अदब के इतिहास में अमर हो गए शकील बदायूंनी, 13 साल की उम्र में ही लिख दी थी पहली गजल

shakeel badayuni

बचपन से ही शेरों-शायरी में मशगूल रहने वाले शकील बदायूंनी का जन्म उत्तर प्रदेश के बदायूं में अगस्त 1916 में हुआ था। यूं तो शकील का असल नाम गफ्फार अहमद था, मगर उन्हें शकील बदायूंनी के नाम से पहचाना गया। 13 साल की उम्र में ही शकील ने अपनी पहली गजल लिख डाली थी।

शकील बदायूंनी एक ऐसा नाम है, जो जुबां पर आते ही मुसकान ला देता है। शायर और गीतकार शकील बदायूंनी के यूं तो बहुत से किस्से बड़े फेमस हुए लेकिन हम आपको उनके गीत चौतवी का चांद से जुड़ी हुई जानकारी देंगे। वैसे तो आज यानी की 20 अप्रैल के दिन शकील बदायूंनी का इंतकाल हो गया था। लेकिन उनके शेर और गीत आज भी लोगों की जुबां पर बने रहते हैं।

किसी ने बहुत खूब कहा था कि शायद सिर्फ जिन्दा रहते हैं मरते नहीं है क्योंकि उनके तरानों को आज भी लोग गुनगुनाते हैं।

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बचपन से ही शेरों-शायरी में मशगूल रहने वाले शकील बदायूंनी का जन्म उत्तर प्रदेश के बदायूं में अगस्त 1916 में हुआ था। यूं तो शकील का असल नाम गफ्फार अहमद था, मगर उन्हें शकील बदायूंनी के नाम से पहचाना गया। 13 साल की उम्र में ही शकील ने अपनी पहली गजल लिख डाली थी। 

उनकी पहली गजल उस वक्त के मशहूर अखबार 'शाने हिन्द' में प्रकाशित हुई। 1930 में पहली गजल प्रकाशित होने के बाद शकील बदायूंनी का यह सिलसिला शुरू हुआ जो उम्र के आखिरी पड़ाव तक चला।

उन्होंने 1936 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्‍वविद्यालय में अपना दाखिला कराया। इसके बाद वो मुशायरों में हिस्सा लेने लगे। अलीगढ़ में पढ़ाई पूरी करने के बाद शकील बदायूंनी सरकारी नौकरी करने लगे। मगर उनका दिल तो शेरों-शायरी के लिए बना था। ऐसे में वह कहां तब की बंबई से दूर रह सकते थे। 1944 में वह अब की मुंबई पहुंचे और फिर उन्हें संगीतकार नौशाद साहब के साथ काम करने का मौका मिला।

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सदाबहार शकील

शकील बदायूंनी के सदाबहार गाने आज भी लोग बड़े ही चाव से सुनते हैं। ‘नन्हा मुन्ना राही हूं देश का सिपाही हूं’ और ‘चौदवीं का चांद हो या आफताब हो’ यह वो गाने हैं जो लोग आज भी गुनगुनाते हैं। यूं तो शकील मानते थे कि उनकी जिन्दगी और उनकी शायरी में बहुत फर्क है। हालांकि शकील को उनके गानों के लिए तीन बार फिल्म फेयर अवार्ड से नवाजा गया है। 

चौदवीं का चांद हो या आफताब हो

चौदवीं का चांद फिल्म का पहला गाना रिकॉर्ड किया जाना था। स्टूडियो में शकील बदायूंनी, गुरुदत्त और गीतकार रविशंकर शर्मा मौजूद थे। यह वो वक्त था जब गुरुदत्त और बर्मन दा की जोड़ी टूट चुकी थी और 'कागज के फूल' फ्लॉप हो गई थी। ऐसे में गुरुदत्त और शकील बदायूंनी स्टूडियो में काफी बेचैन बैठे हुए थे।

इसी बीच शकील ने अपनी बेचैनी को तोड़ने हुए रविशंकर से पूछते हैं कि सब कुछ ठीक रहेगा न ? तो जवाब मिलता है कि चिंता मत करो, बस तुम धैर्य रखो सब ठीक रहेगा। 

फिल्म रिलीज होती है और हिट साबित होती है। रविशंकर को बेस्ट म्यूजिक कंपोजर का अवार्ड मिलता है और शकील बदायूंनी को फिल्म फेयर अवॉर्ड से नवाजा जाता है। यह गीतकार शकील के जीवन की पहली कामयाबी थी। मानो यहां से उनका सिलसिला शुरू हुआ तो वह थमा ही नहीं।

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साल 1961 में 'चौदहवीं का चांद हो', 1962 में 'घराना' और 1963 में 'बीस साल बाद' के गानों के लिए गीतकार शकील को फिल्म फेयर मिला।

अदब के इतिहास में अमर हो गए शकील

अलीगढ़ मुस्लिम विश्‍वविद्यालय में पढ़ते हुए शकील बदायूंनी ने मुशायरों में हिस्सा लेना शुरू किया और क्या खूब बोले तभी तो नामी शायरों ने उनकी जमकर तारीफ की। उस वक्त शकील बदायूंनी की शायरियों को फिराक गोरखपुरी ने लाजवाब पूंजी बताया था। जबकि जिगर मुरादाबादी ने कहा था कि अगर शकील इसी तरह पड़ाव तय करते रहे तो भविष्य में अदब के इतिहास में वह अमर हो जाएंगे और हुआ भी कुछ ऐसा ही। 20 अप्रैल 1970 को शकील बदायूंनी ने आखिरी सांस ली और शेरों-शायरी की दुनिया में अमर हो गए।

- अनुराग गुप्ता

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