साहित्य और संस्कृति की सुगन्ध विश्व पटल पर फैलायी विद्यानिवास मिश्र जी ने

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विजय कुमार । Jan 13 2018 6:29PM

भारतीय साहित्य और संस्कृति की सुगन्ध भारत ही नहीं, तो विश्व पटल पर फैलाने वाले डॉ. विद्यानिवास मिश्र का जन्म 14 जनवरी, 1926 को गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) के ग्राम पकड़डीहा में हुआ था।

भारतीय साहित्य और संस्कृति की सुगन्ध भारत ही नहीं, तो विश्व पटल पर फैलाने वाले डॉ. विद्यानिवास मिश्र का जन्म 14 जनवरी, 1926 को गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) के ग्राम पकड़डीहा में हुआ था। उनके पिता पंडित प्रसिद्ध नारायण मिश्र की विद्वत्ता की दूर-दूर तक धाक थी। उनकी माता गौरादेवी की भी लोक संस्कृति में अगाध आस्था थी। इस कारण बालपन से ही विद्यानिवास के मन में भारत, भारतीयता और हिन्दुत्व के प्रति प्रेम जागृत हो गया।

प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा गोरखपुर में प्राप्त कर वे उच्च शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र प्रयाग और फिर काशी आ गये। प्रयाग विश्वविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष वेदमूर्ति क्षेत्रेश चन्द्र चट्टोपाध्याय उनके प्रेरक एवं गुरु थे। उन्होंने अपने शोधकार्य के लिए पाणिनी की अष्टाध्यायी को चुना। यह एक जटिल विषय था; पर विद्यानिवास जी ने इस पर कठोर परिश्रम किया। 1960-61 में गोरखपुर विश्वविद्यालय से उन्हें इस पर पी-एच.डी. की उपाधि मिली। उनके शोध को बड़े-बड़े विद्वानों से प्रशंसा और शुभकामनाएं मिलीं। 1942 में राधिका देवी से विवाह के बाद उन्होंने अध्यापन कार्य को अपनी आजीविका का आधार बनाया। इसका प्रारम्भ गोरखपुर से ही हुआ, जो आगे चलकर अमरीका में कैलिफोर्निया और फिर वाशिंगटन विश्वविद्यालय तक पहुंचा। 

विद्यानिवास जी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। उन्होंने स्वयं को केवल अध्यापन तक ही सीमित नहीं रखा। दस साल तक वे आकाशवाणी मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग में भी कार्यरत रहे। प्रसार भारती के सदस्य के नाते भी उनका योगदान उल्लेखनीय रहा। लेखन के क्षेत्र में उन्होंने प्रायः सभी विधाओं में काम किया है। उनका मानना था कि साहित्य और संस्कृति में कोई भेद नहीं है। अपने अनुभव में तपकर जब साहित्य का सृजन होगा, तभी उसमें सच्चे जीवन मूल्यों की सुगन्ध आयेगी। लेखन में उनका प्रिय विषय ललित निबन्ध था। उनकी मान्यता थी कि हृदय में उतरे बिना ललित निबन्ध नहीं लिखा जा सकता। उनके निबन्ध इस कसौटी पर खरे उतरते हैं और इसीलिए वे पाठक के अन्तर्मन को छू जाते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और कुबेरनाथ राय की तरह ही उनके ललित निबन्ध बहुत लोकप्रिय हुए। वे काशी विद्यापीठ, हिन्दी विद्यापीठ (देवधर) और सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।

डॉ. विद्यानिवास मिश्र की प्रमुख कृतियों में तुम चन्दन हम पानी, गांव का मन, आंगन का पंछी, भ्रमरानन्द के पत्र, कंटीले तारों के आर-पार, बंजारा मन, अग्निरथ, मैंने सिल पहुंचायी, कितने मोर्चे, गांधी का करुण रस, चिड़िया रैन बसेरा, छितवन की छांह, रहिमन पानी राखिये, थोड़ी सी जगह दें, फागुन दुई रे दिना, भारतीय संस्कृति के आधार, स्वरूप विमर्श, सपने कहां गये..आदि हैं। हिन्दी के लिए उनकी सेवाओं को देखते हुए 2003 ई. में राष्ट्रपति महोदय ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया। यों तो वे विदेश में लम्बे समय तक अध्यापक रहे; पर रामायण सम्मेलन तथा विश्व हिन्दी सम्मेलनों के माध्यम से भी उन्होंने अनेक देशों में हिन्दी और हिन्दुत्व का प्रचार-प्रसार किया।

डॉ. विद्यानिवास जी सिद्धहस्त लेखक, वक्ता तथा सम्पादक थे। वे कुछ वर्ष दैनिक समाचार पत्र ‘नवभारत टाइम्स’ के भी सम्पादक रहे। दिल्ली से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘साहित्य अमृत’ के वे संस्थापक सम्पादक थे। 1987 में उन्हें ‘पद्मश्री’ तथा 1999 में ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान, व्यास सम्मान, शंकर सम्मान, भारत भारती और सरस्वती सम्मान भी प्राप्त हुए। महाभारत के काव्यार्थ ग्रन्थ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ ने उन्हें मूर्तिदेवी पुरस्कार से विभूषित किया। साहित्य शिरोमणि डॉ. विद्यानिवास मिश्र का 14 फरवरी, 2005 को एक कार दुर्घटना में दुखद निधन हुआ।

-विजय कुमार

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