भाजपा, कांग्रेस विधायकों को एकजुट रखने के प्रयास में

देहरादून। उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू किये जाने के संबंध में दायर दो याचिकाओं पर उत्तराखंड उच्च न्यायालय में छह अप्रैल को होने वाली सुनवाई पर नजरें टिकाये बैठे दोनों बड़े राजनीतिक दल- कांग्रेस और भाजपा फिलहाल अपने विधायकों को लेकर कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते और राज्य विधानसभा में अपनी संख्या बरकरार रखने के प्रयास में जुटे हुए हैं। उच्च न्यायालय की खंडपीठ द्वारा छह अप्रैल को जिन दो याचिकाओं पर सुनवाई की तिथि नियत की गयी है, उनमें से एक में केंद्र सरकार ने उच्च न्यायालय की एकल पीठ के उस निर्णय को चुनौती दी थी जिसमें अपदस्थ मुख्यमंत्री को सदन में बहुमत सिद्ध करने के लिये कहा गया था जबकि दूसरी याचिका रावत ने दायर की है जिसमें उन्होंने विधानसभा की सदस्यता खो चुके विधायकों को भी सदन में शक्ति परीक्षण के दौरान मतदान का अधिकार देने के एकल पीठ के निर्णय को चुनौती दी है।
गौरतलब है कि न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी की एकल पीठ ने विधानसभा में विश्वासमत रखे जाने से एक दिन पहले 27 मार्च को प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने के केंद्र के निर्णय को चुनौती देने वाली हरीश रावत की याचिका पर सुनवाई करते हुए उन्हें 31 मार्च को सदन में शक्ति परीक्षण करने और इस दौरान विधानसभा की सदस्यता से अयोग्य ठहराये गये कांग्रेस के नौ बागी विधायकों को भी मतदान में भाग लेने की अनुमति दी थी। हालांकि, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश केएम जोसेफ और न्यायमूर्ति वीके बिष्ट की खंडपीठ के मामले की अगली सुनवाई के लिये छह अप्रैल तय करने से एकल पीठ के आदेश पर रोक लग गयी। केंद्र सरकार ने एकल पीठ के शक्ति परीक्षण के आदेश को इस आधार पर चुनौती दी है कि प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद विधानसभा निलंबन की स्थिति में आ जाती है और ऐसे में यह आदेश नहीं दिया जा सकता। वहीं अपदस्थ मुख्यमंत्री रावत ने एकलपीठ के निर्णय के उस हिस्से की समीक्षा की जरूरत बतायी है जिसमें अयोग्य कांग्रेसी विधायकों को सदन में शक्ति परीक्षण के दौरान मतदान करने का अधिकार दिया गया है। अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी केंद्र की ओर से पक्ष रख रहे हैं जबकि रावत का प्रतिनिधित्व सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्ब्ल और अभिषेक मनु सिंघवी कर रहे हैं।
उच्च न्यायालय में होने वाली सुनवाई के इंतजार में बैठे दोनों प्रमुख राजनीतिक दल फिलहाल अपने विधायकों को एकजुट रखने के प्रयास में लगे हैं। कांग्रेस ने जहां अपने 19 विधायकों को पड़ोसी हिमाचल प्रदेश में एक रिजार्ट में भेज दिया है वहीं माना जा रहा है कि नौ बागी कांग्रेस विधायकों में से छह फिलहाल मुंबई या दिल्ली में कहीं ठहरे हुए हैं। यहां कांग्रेस में फिलहाल किसी को यह अंदाजा नहीं है कि बागी विधायक कहां ठहरे हुए हैं। यहां राजनीतिक पंडितों का मानना है कि यह भाजपा और कांग्रेस के बागी विधायकों की एक रणनीति हो सकती है जिससे प्रतिद्वंद्वी खेमा उन तक पहुंच न सके। ऐसे राजनीतिक हालात में 70 सदस्यीय राज्य विधानसभा का हरेक विधायक महत्वपूर्ण हो गया है और कांग्रेस और भाजपा दोनों अपने किले में सेंध न लगने देने के लिये पूरी तरह चौकस हैं। नौ कांग्रेस विधायकों के अलग हो जाने के बाद विधानसभा में कांग्रेस के 27 विधायक रह गये हैं जबकि उसे प्रगतिशील लोकतांत्रिक मोर्चा (पीडीएफ) के छह सदस्यों का भी समर्थन है। दूसरी तरफ भाजपा के विधायकों की संख्या 27 है।
उधर, विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल द्वारा नौ बागी विधायकों की विधानसभा सदस्यता रद्द किये जाने के निर्णय को भी उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है। बागियों ने प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद अध्यक्ष कुंजवाल के इस निर्णय को असंवैधानिक बताते हुए उसे चुनौती दी है जिस पर 11 अप्रैल को सुनवाई होनी है।
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