भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पकार ही नहीं बल्कि महान चिंतक और समाज सुधारक भी थे डॉ. भीमराव अम्बेडकर

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[email protected] । Dec 6 2019 8:39AM

सन 1927 में डॉ. अम्बेडकर ने छुआछूत के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने सार्वजनिक आन्दोलनों और जुलूसों के द्वारा पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिये खुलवाने के साथ ही अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये संघर्ष किया।

बाबासाहेब के नाम से दुनियाभर में लोकप्रिय डॉ. भीमराव अम्बेडकर एक समाज सुधारक, एक दलित राजनेता होने के साथ ही विश्व स्तर के विधिवेत्ता व भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पकार थे। डॉ. अम्बेडकर का 63वा महापरिनिर्वाण दिवस है। भीमराव अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू में एक गरीब अस्पृश्य परिवार में हुआ था। भीमराव अम्बेडकर रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की 14वीं सन्तान थे। उनका परिवार मराठी था जो महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले मे स्थित अम्बावडे नगर से सम्बंधित था। उनके बचपन का नाम रामजी सकपाल था। वे हिंदू महार जाति के थे जो अछूत कहे जाते थे। उनकी जाति के साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था। एक अस्पृश्य परिवार में जन्म लेने के कारण उनको बचपन कष्टों में बिताना पड़ा। अम्बेडकर के पिता भारतीय सेना की महू छावनी में सूबेदार के पद पर रहे थे। उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल में पढ़ने और कड़ी मेहनत करने के लिये हमेशा प्रोत्साहित किया। अपने भाइयों और बहनों में केवल अम्बेडकर ही स्कूल की परीक्षा में सफल हुए और इसके बाद बड़े स्कूल में जाने में सफल हुये। अपने एक ब्राह्मण शिक्षक महादेव अम्बेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे, के कहने पर अम्बेडकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर अम्बेडकर जोड़ लिया जो उनके गांव के नाम अंबावडे पर आधारित था। अम्बेडकर 1926 में बंबई विधान परिषद के मनोनीत सदस्य बन गये। सन 1927 में डॉ. अम्बेडकर ने छुआछूत के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने सार्वजनिक आन्दोलनों और जुलूसों के द्वारा पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिये खुलवाने के साथ ही अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये संघर्ष किया।

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डॉ. अम्बेडकर की बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको 1931 में लंदन में आयोजित दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। 1936 में उन्होंने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की जो 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों में 15 सीटें जीतने में सफल रही। उन्होंने अपनी पुस्तक 'जाति के विनाश' भी 1937 में प्रकाशित की जो उनके न्यूयॉर्क में लिखे एक शोधपत्र पर आधारित थी। इस लोकप्रिय पुस्तक में अम्बेडकर ने हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की थी। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गांधीजी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की भी कड़ी निंदा की थी। जब 15 अगस्त 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार बनी तो उसमें अम्बेडकर को देश का पहला कानून मंत्री नियुक्त किया गया। 29 अगस्त 1947 को डॉ. अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना कि लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष नियुक्त किया गया। डॉ. अम्बेडकर ने मसौदा तैयार करने के काम में सभी की प्रशंसा अर्जित की। 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया। अपने काम को पूरा करने के बाद बोलते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि मैं महसूस करता हूं कि संविधान साध्य है, लचीला है पर साथ ही यह इतना मजबूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में मैं कह सकता हूं कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य ही गलत था।

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1951 में संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद अम्बेडकर ने केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था। इस मसौदे में उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गयी थी। अम्बेडकर ने 1952 में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लोकसभा का चुनाव लड़ा पर हार गये। मार्च 1952 में उन्हें राज्य सभा के लिए मनोनित किया गया। अपनी मृत्यु तक वो उच्च सदन के सदस्य रहे। सन् 1950 के दशक में अम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए। 1955 में उन्होंने भारतीय बुद्ध महासभा की स्थापना की। 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में अम्बेडकर ने अपने लाखों समर्थकों के साथ सार्वजनिक समारोह में एक बौद्ध भिक्षु से बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। राजनीतिक मुद्दों से परेशान अम्बेडकर का स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया। 6 दिसम्बर 1956 को अम्बेडकर की नींद में ही दिल्ली स्थित उनके घर में मृत्यु हो गई। 7 दिसम्बर को बम्बई में चौपाटी समुद्र तट पर बौद्ध शैली में उनका अंतिम संस्कार किया गया जिसमें उनके हजारों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों ने भाग लिया।

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अम्बेडकर के दिल्ली स्थित 26 अलीपुर रोड के उस घर में एक स्मारक स्थापित किया गया है जहां वो सांसद के रूप में रहते थे। देश भर में अम्बेडकर जयन्ती पर सार्वजनिक अवकाश रखा जाता है। अनेकों सार्वजनिक संस्थानों का नाम उनके सम्मान में उनके नाम पर रखा गया है। अम्बेडकर का एक बड़ा चित्र भारतीय संसद भवन में लगाया गया है। हर वर्ष 14 अप्रैल व 6 दिसम्बर को मुंबई स्थित उनके स्मारक पर काफी लोग उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए आते हैं। बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर को 1990 में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया। सरकार ने बाबा साहेब को बहुत देर से भारत रत्न सम्मान प्रदान किया जिसके वे पहले हकदार थे। डॉ. अम्बेडकर की सामाजिक और राजनैतिक सुधारक की विरासत का आधुनिक भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा है। स्वतंत्रता के बाद के भारत में उनकी सामाजिक और राजनीतिक सोच को सम्मान हासिल हुआ। उनकी यह सोच आज की सामाजिक, आर्थिक नीतियों, शिक्षा, कानून और सकारात्मक कार्रवाई के माध्यम से प्रदर्शित होती है। 

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भारतीय संविधान के रचयिता डॉ. भीमराव अम्बेडकर के कई सपने थे। भारत जाति-मुक्त हो, औद्योगिक राष्ट्र बने, सदैव लोकतांत्रिक बना रहे। अम्बेडकर विपुल प्रतिभाशाली छात्र थे। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने विधि, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान के शोध कार्य में ख्याति प्राप्त की थी। जीवन के प्रारम्भिक कॅरियर में वह अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे एवं वकालत की। वो देश के एक बहुत बड़े अर्थशास्त्री थे। मगर देश उनके अर्थशास्त्री होने का उतना लाभ नहीं उठा पाया जितना उठाना चाहिये था। लोग अम्बेडकर को एक दलित नेता के रूप में जानते हैं जबकि उन्होंने बचपन से ही जाति प्रथा का खुलकर विरोध किया था। उन्होंने जातिवाद से मुक्त आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ भारत का सपना देखा था मगर देश की गन्दी राजनीति ने उन्हें सर्वसमाज के नेता की बजाय दलित समाज के नेता के रूप में स्थापित कर दिया। डॉ. अम्बेडकर का एक और सपना भी था कि दलित धनवान बनें। वे हमेशा नौकरी मांगने वाले ही न बने रहें अपितु नौकरी देने वाले भी बनें। अम्बेडकर के दलित धनवान बनने के सपने को साकार कर रही है डिक्की। पुणे के दलित उद्यमियों ने दलित इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री (डीआईसीसीआई) नामक एक ट्रेड बॉडी बना ली है। जो दलित उद्यमियों को आगे बढ़ाने में सहयोग करती है। भारत सरकार ने डॉ. भीमराव अंबेडकर का लंदन स्थित वह तीन मंजिला बंगला भी खरीद लिया है, जिसमें वह 1920 के दशक में एक छात्र के तौर पर रहे थे। अब इस भवन को एक अंतरर्राष्ट्रीय स्मारक में तब्दील किया जाएगा जहां दुनिया भर के लोग डॉ. अम्बेडकर के विचारों को जान व समझ सकेंगे।

हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करना चाहते थे डॉ. आंबेडकर

भारत रत्न डॉ. भीमराव आंबेडकर सिर्फ दलितों के ही नहीं बल्कि सर्व समाज के हितैषी थे। लिंग भेद पर प्रहार करने वाले और समान नागरिक संहिता की वकालत करने वाले डॉ. अंबेडकर भारत वर्ष के पहले चिंतक थे। डॉ. आंबेडकर’ ने सामाजिक उत्पीड़न और वंचना के शिकार लोगों के लिए आजीवन संघर्ष किया। वे अपने समय के सर्वाधिक विद्वान और सुविज्ञ नेताओं में से थे। जीवन में तरह-तरह के अपमान, उपेक्षा और उलाहने सहते हुए वे आगे बढ़े। उन लोगों को आवाज दी जिन्हें दमन सहते-सहते चुप्पी साधने की आदत पड़ चुकी थी। वे सही मायने में ‘मूकनायक’ बने। वंचितों के हित में सतत संघर्ष कर जननायक कहलाए। वे अपने जीवन में ही किवंदति बन चुके थे। उन्होंने भारतीय समाज को समानता, सद्भाव, न्याय एवं बंधुता के रास्ते पर लाने के लिए सतत संघर्ष किया। डॉ. अंबेडकर केवल दलितों के ही चिंतक नहीं, बल्कि सर्व समाज के हितों की रक्षा करने की सोच वाले व्यक्ति थे। उन्होंने सदैव उपेक्षित, शोषित व पीड़ित लोगों की व्यथाओं को समझ कानून का निर्माण किया। बाबा साहब का जीवन सर्वसमाज के लिये था।

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डॉ. भीमराव अम्बेडकर एक नेता, वकील, गरीबों के मसीहा और देश के बहुत बड़े नेता थे, जिन्होंने समाज की बेड़ियां तोड़ कर विकास के लिए कार्य किए। उन्होंने अपना सारा जीवन भारतीय समाज में सर्वव्यापित जाति व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष में बिता दिया। डॉ. आंबेडकर उन लोगों के नेता थे जो एक साथ दो गुलामियां झेल रहे थे। राजनीतिक गुलामी के अलावा सामाजिक दासता, जिनके शिकार वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी होते आए थे। ऐसे लोगों के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता तब तक अर्थहीन थी, जब तक सामाजिक दासता से मुक्ति न हो। ऐसे ही सामाजिक-सांस्कृतिक दलन का शिकार रहे लोगों के मान-सम्मान और आजादी के निमित्त उन्होंने अपना जीवन समर्पित किया। इसके लिए उन्हें दो मोर्चों पर संघर्ष करना पड़ा। पहला मोर्चा देश की आजादी का था। दूसरा अपने लोगों के सामाजिक मान-सम्मान, सुरक्षा और स्वतंत्रता का। उनके लिए सामाजिक आजादी राजनीतिक स्वतंत्रता से ज्यादा महत्त्वपूर्ण थी। उनका पूरा आंदोलन सामाजिक स्वतंत्रता एवं समानता पर केंद्रित था। कोरी राजनीतिक स्वतंत्रता को वे वास्तविक स्वतंत्रता मानने को तैयार ही नहीं थे।

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डॉ. आंबेडकर मनुष्य को मनुष्य की तरह जीने का हक देने के पक्षधर थे। उन्होंने छुआछूत जैसे घिनौनी निकृष्टतम सामाजिक व्यवस्था को पशुता की संज्ञा दिया था। उन्होंने अपनी उपेक्षा, अवहेलना एवं अपमान को सतत् झेलने के बाद भी समष्टि के लिये निजी हितों एवं स्वार्थों को त्यागने की भावना थी। वे एक महान वैज्ञानिक थे। अपनी विश्लेषण क्षमता से उन्होंने समाज के विभिन्न पक्षों के व्यावहारिक एवं शास्त्रीय दोनों दृष्टियों से देखा। भारतीय समाज के विषमतामूलक तत्वों को जड़ से उखाड़ने के लिए उनके क्रान्तिकारी विचार आज भी प्राणवान हैं। 

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