Subhadra Kumari Chauhan ने जनता में जगाई थी राष्ट्रीयता की अलख

subhadra kumari chauhan
Prabhasakshi
डॉ. वंदना सेन । Feb 15 2023 12:12PM

देश की आजादी के लिए वे कांग्रेस (उस समय राजनीतिक दल नहीं, आजादी प्राप्त करने के लिए एक संस्था मात्र थी) की सदस्य बनीं और महात्मा गांधी की लाड़ली रहीं। वे सेंट्रल प्रोविंस से विधानसभा की भी सदस्य रही थीं।

स्वतंत्रता के संग्राम में योगदान देने वाली ऐसी कई महिला महानायक भी हैं, जिन्होंने आजादी के लिए किए गए यज्ञ में अपनी आहुति देकर स्वतंत्रता की मशाल को जलाए रखा। स्वतंत्रता की कहानी को काव्यमय शब्द प्रदान करने वाली लेखिका व कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने एक ऐसी कविता लिखी, जो आज भी गुनगुनाई जा रही है। सुभद्रा जी के मन में वीरांगना के प्रति जो भाव उमड़ रहा था, उसी को कविता के रूप में प्रकट करके जन जन में प्रवाहित करने का काम किया। उन्होंने देश के नागरिकों के मन में स्वतंत्रता का भाव जगाया। 1922 में महाकौशल अंचल के जबलपुर में देश का प्रथम झंडा सत्याग्रह किया गया था। जिसमें सुभद्रा जी पहली महिला सत्याग्रही थीं। इस सत्याग्रह में प्रतिदिन सभाएं होती थीं, और इन सभाओं में सुभद्रा कुमारी चौहान अपनी वाणी से देश भाव को प्रकट करती थीं। देश की स्वतंत्रता के लिए किए जाने वाले इन भाषणों और कविताओं में एक ऐसा प्रवाह दिखाई देता था, जिसे सुनकर अनेक महिलाएं और पुरुष स्वतंत्रता की बलिबेदी पर जीने मरने तक तैयार हो जाते थे।

देश की आजादी के लिए वे कांग्रेस (उस समय राजनीतिक दल नहीं, आजादी प्राप्त करने के लिए एक संस्था मात्र थी) की सदस्य बनीं और महात्मा गांधी की लाड़ली रहीं। वे सेंट्रल प्रोविंस से विधानसभा की भी सदस्य रही थीं। सुभद्रा जी के भाषणों के कारण जिस प्रकार से देश में देश भक्ति का ज्वार पैदा हो रहा था, उसके चलते अंगे्रजों ने सुभद्रा जी को नागपुर में न्यायालयीन हिरासत में लिया गया। स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए सुभद्रा कुमारी चौहान को अनेक बार अंगे्रजों की प्रताडऩा का शिकार होना पड़ा और अनेक बार जेल यातनाएं भी भोगीं, लेकिन इसके बाद भी उनके मन में स्वतंत्रता पाने की चाहत कमजोर नहीं हुई। यही भाव उनकी कविताओं के माध्यम से प्रकट हुए। जो चिरस्थायी की भांति आज भी मन को झंकृत कर देने वाली हैं। वीरोचित भाव को प्रकट करने वाली उनकी अमर कविता को देखिए-

सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी,

गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी,

दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।

इसी प्रकार बच्चों में देश भाव को जगाने वाली बहुत ही प्रेरणादायी बाल कविताएं भी सुभद्रा कुमारी चौहान ने लिखी हैं। इन रचनाओं में उनकी राष्ट्रीय भावनाएं प्रकट हुई हैं। हिन्दी के सुपरिचित हस्ताक्षर गजानन माधव मुक्तिबोध ने सुभद्रा कुमारी चौहान के राष्ट्रीय काव्य को हिंदी में बेजोड़ माना है- उन्होंने उस राष्ट्रीय आदर्श को जीवन में समाया हुआ देखा है, उसकी प्रवृत्ति अपने अंत:करण में पाई है।

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सुभद्रा जी की बेटी सुधा चौहान का विवाह प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय से हुआ जो स्वयं अच्छे लेखक थे। सुधा ने उनकी जीवनी लिखी- 'मिला तेज से तेज'। मिला तेज से तेज नामक पुस्तक में सुधा चौहान ने लिखा है कि सुभद्रा बचपन से ही निडर, साहसी, विद्रोही और वीरांगना थीं। उनकी रचनाओं से उनके स्वभाव की झलक देखी जा सकती है। उन्होंने लगभग 88 कविताओं और 46 कहानियों की रचना की, जिसमें अशिक्षा, अंधविश्वास, जातिप्रथा आदि रूढिय़ों पर प्रहार किया गया है। 'झांसी की रानी' उनकी सदाबहार रचना है, जो आज भी विद्यालय पाठ्यक्रम में शामिल है और जल्दी ही बच्चे उससे स्वयं को जोड़ लेते हैं। 'बिखरे मोती', 'उन्मादिनी' और 'सीधे-सादे चित्र' उनके तीन लोकप्रिय कहानी-संग्रह हैं।

कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान एक साहित्य साधक थीं, अंग्रेज कभी नहीं चाहते थे कि सुभद्रा कुमारी चौहान अपनी लेखनी के माध्यम से स्वतंत्रता पाने के लिए अलख जगाएं, इसलिए उन्होंने जहां एक ओर सुभद्रा को प्रताडि़त किया, वहीं उनकी रचनाओं को जप्त कर लिया। चूंकि यह जप्त की गई कई रचनाएं सुभद्रा कुमारी चौहान को कंठस्थ थीं, इसलिए इन रचनाओं के जप्त करने से कोई फर्क नहीं पड़ा। इन्होंने अपने साहित्यिक तेज में किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं आने दी। इसलिए सुभद्रा कुमारी चौहान को साहित्य के क्षेत्र में स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। एक प्रसिद्ध कवयित्री के रूप में सुभद्रा जी की काव्य साधना के पीछे उत्कृष्ट देश प्रेम, अपूर्व साहस तथा आत्मोत्सर्ग की प्रबल कामना है। इनकी कविता में सच्ची वीरांगना का ओज और शौर्य प्रकट हुआ है।

जन्मजात प्रतिभाशाली वीरांगना सुभद्रा कुमारी चौहान और हिन्दी की महान साहित्यकार महादेवी वर्मा दोनों बचपन की सहेलियां थीं। जैसे जैसे इनका बचपन बीता, वैसे ही दोनों ने साहित्य के क्षेत्र में ऐसा नाम कमाया कि साहित्य का आकाश इनकी कविताओं से आच्छादित हो गया। इनकी रचनाओं ने अमरता की ऊंचाइयों को प्राप्त किया है। खास बात यह है कि दोनों में आत्मीय भाव होने के कारण दोनों ही एक दूसरे की उपलब्धि पर ऐसे आत्मीय भाव प्रकट करती थीं, जैसे यह स्वयं की ही उपलब्धि थीं। दोनों ने एक-दूसरे के यश और कीर्ति से सुख पाया। ईर्ष्या का तो नामोनिशान ही नहीं था। आज की स्थितियों में ऐसे साहित्यकारों को खोज पाना टेड़ी खीर ही है।

गांधी जी की असहयोग की पुकार को पूरा देश सुन रहा था। सुभद्रा ने भी स्कूल से बाहर आकर पूरे मन-प्राण से असहयोग आंदोलन में अपने को झोंक दिया। जिसमें उनके दो रूप दिखाई दिए। जहां एक ओर देश को स्वतंत्र कराने के लिए चलाए जा रहे आंदोलन में आगे रहने के लिए लालायित दिखाई देती थीं, वहीं दूसरे रूप में तोप के गोलों की भांति आग बरसाने वाली देश भक्ति कवि की भूमिका भी निभाती रहीं। 'जलियांवाला बाग' के नृशंस हत्याकांड से उनके मन पर गहरा आघात लगा। इस कारण उनके मन का गुबार फूट पड़ा और उन्होंने तीन अग्नि की ज्वालाओं जैसी प्रखर कविताएँ लिखीं। 'जलियाँवाले बाग में वसंत' में उन्होंने लिखा-

परिमलहीन पराग दाग-सा बना पड़ा है,

हां! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।

आओ प्रिय ऋतुराज! किंतु धीरे से आना,

यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।

कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा-खाकर,

कलियाँ उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर।

सुभद्रा कुमारी चौहान के स्वभाव और आचरण से यह सहज ही ध्यान में आता था कि उनमें यह संस्कार बचपन की देन ही थी। पढ़ाई में सदैव आगे रहने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान के शिक्षकों ने उनकी चंचलता और कुशाग्र बुद्धि के कारण यह अनुमान लगा लिया था कि ये बालिका राष्ट्रीय अवतार के रूप में अवतरित हुई है। वे बचपन से ही कविताएं लिखने लगी थीं। कविता लिखने के लिए सुभद्रा जी को किसी एकांत स्थान की आवश्यकता नहीं थी, बल्कि वह घर से विद्यालय जाते और आते समय तांगे में बैठकर ही लिख लिया करती थीं। इस तरह कविता की रचना करने के कारण से स्कूल में उनकी बड़ी प्रसिद्धि थी।

स्वतंत्रता सेनानी व कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त, 1904 को उत्तर प्रदेश राज्य के इलाहाबाद स्थित निहालपुर गांव में हुआ था। वर्ष 1913 में नौ वर्ष की आयु में सुभद्रा की पहली कविता प्रयाग से निकलने वाली पत्रिका 'मर्यादा' में प्रकाशित हुई थी। यह कविता 'सुभद्राकुंवरि' के नाम से छपी। 14 फरवरी 1948 को वे नागपुर में शिक्षा विभाग की बैठक में भाग लेने गईं। 15 फरवरी को दोपहर के समय वे जबलपुर के लिए वापस चलीं। उनका बेटा कार चला रहा था। कार सड़क किनारे पेड़ से टकरा गई। सुभद्रा जी बेहोश हो गईं। अस्पताल के सिविल सर्जन ने देखकर बताया कि उनका देहांत हो गया है। उनका चेहरा एकदम शांत और निर्विकार था, जैसे गहरी नींद सोई हों।

- डॉ. वन्दना सेन, सहायक प्राध्यापक

पार्वतीबाई गोखले विज्ञान महाविद्यालय

जीवाजी गंज लश्कर ग्वालियर मध्यप्रदेश

सभासद, मध्य भारतीय हिन्दी साहित्य सभा ग्वालियर

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