Yes Milord: सलाह मांगने का अधिकार...राष्ट्रपति मुर्मू ने SC से पूछे थे 14 सवाल, मिल गया क्या जवाब?

मई में राष्ट्रपति द्रौपद्री मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से खुद राय मांगी थी कि क्या राज्यपाल या राष्ट्रपति किसी बिल पर फैसला लेने में अनिश्चितकाल तक देरी कर सकते हैं या इसके लिए कोई समयसीमा तय की जा सकती है। केंद्र सरकार ने इस पर आपत्ति जताते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को ये निर्देश नहीं दे सकता है कि वो कब और किन मुद्दो पर राय ले।
सुप्रीम कोर्ट ने 19 अगस्त को एक सुनवाई के दौरान साफ तौर पर कहा कि राष्ट्रपति को कोर्ट से सलाह मांगने का अधिकार है और ये एडवाइजरी ज्यूरीडिक्शन के तहत आता है न कि अपीलेट ज्यूरीडिक्शन के तहत। कोर्ट ने ये टिप्पणी तब की जब राष्ट्रपति द्रौपद्री मुर्मू की ओर से कोर्ट से मांगी गई राय पर सवाल उठा। ये राय राज्यपालों और राष्ट्रपति की ओर से विधेयकों पर हस्ताक्षर करने की समयसीमा से संबंधित थी। सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति और राज्यपालों के विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक देरी करने के खिलाफ याचिका पर सुनवाई चल रही थी। दरअसल, मई में राष्ट्रपति द्रौपद्री मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से खुद राय मांगी थी कि क्या राज्यपाल या राष्ट्रपति किसी बिल पर फैसला लेने में अनिश्चितकाल तक देरी कर सकते हैं या इसके लिए कोई समयसीमा तय की जा सकती है। केंद्र सरकार ने इस पर आपत्ति जताते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को ये निर्देश नहीं दे सकता है कि वो कब और किन मुद्दो पर राय ले।
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ये आपत्ति 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट के दिए गए फैसले पर आधारित थी। उस फैसले में तमिलनाडप सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महाजन की बेंच ने कहा था कि राज्यपाल किसी विधेयक को अनिश्चितकाल तक अपने पास नहीं रख सकते। उन्हें एक तय समय सीमा के भीतर उस पर स्वीकृति देनी होगी, उसे वापस भेजना होगा, या राष्ट्रपति के पास भेजना होगा। इस फैसले में ये भी कहा गया था कि राष्ट्रपति अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट की राय ले सकती हैं, क्योंकि कानूनों की संवैधानिकता और वैधता का निर्धारण करना सुप्रीम कोर्ट का ही काम है।
केंद्र की आपत्ति के जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने ये साफ किया कि अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति का कोर्ट से राय मांगना गलत नहीं है। दरअसल, 15 मई को राष्ट्रपति द्रौपद्री मुर्मू ने अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 को लेकर राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों को लेकर 14 सवाल पूछे थे। जिनमें से कुछ सबसे अहम सवाल ये थे
क्या कोर्ट राष्ट्रपति- राज्यपाल के लिए समय सीमा तय कर सकता है?
क्या राष्ट्रपति के फैसले को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है?
क्या राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से राय लेना अनिवार्य है?
क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के फैसलों पर कानून लागू होने से पहले अदालत सुनवाई कर सकती है?
क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 का प्रयोग कर राष्ट्रपति या राज्यपाल के फैसले को बदल सकता है?
क्या राज्य विधानसभा में पारित कानून, अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की स्वीकृति के बिना लागू किया जा सकता है?
क्या केंद्र और राज्य सरकार के बीच विवाद सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही सुलझा सकता है?
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इन्हीं सवालों पर सुनवाई के दौरान अब ये टिप्पणी सामने आई है।चीफ जस्टिस. आर. गवई, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए.एस. चंदूरकर की बेंच प्रेजिडेंशल रेफरेंस पर सुनवाई कर रही है। मई 2025 में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने अनुच्छेद 143 (1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से यह राय मांगी कि क्या न्यायालय आदेशों द्वारा राष्ट्रपति/राज्यपाल को समयसीमा में बांध सकता है? सुनवाई के दौरान भारत सरकार के सॉलिसिटर जनरल दलील दी कि न्यायपालिका राष्ट्रपति या राज्यपाल को बाध्यकारी निर्देश नहीं सकती। तब चीफ जस्टिस ने सवाल किया कि क्या हम यह कहें कि चाहे संवैधानिक पदाधिकारी कितने भी ऊंचे हों, यदि वे कार्य नहीं करते तो अदालत असहाय है? हस्ताक्षर करना है या अस्वीकार करना है, उस कारण पर हम नहीं जा रहे कि उन्होंने क्यों किया या क्यों नहीं किया। परंतु यदि सक्षम विधानमंडल ने कोई अधिनियम
गवर्नर महज़ डाकिया नहीं
सॉलिसिटर जनरल मेहता ने कहा कि राज्यपाल महज 'डाकिया' नहीं है जो मैकेनिकल ढंग से हर विधेयक पर मुहर लगाएं। वे राष्ट्रपति और संघ का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने उदाहरण दिया कि अगर कोई विधानसभा अत्यंत आपत्तिजनक कानून पास करे, जैसे आरक्षण खत्म करना, बाहर के लोगों का प्रवेश रोकना या केंद्र की एजेंसियों को बैन करना तो गवर्नर ऐसे विधेयकों पर स्वीकृति रोक सकते हैं। हालांकि, उन्होंने साफ किया कि यह शक्ति बहुत दुर्लभहालातों में ही इस्तेमाल की जानी चाहिए।
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