीतीश कुमार की मुख्यमंत्री कुर्सी पर इतना बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा हुआ है और वह भी विपक्ष की ओर से नहीं, बल्कि सहयोगी दल से।

नीतीश कुमार का राजनीतिक सफर अपने आप में बिहार की आधुनिक राजनीति की कहानी है— कभी लालू के साथ, कभी उनके खिलाफ, तो कभी बीजेपी के साथ। वे गठबंधन के समीकरणों के सबसे चालाक खिलाड़ी माने जाते हैं। परंतु अब वे उस मोड़ पर हैं जहां सत्ता की बागडोर हाथ से खिसकने का डर उन्हें लगातार परेशान कर रहा है। बीजेपी, जो कभी जूनियर पार्टनर थी, अब बराबरी की सीटों पर चुनाव लड़ रही है (101–101 सीटें)। यह “बराबरी” केवल सीटों की नहीं, बल्कि ताकत की परीक्षा भी है।

एनडीए का मुख्य चुनावी संदेश है— “विकास बनाम जंगलराज।” वहीं, महागठबंधन जनता को यह बताने की कोशिश कर रहा है कि “नीतीश का दौर खत्म, अब बदलाव की जरूरत।” लेकिन बिहार का मतदाता भावनाओं से अधिक स्थिरता को महत्व देता है। मोदी का भाषण इसी भावनात्मक स्थिरता पर चोट करता है— वे विकास को धर्मयुद्ध की तरह प्रस्तुत करते हैं और “लालटेन” को अंधकार का प्रतीक बना देते हैं। 

राजनीतिक दृष्टि से देखें तो यह चुनाव बिहार की सत्ता का नहीं, बल्कि “नेतृत्व की वैधता” का प्रश्न है। क्या नीतीश कुमार अपने ही सहयोगियों के बीच अपनी स्वीकार्यता बनाए रख पाएंगे? क्या बीजेपी, जो अब राष्ट्रीय स्तर पर सबसे शक्तिशाली दल है, बिहार में भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नियंत्रण चाहती है? इन सवालों के उत्तर 14 नवंबर की मतगणना में मिलेंगे।

फिलहाल इतना तय है कि प्रधानमंत्री मोदी ने समस्तीपुर से अपने अभियान की शुरुआत करते हुए स्पष्ट संदेश दे दिया है— “एनडीए एक है, मजबूत है, और लालटेन अब अंधेरे में गुम हो जाएगी।” परंतु इस प्रकाश में नीतीश कुमार की छाया कितनी स्पष्ट दिखेगी, यह बिहार का मतदाता तय करेगा।

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