बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर ने इसलिए अपना लिया था बौद्ध धर्म

BR Ambedkar

29 अगस्त, 1947 को अंबेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। अंबेडकर ने मसौदा तैयार करने के इस काम में अपने सहयोगियों और समकालीन प्रेक्षकों की प्रशंसा अर्जित की।

भारतीय समाज में व्याप्त असमानता और जातिवाद के चरम दौर में डॉ. भीमराव अंबेडकर का अवतरण किसी क्रांति और अभ्युदय से कमतर नहीं आंका जा सकता। अंबेडकर के पिता सेना में थे। उस समय सैनिकों के बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा की विशेष व्यवस्था हुआ करती थी। इस कारण अंबेडकर की स्कूली पढ़ाई सामान्य तरीके से संभव हो पायी। अन्यथा तो दलित वर्ग के बच्चों के लिए स्कूल में पानी के नल को हाथ लगाना भी वर्जित माना जाता था। अंबेडकर के हृदय में समाज की इस विचित्र और अन्यायपूर्ण व्यवस्था को लेकर बाल्यकाल से ही आक्रोश था। शनैः शनैः उम्र और ज्ञान के साथ उनके आक्रोश की अग्नि और भी तेज होने लगी। 

इंसान का आक्रोश सृजन और विनाश दोनों को जन्म देता है। लेकिन अंबेडकर का आक्रोश जायज और समाजहित में था। इसलिए उनका आक्रोश अवश्य ही महान व्यक्तित्व का निर्माण करने वाला था। समय की करवटों के साथ अंबेडकर ने देश और विदेश में पढ़ाई पूर्ण कर कानून की डिग्री हासिल कर ली। अपने एक देशस्त ब्राह्मण शिक्षक महादेव अंबेडकर के कहने पर अंबेडकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर अंबेडकर जोड़ लिया, जो उनके गांव के नाम 'अंबावडे' पर आधारित था। रामजी सकपाल ने 1898 में पुनर्विवाह कर लिया और परिवार के साथ मुंबई चले आये। अंबेडकर के राजनीतिक जीवन की शुरूआत 1935 से मानी जाती है। अध्ययनकाल के समय ही किसी मित्र ने अंबेडकर को महात्मा बुद्ध की जीवनी भेंट की थी। बुद्ध के जीवन और बौद्ध धर्म को जानकर वे बेहद ही प्रभावित हुए। परिणामस्वरूप उन्होंने अपने जीवनकाल में बौद्ध धर्म को सहर्ष स्वीकार भी किया। अतः असमानता का अंत करने के लिए स्वतंत्रता के आंदोलन में कूद पड़े। शहीदों और क्रांतिकारियों ने जेल की दीवारों पर नाखूनों से वंदेमातरम और जय हिन्द के नारों को लिखकर देश की आजादी की इबारत तैयार की। अनगिनत प्रयत्नों के बाद देश में आजादी का दिनकर खिला, हर चेहरे पर अपना तेज और चमक लौट आयी और हर घर में खुशियों ने दस्तक दी। लेकिन आजादी के बाद देश के संविधान को निर्मित कर गणराज्य की स्थापना करना इतना सरल और आसान काम नहीं था। ऐसे में कानून के ज्ञाता अंबेडकर को देश के संविधान को तैयार करने का काम सौंपा गया। दरअसल, अंबेडकर को तो इस काम की दूर-दूर तक कोई आशा ही नहीं थी। क्योंकि आजादी के बाद गणराज्य की मांग करने वाले अधिकांश नेता उच्च वर्ग के थे।

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अंबेडकर का संविधान निर्माण करने में अतुलनीय योगदान रहा। अस्वस्थ होने के बाद भी इतने कम समय (2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन) में संविधान बनाकर उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया। वह उनका विधि व कानूनी ज्ञान ही था कि कांग्रेस व गांधी के कटु आलोचक होने के बाद भी उन्हें कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त, 1947 को अंबेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। अंबेडकर ने मसौदा तैयार करने के इस काम में अपने सहयोगियों और समकालीन प्रेक्षकों की प्रशंसा अर्जित की। इस कार्य में अंबेडकर का शुरूआती बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन बहुत काम आया। संघ रीति में मतपत्र द्वारा मतदान, बहस के नियम, पूर्ववर्तिता और कार्यसूची के प्रयोग, समितियां और काम करने के लिए प्रस्ताव लाना शामिल है। संघ रीतियां स्वयं प्राचीन गणराज्यों जैसे शाक्य और लिच्छवि की शासन प्रणाली के निर्देश (मॉडल) पर आधारित थीं। अंबेडकर ने संविधान को आकार देने के लिए पश्चिमी मॉडल इस्तेमाल किया है, इसमें ब्रिटिश, आयरलैंड, अमेरिका, कनाडा और फ्रांस सहित विभिन्न देशों के संविधान प्रावधान लिए गये पर उसकी भावना भारतीय है।

डॉ अंबेडकर द्वारा तैयार किये गये संविधान पाठ में संवैधानिक गारंटी के साथ व्यक्तिगत नागरिकों को एक व्यापक श्रेणी की नागरिक स्वतंत्रताओं की सुरक्षा प्रदान की गयी जिनमें धार्मिक स्वतंत्रता, अस्पृश्यता का अंत और सभी प्रकार के भेदभावों को गैर-कानूनी करार दिया गया। अंबेडकर ने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों में आरक्षण प्रणाली शुरू करने के लिए सभा का समर्थन भी हासिल किया, भारत के विधि निर्माताओं ने इस सकारात्मक कार्यवाही के द्वारा दलित वर्गों के लिए सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन और उन्हें हर क्षेत्र में अवसर प्रदान कराने की चेष्टा की जबकि मूल कल्पना में पहले इस कदम को अस्थायी रूप से और आवश्यकता के आधार पर शामिल करने की बात कही गयी थी। 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया और 26 जनवरी, 1950 को इसे एक लोकतांत्रिक सरकार प्रणाली के साथ लागू किया गया।

देश के संविधान में अल्पसंख्यक जनों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान व दलित और पिछड़े तबके के लोगों के लिए आरक्षण और उदारवादी तरीका अपनाया गया। समानता, स्वतंत्रता और बंधुता का सिद्धांत फ्रांस के संविधान से आयातित किया गया। खुद अंबेडकर इस सिद्धांत के पुरोधा और प्रतिपालक थे। संविधान सभा में देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अंबेडकर के इस मुश्किल काम को कम समय में इतनी सूझबूझ और बुद्धिमता से संपन्न करने के लिए भूरी-भूरी प्रशंसा की। साथ ही अंबेडकर की परिकल्पना के आधार पर रिजर्व बैंक की स्थापना भी की गयी। अंबेडकर आजादी के पक्षधर जरूर थे, लेकिन वे देश के बंटवारे के खिलाफ थे। अपनी पुस्तक में अंबेडकर ने बंटवारे की कड़ी भर्त्सना और विरोध किया है। धर्म के प्रति अंबेडकर आस्थिक प्रवृत्ति के थे। जहां मार्क्सवाद विचारधारा धर्म को अफीम मानकर इसका कट्टर विरोध कर रही थी, वहीं इससे अप्रभावित अंबेडकर की नजरों में धर्म को लेकर अलग ही सोच थी। उनके विचारों में धर्म वह जो सर्वजनों को समान अधिकार प्रदान करे। कुरीतियों को मिटाकर एक साफ-सुथरे समाज का निर्माण करे। यह धर्म संविधान ही था। जिसके अंबेडकर स्वयं कर्ता-धर्ता थे। आजीवन गरीबों और दलितों के हक के लिए लड़ने वाले, फटे कोट और मैली टाई में भी उच्च सपनों को बुनने वाले, सबके आत्मीय और अजीज अंबेडकर लंबे समय तक बीमारी से जूझते हुए अलविदा कह गये।

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अंबेडकर के जाने के लगभग सात दशक बाद भी हम अंबेडकर के आदर्शों का भारत बनाने में पूर्णता सफल नहीं हो पाए हैं। संवैधानिक अधिकारों के बलबूते पर आज दलित और पिछड़ों को समाज की मुख्यधारा में आने का अवसर तो जरूर मिला है, लेकिन उनके प्रति समाज के लोगों की सदियों से ग्रस्त मानसिकता अब भी नहीं बदल पायी है। हमारे देश में आज भी दलित समुदाय को घृणा की निगाहों से देखा जाता है। हमारे समक्ष आज भी अंबेडकर के सपनों का भारत बनाने की चुनौती है। इस सपने को हम सबको मिलकर पूरा करना है।

- देवेन्द्रराज सुथार 

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